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यूपी विधानसभा चुनाव : दलों के मिशन 2017
उत्तर प्रदेश में 2017 के शुरू में होनेवाले विधानसभा चुनाव की जीत के मायने किसी एक प्रदेश की सत्ता पर काबिज होने तक सीमित नहीं हैं. सभी प्रमुख पार्टियों को इसका बखूबी एहसास है कि यह चुनाव जहां राज्यसभा में उसकी ताकत में इजाफा करेगा, वहीं 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए भी बड़ा आधार […]
उत्तर प्रदेश में 2017 के शुरू में होनेवाले विधानसभा चुनाव की जीत के मायने किसी एक प्रदेश की सत्ता पर काबिज होने तक सीमित नहीं हैं. सभी प्रमुख पार्टियों को इसका बखूबी एहसास है कि यह चुनाव जहां राज्यसभा में उसकी ताकत में इजाफा करेगा, वहीं 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए भी बड़ा आधार तैयार करेगा. ऐसे में चुनाव भले अभी कई महीने दूर हो, लेकिन पार्टियों की तैयारियां युद्ध स्तर पर शुरू हो चुकी हैं. उत्तर प्रदेश की चुनावी जंग पर नजर डाल रहा है आज का इन दिनों.
फिर से जाति-धर्म के नाम पर ही ‘युद्ध’
कृष्ण प्रताप सिंह,वरिष्ठ पत्रकार
िप छले दिनों प्रधानमंत्री मोदी ने बलिया आकर गरीब महिलाओं को मुफ्त रसोई गैस कनेक्शन देने की ‘उज्ज्वला’ नामक महत्वाकांक्षी योजना लॉन्च की और अपनी सरकार के दो साल पूरे होने के जश्न की शुरुआत भी यूपी में ही रैली करके की. इसमें कई लोकलुभावन घोषणाओं के साथ, उन्होंने भाजपा सांसदों से कहा कि वे सरकार की उपलब्धियों को जन-जन तक पहुंचाने के अभियान में जुट जायें. उनकी इन कवायद को प्रदेश में सत्तारूढ़ सपा की उन साइकिल यात्राओं का जवाब माना गया, जो उसने अखिलेश सरकार के चार चाल पूरे होने के बाद अच्छे कामों को जनता तक ले जाने के लिए शुरू की थीं.
जब भाजपाई और सपाई जून की भीषण तपिश के बीच गांवों व गलियों की खाक छानते पसीना बहा रहे थे, तब बसपा व कांग्रेस यह कह कर उन पर बरस रही थीं कि उपलब्धियों के प्रचार में समय जाया करने से बेहतर होता कि वे सूखे और अग्निकांडों से पीड़ित प्रदेशवासियों, खासकर भूखे–प्यासे बुंदेलखंडियों की मदद करते. लेकिन, आम लोगों को इससे कुछ उम्मीद हो चली थी कि कौन जाने इस सबसे दशकों से जाति और धर्म के पचड़े में फंसे प्रदेश के उससे बाहर आने की कोई सूरत निकले और 2017 के विधानसभा चुनावों में जनता के वास्तविक मुद्दे केंद्र में रहें. कम-से-कम, वह विकास का मुद्दा, जिसका ये सरकारें दम भरती नहीं थकतीं.
लेकिन, अब प्राय: सारी पार्टियां जिस तेजी से जातीय-धार्मिक समीकरणों को साधने में व्यस्त हैं और उनके लिहाज से उपयोगी ‘चेहरे’ जुटा रही हैं, उससे लगभग तय हो चुका है कि प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री की प्रदेशवासियों की खैरख्वाही और उनके लिए खजाना खोल देने की तमाम दर्पोक्तियों के बावजूद 2017 में मुख्य रूप से जाति या धर्म के नाम पर ही ‘युद्ध’ लड़ा जायेगा और ‘विकास’ या सरकारों के प्रति एंटी-इनकंबैंसी को इस युद्ध की सहायक सामग्रियां बन कर ही संतुष्ट रहना पड़ेगा. हां, मुजफ्फरनगर दंगों के बाद से ही अपना पक्ष चुनने को लेकर असहज महसूस कर रहे अल्पसंख्यकों का इस युद्ध में क्या रुख रहेगा, यह अभी साफ नहीं है.
