तिलक कुमार, बलिया : एक जमाना था कि जब हनुमानगंज की पहचान सिंहोरा से होती थी. उस समय यहां की निर्मित सिंहोरा मुंबई से लेकर कोलकाता तक जाता था. तब कारोबारी भी काफी खुश थे और कारोबार भी फल फूल रहा था. सप्लाई देने के लिए सिंहोरा कम हो जाता था तो बाहर के व्यापारियों को महीनों इंतजार करना पड़ता था.
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सरकार की उपेक्षा के कारण दम तोड़ रहा सिंहोरा उद्योग
तिलक कुमार, बलिया : एक जमाना था कि जब हनुमानगंज की पहचान सिंहोरा से होती थी. उस समय यहां की निर्मित सिंहोरा मुंबई से लेकर कोलकाता तक जाता था. तब कारोबारी भी काफी खुश थे और कारोबार भी फल फूल रहा था. सप्लाई देने के लिए सिंहोरा कम हो जाता था तो बाहर के व्यापारियों […]
अब हालत यह है कि शासन स्तर से कोई सहयोग नहीं मिलने के कारण यह उद्योग अब दम तोड़ रहा है, वहीं इससे जुड़े कारोबार अपनी इस परंपरागत धंधे से मुंह मोड़ने के लिए मजबूर हो गये है. व्यापारियों को समझ में नहीं आ रहा कि हम करे तो क्या करें. कारोबारियों के सामने पुस्तैनी धंधे को बचाने की चुनौती है. इसलिए वह अभी भी इससे जुड़े हुए है. किसी जनप्रतिनिधि द्वारा इस धंधे का बचाने का प्रयास नहीं किया गया.
शादी-विवाह में सिंहोरा का काफी महत्व है. हर शादी-विवाह में महिलाएं ‘कहवां से आवेला सिंहोरवा-सिंहोरवा भरल सेनुर हो, ए ललना कहवां से आवेला पियरिया-पियरिया लागल झालर हो’, गीत गाती है. यह मंगल गीत जब सुहागिन औरतें गाती हैं,उन्हे शायद यह नहीं पता होता कि सुहाग का प्रतीक ‘सिन्होरा’ अर्थात सेन्दुरौटा कहां और कैसे बनता है. सबसे बड़ी बात यह कि महिलाएं इसे बहुत हिफाजत से संभाल कर आजीवन रखती हैं.
सिकंदरपुर मार्ग पर जनपद मुख्यालय से करीब पांच किमी दूर स्थित हनुमानगंज कस्बे में ‘सिन्होरा’ बनाने का लघु उद्योग है. करीब एक दर्जन मशीनें इसे बनाने के लिए लगायी गयी है. इसे बनाने वाले कारगीर भी अब इससे मुंह मोड़ने लगे है. इसमें जुड़े लोगों को सबसे अधिक दिक्कत कच्चे माल की होती है.
यहां पर सिंहोरा, मौर एवं दूल्हे के सिर पर सजने वाली पगड़ी का निर्माण किया जाता है. इस धंधे से जुड़े विनोद कुमार बताते है कि आधुनिक युग में सिन्होरा का उपयोग बस रस्म अदायगी तक ही रह गया है. सबसे बड़ी दिक्कत इसके कच्चे माल की है, जो अब उपलब्ध नहीं हो पा रहा है.
बस धंधा होने के कारण इसे छोड़ भी नहीं सकते है, यहां से बना सिंहोरा गाजीपुर, वाराणसी, इलाहाबाद, चंदौली, गोरखपुर, बस्ती, आजमगढ़, मऊ, जौनपुर, आरा, छपरा, बक्सर, सिवान आदि सुदूर जनपदों में जाता है. आम की लकड़ी से होता निर्माण: सिंहोरा निर्माण में कच्चे माल के रूप में आम की लकड़ी का प्रयोग किया जाता है जिसे वेदों में देव वृक्ष की संज्ञा दी गई है. दो से तीन फीट व्यास के डेढ़ फीट लंबे आम की लकड़ी के बोटा-गुटके को पहले धूप में सुखाया जाता है.
इसके बाद कुल्हाड़ी से उसके छिलके उतार कर खराद मशीन से सिंहोरा का स्वरूप दिया जाता है. पुन: सुखाने के बाद खराद मशीन पर सफाई कर के चापड़ से तैयार रंग से रंग कर बिक्री के लिए तैयार किया जाता है. मुख्य रूप से औजार रूखानी, कुल्हाड़ी तथा बिजली की मोटर या डीजल इंजन का सहारा लिया जाता है. इसके लिए परंपरागत तकनीकी से ट्रेंड कारीगर बिहार के जनपद कटिहार, मोतीहारी, बेगूसराय आदि से आते हैं जो पूरे वर्ष रहकर काम करते हैं.
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