राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मुद्दा पूरी तरह ‘‘भूमि विवाद”” का मामला : सुप्रीम कोर्ट
नयी दिल्ली : उच्चतम न्यायालय ने आज कहा कि राजनीतिक रूप से संवेदनशील राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मुद्दा पूरी तरह से ‘‘भूमि विवाद” का मामला है और इसे सामान्य प्रक्रिया के तहत निपटाया जायेगा. अयोध्या विवाद पर न्यायालय द्वारा अंतिम सुनवाई शुरू किये जाने के साथ ही अलग-अलग पक्षों की ओर से पेश दो वरिष्ठ अधिवक्ताओं […]
नयी दिल्ली : उच्चतम न्यायालय ने आज कहा कि राजनीतिक रूप से संवेदनशील राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मुद्दा पूरी तरह से ‘‘भूमि विवाद” का मामला है और इसे सामान्य प्रक्रिया के तहत निपटाया जायेगा. अयोध्या विवाद पर न्यायालय द्वारा अंतिम सुनवाई शुरू किये जाने के साथ ही अलग-अलग पक्षों की ओर से पेश दो वरिष्ठ अधिवक्ताओं के बीच तब तीखी बहस हुई जब उनमें से एक ने सुझाव दिया कि उन्हें अपनी संभावित दलीलों के सार का आदान-प्रदान करना चाहिए.
न्यायालय ने एक घंटे तक चली सुनवाई के दौरान यह भी स्पष्ट किया कि पहले वह उन्हें सुनना चाहता है जो इलाहाबाद उच्च न्यायालय में विवाद से जुड़े पक्ष थे. शीर्ष अदालत ने आगे कहा कि जिन्होंने उसके समक्ष मामले में जुड़ने और खुद को पक्ष बनाये जाने की मांग की है, उन्हें इंतजार करना होगा क्योंकि उसके समक्ष आया मुद्दा ‘‘पूरी तरह से भूमि विवाद” का मामला है.
प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली एक विशेष पीठ इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के 2010 के फैसले के परिप्रेक्ष्य में दीवानी अपीलों पर सुनवाई कर रही थी. उच्च न्यायालय ने 2:1 के बहुमत के फैसले में विवादित भूमि को तीन पक्षों-रामलला, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड के बीच बराबर बांटने का आदेश दिया था. पीठ में न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एसए नजीर भी हैं.
रामलला विराजमान की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता सीएस वैद्यनाथन ने सुनवाई के दौरान कहा कि पक्षों को अपनी दलीलों का सार अदालत को देना चाहिए और आपस में इसका अदान-प्रदान करना चाहिए. वास्तविक पक्षों में से एक की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन ने वैद्यनाथन की इस बात पर कहा कि प्रतिवादी (उप्र सरकार और हिंदू संगठन) यह हुक्म नहीं दे सकते कि वह किस चीज पर दलील देंगे. धवन ने कहा, ‘‘मैं आपको क्यों बताऊं कि मेरी दलील क्या होगी। आप मुझे हुक्म नहीं दे सकते. मैं जैसे चाहूं, वैसे दलील दूंगा. यदि आप मेरी विषय वस्तु सुनना चाहते हैं तो मैं कहूंगा कि श्रीमान वैद्यनाथन आप गलत हैं.” इस पर पीठ ने हस्तक्षेप किया और कहा कि ‘‘इसी तरह की दलील वे आपके लिए दे सकते हैं डॉ. धवन.”
उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से पेश अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने हस्तक्षेप किया और कहा कि इस तरह की चीज को नजरअंदाज किया जाना चाहिए. पीठ ने कहा कि धवन के नाराज होने का कोई कारण नहीं है क्योंकि अदालत ने किसी से भी सार नहीं मांगा. धवन और वैद्यनाथन के बीच तीखी बहस को काव्यात्मक रूप प्रदान करते हुए प्रधान न्यायाधीश ने कहा, ‘‘हम ऐसी विषयवस्तु नहीं चाहते जो अनुमान में बदले, धारणा में बदले, असत्य में बदले, नादानी में बदले, खतरे में बदले, दोष में बदले, जो किसी व्यक्ति को मार सकती है.” तब धवन ने कहा कि वह बिल्कुल भी दोषी नहीं हैं.
प्रधान न्यायाधीश ने उत्तर दिया, ‘‘श्री वैद्यनाथन ने आपसे विषयवस्तु नहीं मांगी.” न्यायालय ने अपने आदेश में कहा कि संबंधित वास्तविक पक्ष न्यायालय में अपने द्वारा पेश कियेगये दस्तावेजों का अंग्रेजी रूपांतरण दो सप्ताह के भीतर दायर करें. पीठ ने मामले पर रोजाना सुनवाई पर भी अपनी आपत्ति जतायी और कहा कि एक बार मामला शुरू हो जाने पर यह सामान्य ढंग से चलेगा. इसने कहा, ‘‘700 से अधिक वादी (अन्य मामलों में) न्याय का इंतजार कर रहे हैं, हमें उन्हें भी सुनना होगा. हर रोज डेढ़ घंटे का समय देने से इन मामलों को निपटाने में मदद मिलेगी.”
जब वरिष्ठ अधिवक्ता चिराग उदय सिंह सहित कुछ वकीलों ने फिल्म निर्माता श्याम बेनेगल और लेखक किरण नागरकर सहित कुछ लोगों को पक्ष बनाने से संबंधित मुद्दा उठाया तो पीठ ने कहा कि यह पूरी तरह से ‘‘भूमि विवाद” का मामला है जिसमें अपील और प्रति-अपील दायर की जा चुकी हैं. पीठ ने हालांकि कहा कि बेनेगल और अन्य के हस्तक्षेप को लेकर बाद में फैसला किया जायेगा. हालांकि हिंदू संगठनों, मुस्लिम संगठनों तथा उत्तर प्रदेश सरकार के वकीलों ने मिलकर बयान दिया कि मामले से असंबद्ध किसी व्यक्ति को दखल की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए.
न्यायालय ने अपनी रजिस्ट्री से कहा कि वह पक्षों को उन वीडियो कैसेटों की प्रति वास्तविक मूल्य पर उपलब्ध कराये जो उच्च न्यायालय के रिकॉर्ड का हिस्सा थीं. हिंदू संगठनों में से एक की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता के. पारासरन ने कहा, ‘‘वे (अपीलकर्ता) 30 हजार साल पहले का किस तरह का सबूत लायेंगे. घटना त्रेता युग से संबंधित है.” उन्होंने कहा कि अदालत को खुद को रिकॉर्ड में मौजूद साक्ष्यों तक सीमित रखना चाहिए.