फिलहाल डालते हैं एक नजर पांच प्रमुख धड़ों की हालिया चुनावी तैयारियों पर –
सपा : फिर से नेताओं के जमावड़े में यकीन!
विकास के दावों के बीच अपनी सरकार के प्रति एंटी-इनकंबैंसी और मुलायम की अस्वस्थता की समस्याएं तो थीं ही, अब यह अखिलेश यादव के अपने पिता व चाचा से मतभेदों से भी त्रस्त है.
मथुरा के जवाहरबाग कांड के दौरान भी ये सार्वजनिक हुए और माफिया सरगना मुख्तार अंसारी की सपा में इंट्री रोकने को लेकर भी. वैसे पूरे सत्ताकाल में प्रशासनिक सुस्ती को छोड़ दें, तो उनके खिलाफ घपले-घोटाले का कोई आरोप नहीं है और उनकी व्यक्तिगत छवि बेदाग है, लेकिन मुजफ्फरनगर दंगों के बाद से ही बिखरा पार्टी का एमवाइ समीकरण दुरुस्त नहीं हो रहा. इससे चिंतित मुलायम, अमर सिंह व बेनी वर्मा जैसे नेताओं को घरवापस लाये हैं, जबकि पहले कहते थे कि नेताओं के नहीं, जनता के जमावड़े में यकीन करते हैं.
बसपा : सोशल इंजीनियरिंग फेल होने का डर
स्वामी प्रसाद मौर्य, आरके चौधरी और परमदेव यादव जैसे नेताओं के साथ छोड़ने से पहले प्रेक्षक आश्वस्त थे कि बसपा 2017 में सपा से सत्ता छीन लेगी. अब उनकी राय थोड़ी बदल गयी है.
लेकिन, मायावती न तो पार्टी के बिखराव से चिंतित हैं, न दलित वोटों को लेकर. लोकसभा चुनावों का पराजयबोध भी उन्हें बहुत नहीं सताता. उनकी वास्तविक चिंता उस दलित-ब्राह्मण सोशल इंजीनियरिंग के फेल हो जाने को लेकर है, जिसने 2007 में उन्हें बहुमत दिलाया था. वे जानती हैं कि जब तक दलितों के साथ कोई और जाति बसपा से न जुड़े, वह विजय नहीं पा सकती. फिलहाल न तो ब्राह्मण जुड़ रहे हैं, न मुसलमान और न पिछड़े.
भाजपा : जातीय संतुलन साधने का प्रयास
इलाहाबाद में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में विकास की गंगा व पर्व की बात करनेवाले प्रधानमंत्री ने जातीय संतुलन साधने के लिए मंत्रिमंडल विस्तार में प्रदेश से एक दलित, एक पिछड़ा व एक ब्राह्मण मंत्री बना डाले हैं, जबकि पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य भी ‘पिछड़े’ ही हैं. बेवजह बयानों से समस्याएं खड़ी करनेवाले रामशंकर कठेरिया का मंत्री पद छीनने और हिंदू आक्रामकता के लिए जाने जानेवाले योगी आदित्यनाथ को ‘निराश’ करने के बावजूद, राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने बिसाहड़ा व कैराना जैसे सांप्रदायिक मुद्दों से उम्मीदें लगा रखी हैं. विधानसभा उपचुनावों व राज्यसभा के द्विवार्षिक चुनाव में प्रतिद्वंद्वियों पर मनोवैज्ञानिक बढ़त के उनके प्रयास विफल रहे हैं, लेकिन कई लोग बसपा के बिखराव को भी उन्हीं की सफलता बताते हैं.
