लखनऊ: मशहूर शायर मुनव्वर राना का कहना है कि सियासत ने उर्दू पर जितने वार किये, उतने दुनिया की किसी और जबान पर होते तो उसका वजूद खत्म हो गया होता. लेकिन उर्दू की अपनी ताकत है कि यह अब तक जिंदा है और मुस्कुराती दिखती है. देश में बढ़ती असहिष्णुता के खिलाफ दो साल पहले अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने वाले राना ने मुल्क के मौजूदा सूरत-ए-हाल पर रंज का इजहार करते कहा कि उनकी आखिरी ख्वाहिश है कि वह अपने उसी पुराने हिंदुस्तान में आखिरी सांस लेना चाहते हैं.
रविवार को अपना 65वां जन्मदिन मनाने जा रहे राना ने भाषा से खास बातचीत में उर्दू जबान की हालत का जिक्र करते हुए कहा, हमने पूरी जिंदगी में उर्दू जबान को आसमान से नीचे गिरते हुए देखा है. हमने एक शेर भी कहा कि हर एक आवाज अब उर्दू को फरियादी बताती है, यह पगली फिर भी अब तक खुद को शहजादी बताती है. उन्होंने कहा सियासत ने इस पर जितने वार किये, उतने वार दुनिया की किसी और जबान पर होते तो उसका वजूद खत्म हो गया होता. लेकिन उर्दू की अपनी ताकत है कि यह अब तक जिंदा है और मुस्कुराती और खिलखिलाती हुई दिखती है. राना ने कहा कि सियासत में ऐसी ताकतें ही घूम-फिरकर हुकूमत में आयीं जिन्होंने मिलकर इस जबान को तबाह किया.
उन्होंनेकहा कि किसी शख्स या किसी मिशन को इंसाफ ना देना, उसको कत्ल करने के बराबर है. जब आजादी के वक्त सारा सरकारी काम उर्दू में होता था. यहां तक कि मुल्क के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की शादी का कार्ड भी उर्दू में ही छपा था, आखिर ऐसा क्या हो गया कि उर्दू इतनी परायी हो गयी. देश में बढती असहिष्णुता के विरोध में अक्तूबर 2015 में अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस करने वाले राना ने कहा कि आज तो मुल्क के कमजोर तबके यानी अल्पसंख्यक लोगों के साथ-साथ बहुसंख्यक लोग भी महसूस करने लगे हैं कि जो मौजूदा सूरतेहाल हैं, वे अगर जारी रहे तो कहीं ऐसा ना हो कि हमारी भविष्य की पीढयिां हिन्दुस्तान के इस नक्शे को नहीं देख पाएं.
उन्होंने कहा, यह जो सियासी उथल-पुथल है, उसमें एक बुजुर्ग की हैसियत से मुझे यह खौफ लगता है कि कहीं ऐसा ना हो कि हिंदुस्तान में जबान, तहजीब और मजहब के आधार पर कई हिंदुस्तान बन जाएं। यह बहुत अफसोसनाक होगा. मैंने जैसा हिन्दुस्तान देखा था, आजादी के बाद पूरा का पूरा, वैसा ही हिंदुस्तान देखते हुए मरना चाहता हूं. एक सवाल पर राना ने कहा कि उन्हें किसी भी शायर ने प्रभावित नहीं किया. इसकी वजह यह नहीं है कि वह खुद को बहुत काबिल समझते हैं. असल में उन्होंने जबान, अदब और तहजीब को एक खानदान की तरह देखा। आमतौर पर कह दिया जाता है कि वह मीर, दाग, इकबाल या गालिब से बहुत मुतास्सिर हैं. हकीकत में ऐसा बिल्कुल नहीं है जितने भी शायर या कवि हैं, उन सबको वह एक खानदान समझते हैं.
उन्होंने कहा इस खानदान में छोटे-बड़े का फेर इसलिये नहीं था, क्योंकि जब किसी खानदान में शादी होती है तो सबको बुलाया जाता है. उसमें वह रिश्तेदार भी आता है, जो गवर्नर हो चुका होता है, और वह रिश्तेदार भी शरीक होता है, जो ट्रक चालक या रिक्शा चालक होता है. मैंने जबान को भी ऐसे ही समझा. मैंने बहुत मामूली लेखक की किताब को भी उतना ही दिल लगाकर पढ़ा जितना बड़े से बड़े लेखक की किताब को. उत्तर प्रदेश के रायबरेली में 26 नवंबर 1952 को जन्में राना ने कहा कि उनकी जिंदगी पर उनके माता-पिता का खासतौर पर मां का खासा असर रहा. मेरे खानदान के पास जो भी जमींदारियां रहीं हों लेकिन मैंने अपने वालिद के हाथ में ट्रक का स्टीयरिंग देखा था. बेहद गरीबी के दिन भी देखे. मां को फाकाकशी करते हुए देखा. वह मुफलिसी के दिन भी गुजारे हैं मैंने जब, चूल्हे से खाली हाथ तवा भी उतर गया.
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