20 अप्रैल, पुण्यतिथि विशेष : शकील बदायूंनी- चौदहवीं का चांद हो या आफताब हो…।
आशुतोष के पांडेय लखनऊ / पटना : ‘नन्हा मुन्हा राही हूं देश का सिपाही हूं, बोलो मेरे संग’ और ‘चौदहवीं का चांद हो या आफताब हो’ . इन गीतों को आज भी सुने तो ऐसा लगता है कि कानो में मिसरी घुलती है. आज 20 अप्रैल है. संगीत जगत के इतिहास का वो दिन, जिस […]
आशुतोष के पांडेय
लखनऊ / पटना : ‘नन्हा मुन्हा राही हूं देश का सिपाही हूं, बोलो मेरे संग’ और ‘चौदहवीं का चांद हो या आफताब हो’ . इन गीतों को आज भी सुने तो ऐसा लगता है कि कानो में मिसरी घुलती है. आज 20 अप्रैल है. संगीत जगत के इतिहास का वो दिन, जिस दिन देश ने एक मशहूर शायर और गीतकार को खो दिया था. जी हां, 20 अप्रैल 1970 को हिंदी फिल्मों के रूमानियत भरे शब्दों से सार्थक संगीत की रचना करने वाले शकील बदायूंनी का निधन हुआ था. आज उनकी पुण्यतिथि है. शाम-ए-अवध की शान और लखनवी तहजीब की मिट्टी में पले-बढ़े शकील बदायूंनी का जन्म उत्तर प्रदेश के बदायूं में 3 अगस्त 1916 को हुआ था.
जिंदगी की हकीकत को शायरी में पिरोया
शकील साहब की खासियत यहथी कि उनकी शायरी में जीवन के तत्वों को देखा जा सकता था. उसमें राग,द्वेष,विषाद और खुशी के साथ देशभक्ति का मिश्रणहोताथा, जिसे वह शब्दों में पिरोते थे. शकील बदायूंनी ने अपने कैरियर की शुरुआत बीए पास करने के बाद दिल्ली में सप्लाई विभाग में नौकरी सेकी. तब तक शायरी का कीड़ाउन्हें काट चुका था. जब वह कीड़ा कुलबुलाता, तो वह मुशायरों में मौजूद होते थे. इन्हीं मुशायरों ने शोहरत की सीढ़ियों को उनके आगेकर दिया. उन्होंने उस पर पांव रखाऔर माया नगरी मुंबई का रूख कर लिया. मुंबई के सिने जगत में उनके शायरी के सारथी बने मशहूर निर्माता कारदार साहब और संगीतकार नौशाद. यहां से उनकी कलम चल निकली और धार ऐसी कि मुंबई को रोमांस के शब्दों में पिरोने वाला नया मसीहा मिल गया.
बदायूंनी का रचना संसार
शकील बदायूंनी ने अपने फिल्मी कैरियर के दौरान लगभग 90 फिल्मों के गीत लिखे जो काफी लोकप्रिय हुए. उन्होंने सबसे ज्यादा काम नौशाद साहब के साथ किया. जिसकी झलक उनके फिल्मी कैरियर के इतिहास में देखी जा सकती है. उनकी लेखनी से जो पहली रचना निकली वह थी- ‘अफसाना दुनियां को सुना देंगे, हर दिल में मुहब्बत की आग लगा देंगे’. शकील बदायूंनी की कलम से निकले जिस एक अफसाने ने उन्हें लोकप्रियता के शीर्ष पर पहुंचाया और जिसे पुराने लोग आज भी गुनगुना लेते हैं. वह था ‘चौदहवीं का चांद हो या आफताब हो’. उसके बाद ‘ सन ऑफ इंडिया’ के लिए उन्होंने बच्चों में देशभक्ति का जोश भरने के लिए लिखा-‘नन्हा मुन्ना राही हूं देश का सिपाही हूं’. ‘मदर इंडिया’ का वह गाना, ‘दुनिया में हम आये हैं तो जीना ही पड़ेगा’ और गंगा जमुना में उन्होंने लिखा- ‘नैन लड़ जईहें तो मन वा मा कसक होइबे करी’. उनके गानों ने लोकप्रियता के उस चरम बिंदू को स्पर्श किया जो आगे चलकर जनप्रियता में बदल गये.
वह फिल्में जिसमें उन्होंने बतौर संगीतकार काम किया
शकील साहब ने कई फिल्मों में यादगार संगीत दिये जिसमें दर्द, चौदहवीं का चांद, बीस साल बाद, मेला, दुलारी, बैजू बावरा, मदर इंडिया, कोहिनूर, मुगले आजम, साहब बीबी और गुलाम और गंगा जमुना के अलावा जिंदगी और मौत जैसी फिल्मों में उनके संगीत ने खूब धमाल मचाया. उनकी रचनाओं में रोमांस के साथ उल्लास के वह शब्द होते थे जो सुनने वालों को भाते थे. ‘गंगा जमुना’ में उन्होंने उत्तर भारत की बोली को केंद्र में रखकर नैन लड़ जईहें- इसकी रचना की जो, उस वक्त लोगों की जुबान पर चढ़ गया. उनके गानों में ठिठोली एक मुख्य विषय के तौर पर उभर करसामनेआती थी. भले वह ठिठोली प्रेमी-प्रेमिका के बीच की हो या जीवन के जद्दोजहद की.
बेस्ट संगीतकार का फिल्म फेयर पुरस्कार
उन्हें लगातार तीन सालों तक बेस्ट संगीतकार के रूप में फिल्म फेयर पुरस्कारों से नवाजा गया. 1960 में उन्हें चौदहवीं का चांद, 1961 में घराना और 1962 में बीस साल बाद के लिए फिल्म फेयर पुरस्कार से नवाजा गया. गुरुदत्त और दिलीप कुमार के प्रिय थे शकील साहब. कहा जाता है कि शकील बदायूंनी की कलम के कायल थे प्रसिद्ध फिल्मकार गुरुदत्त और हिंदी फिल्मों के अभिनय सम्राट दिलीप कुमार. सिने जगत के जानकार मानते हैं कि दिलीप कुमार की सफलता में शकील साहब का खासा योगदान था. उन्होंने महबूब खान, के. आसिफ , राज खोसला के साथ नितिन बोस के अलावा गुरूदत्त जैसे फिल्मकारों की फिल्मों को गीतों से सजाया. शकील साहब के निधन के बाद उनके मित्रों ने उनकी याद में एक ट्रस्ट की स्थापना भी की थी, जो गरीब कलाकारों को आर्थिक रूप से सहायता पहुंचा सके. शकील साहब को नमन और श्रद्धांजलि.