कांग्रेस : तैयारियां 2019 में काम आ सकती हैं
लस्तपस्त कांग्रेस अब अलग–अलग जातियों व धर्मों के चेहरे आगे कर रही है. ब्राह्मण की बहू शीला दीक्षित सीएम कैंडीडेट, अल्पसंख्यक गुलाम नबी आजाद प्रदेश प्रभारी, सिनेस्टार राजबब्बर प्रदेश अध्यक्ष, ठाकुरों के क्षत्रप संजय सिंह समन्वयक, तो ब्राह्मण प्रमोद तिवारी प्रचार प्रभारी. उम्मीद कायम है कि ‘बेटी प्रियंका’ आ जायेंगी, तो डंका बज उठेगा. लेकिन, अभी यह सब हवा–हवाई ही है. पार्टी संगठन की जमीनी हालत खराब है और उसमें समान आधारवाली भाजपा की बढ़त रोकनेे का जज्बा भी नहीं दिखता, जबकि मुख्य मुकाबले में आने के लिए यह जरूरी है. हां, 2017 की तैयारियां, 2019 में उसके काम आ सकती हैं.
अन्य : जदयू भी निर्णायक भूमिका की तैयारी में
बिहार में सत्तारूढ़ जदयू की उत्तर प्रदेश के भावी सत्ता संतुलन में ‘निर्णायक’ भूमिका निभाने की आकांक्षा भी तीव्र हो उठी है. बिहार जैसे महागंठबंधन के मंसूबे के साथ जदयू ने 12 मई को वाराणसी के पिंडरा में अपना राज्यस्तरीय सम्मेलन किया और उसके बाद से लखनऊ, बस्ती, लखीमपुर खीरी, बाराबंकी, देवरिया, मिर्जापुर आदि जिलों में कई रैलियां कर चुका है.
नीतीश कुमार इनमें ‘संघमुक्त भारत’ के बहुप्रचारित आह्वान के साथ शराबबंदी लागू न करने को लेकर अखिलेश सरकार को घेरने का प्रयास भी कर चुके हैं. कहा जा रहा है कि बसपा से बगावत कर चुके आरके चौधरी द्वारा 26 जुलाई को लखनऊ में आयोजित रैली में भी वे शामिल होंगे. लेकिन, महागंठबंधन बनाने के उनके प्रयास में फिलहाल कांग्रेस उन्हें बिहार जैसा भाव देकर साथ लेने को तैयार नहीं है. अजित सिंह के साथ भी बात नहीं बन पायी है.
ऐसे में जदयू के लिए नीतीश की छविमात्र के सहारे कोई करिश्मा करना मुमकिन नहीं लगता. नीतीश बिहार के चुनावों में मुलायम के ‘धोखे’ का सपा से निर्ममतापूर्वक बदला चुकाना चाहते हैं, पर लालू को मुलायम से रिश्तेदारी की भी फिक्र है. इस बीच बसपा से बाहर हुए स्वामी प्रसाद मौर्य और आरके चौधरी आदि के उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा के बैनर तले एकजुट होने की चर्चाएं चल रही हैं. देखना होगा कि यह एकजुटता कोई गुल खिला पाती है या नहीं.
सपा : मेट्रो पर सवार समाजवाद
अरुण कुमार त्रिपाठी : वरिष्ठ पत्रकार
बि हार के महागंठबंधन से अलग होकर मुलायम सिंह यादव की पार्टी और अखिलेश यादव की सरकार केंद्र की मोदी सरकार के कोप से जरूर बच गयी, लेकिन देश और प्रदेश में विपक्षी एकता का जो व्यापक आधार उसे मिल रहा था, उसे नष्ट कर दिया था. अब दोबारा उसके सूत्र जोड़ने में ताकत और समय लगेगा. भले ही लालू प्रसाद यूपी में सपा के खिलाफ प्रचार न करें और राष्ट्रीय लोकदल का सपा से गंठबंधन हो जाये, लेकिन कांग्रेस, जदयू और बसपा जैसी समानधर्मा पार्टियों का सहयोग पाना सपा के लिए आसान नहीं है.
पिछली बार सपा ने अखिलेश यादव की साफ-सुथरी और आधुनिक छवि को अपने जातीय और धार्मिक समीकरणों वाले पुराने इंजन के साथ जोड़ दिया था, तो इस बार उसने धर्मनिरपेक्षता और जाति के तमाम समीकरणों को मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के विकास के मेट्रो इंजन से जोड़ दिया है. अब देखना है कि अखिलेश का विकास का मेट्रो इंजन, जिसके रास्ते में कानून व्यवस्था के तमाम अवरोधक पड़े हैं, सामाजिक समीकरणों के बोझ को लेकर चुनावी जीत तक जा पायेगा या नहीं?
इसमें कोई दो राय नहीं कि अखिलेश यादव ने लखनऊ आगरा एक्सप्रेस वे, बलिया लखनऊ एक्सप्रेस वे के साथ लखनऊ में मेट्रो रेल की परियोजना लागू करने से लेकर विकास के जो कई काम किये हैं, वे उनके चुनावी एजेंडा बनेंगे. साथ ही प्रदेश की बिजली व्यवस्था को दुरुस्त करने में भी इस सरकार ने वैसा ही काम किया है, जैसा बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व में हुआ था. सपा सरकार ने समाजवादी एंबुलेंस योजना से लेकर समाजवादी पेंशन योजना तक जो कल्याणकारी काम किये हैं, वे भी अपनी भूमिका निभायेंगे.
हालांकि, अखिलेश यादव राहुल गांधी या करुणानिधि के बेटे स्टालिन की तरह नहीं हैं, लेकिन यह भी सही है कि अन्य पार्टियों की तरह ही सपा का वरिष्ठ नेतृत्व भी अखिलेश के युवा नेतृत्व के आगे अड़ंगे लगाता रहता है. इसलिए अखिलेश की लड़ाई जितनी मायावती की बसपा और मोदी की भाजपा से नहीं है, उससे कहीं ज्यादा अपनी पार्टी के भीतरी समीकरणों से है.
पार्टी की ये ताकतें अपने स्वार्थ का बोझ अखिलेश के कंधों पर रख कर पार्टी की नैया पार लगाना चाहती हैं. यही वजह है कि कभी मथुरा में पुलिस कार्रवाई के बहाने, तो कभी पूर्वांचल के मुख्तार अंसारी के कौमी एकता दल के विलय को झटक देने के माध्यम से अखिलेश यादव अपने बोझ को हल्का करते रहते हैं. बोझ को हल्का करने की यही कोशिशें पार्टी के रास्ते को सुगम बनाती हैं और पार्टी में खींचतान भी पैदा करती हैं.
सपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जमीन मजबूत करने की है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश का जाट सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के कारण जहां भाजपा की ओर खिसका है, वहीं सपा के भाजपा के प्रति नरम पड़ने के कारण अल्पसंख्यक वोट भी उससे छिटक रहा है. अल्पसंख्यक कहां जायेगा, यह कहना मुश्किल है, लेकिन सपा को छोड़ने के बाद उसकी प्राथमिकता में बसपा सबसे ऊपर और फिर कांग्रेस आयेगी.
मौजूदा समय में समाजवादी पार्टी के सामने आदर्शहीन आधुनिकता और आदर्श पर आधारित आधुनिकता के बीच एक को चुनना है. अमर सिंह जैसे नेता का आगमन पार्टी को फिर आदर्शहीन आधुनिकता की ओर धकेल रहा है, तो अखिलेश का नेतृत्व उसे आदर्शवान आधुनिकता की ओर खींच रहा है. इस बीच पार्टी में एक किस्म का आदर्शहीन सामंतवाद भी है, जो जाति के समीकरणों के माध्यम से सत्ता पाने और सत्ता का इस्तेमाल संसाधनों की लूट करने में करता है.
इन स्थितियों के बावजूद प्रदेश के नीतिकार और अर्थशास्त्री यह कहने से नहीं चूकते कि नारायण दत्त तिवारी के बाद प्रदेश को अखिलेश के रूप में पहला ऐसा मुख्यमंत्री मिला है, जो विकास के बारे में गंभीरता से सोच रहा है. दूसरी तरफ वे लोग, जो प्रदेश के गुंडों से आजिज आ गये हैं, लेकिन अखिलेश के रूप में एक दूसरे दबंग की आशा कर रहे थे, निराश हैं.
इसके बावजूद यह बात पूरा प्रदेश महसूस कर रहा है कि सपा ने अखिलेश के नेतृत्व में एक विखंडित होते प्रदेश की एकता के माॅडल को फिर से प्रासंगिक कर दिया है और समाजवाद को दौड़ने के लिए मेट्रो और तेज रफ्तार की सड़कें दी हैं.
बसपा : अब सर्वसमाज पर भरोसा
राजेंद्र कुमार : वरिष्ठ पत्रकार
मा यावती चार बार प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं. अखिलेश से पहले, सियासत में सामाजिक इंजीनियरिंग के सफल प्रयोग के जरिये उन्होंने पांच साल यूपी में राज किया है. अपने विरोधियों पर वह बेहद तीखे वार करती हैं. आंबेडकर के नाम पर सियासत करनेवाली दलित की इस बेटी को उनके विरोधी दौलत की देवी बता कर तंज कसते हैं, लेकिन इस दलित नेत्री ने अनेक दलितों और वंचितों को दोबारा पहचान दिलायी. दलित उत्थान में योगदान करनेवाले कई सामाजिक क्षत्रपों की मूर्तियां इतिहास के पन्नों से निकल कर 21वीं सदी में अपनी मौजूदगी दर्ज करा रही हैं, तो यूपी में इसकी वजह मायावती ही हैं. हालांकि बीते शासनकाल में मूर्तियों और स्मारकों के निर्माण में बड़े पैमाने पर हुए भ्रष्टाचार की वजह से ही उन्हें सत्ता गंवानी पड़ी. अब तमाम विवादों और आरोपों को दरकिनार कर मायावती पांचवीं बार प्रदेश के मुख्यमंत्री की गद्दी पर अपना दावा ठोक रही हैं.
उनकी इस मुहिम को पार्टी के दो प्रमुख नेता- स्वामी प्रसाद मौर्य और आरके चौधरी ने जोरदार झटका देते हुए पार्टी से नाता तोड़ लिया है. मायावती पर इन्होंने पैसे लेकर टिकट देने का आरोप लगाया. इन नेताओं के विद्रोही होने की वजह से बसपा का आंतरिक संकट गहरा गया है. पार्टी नेता मानते हैं कि इनके जाने से बसपा के राजनीतिक माहौल पर असर पड़ा है. खुद मायावती डैमेज कंट्रोल करने के लिए आगे आयीं और इसे विपक्षी दलों का षड्यंत्र बताया.
हालांकि, बसपा में पहली बार ऐसा संकट नहीं आया है, लेकिन इतिहास बताता है कि हर टूट के बाद बसपा कहीं ज्यादा ताकतवर होकर उभरी है. स्वामी प्रसाद मौर्य यह दावा कर रहे हैं कि वह बसपा को उखाड़ फेकेंगे. विशेषज्ञ इसे डपोरशंखी दावा मान रहे हैं. ऐसे दावों-प्रतिदावों से अलग कुछ ऐसे समीकरण जरूर हैं, जिनसे बसपा कमजोर हुई है.
2007 के पहले मायावती दलितों को यह कहा करती थीं कि वह दलितों व पिछड़ों का विकास इसलिए नहीं कर पायीं, क्योंकि उन्हें बीजेपी के सहयोग से सरकार चलानी पड़ी और यह पार्टी इन वर्गों की दुश्मन है. बहुमत मिलने पर वह इस वर्ग का कायाकल्प कर देंगी. वर्ष 2007 में बसपा की सरकार आयी, तो उसके समर्थकों ने देखा कि सत्ता के दलाल कमजोर होने के बजाय कैसे और मजबूत हुए. धन का ऐसा खेल चला कि थानों पर शिकायत करनेआये कमजोर वर्ग के लोग खदेड़ दिये जाते और पैसे के बल पर सतानेवालों की इज्जत और बढ़ गयी.
सरकारी भर्तियों में धन का खेल हुआ. गांव-गांव सफाई कर्मचारी भर्ती किये गये, मगर उसमें उस वर्ग को कम जगह मिली, जो सदियों से मैला ढोते आये थे. दलितों व अति पिछड़े वर्ग के लोगों ने स्वप्न देखा था कि जब बहनजी सत्ता में आयेंगी, तब उनके दिन बहुरेंगे. मायावती सत्ता में आयीं, तो इन लोगों ने देखा कि सत्ता के रथ और पहियों की गति हमेशा एक सी होती है, जिसके नीचे गरीब ही कुचलता है. बसपा 2012 में लोगों को नहीं बता सकी थी कि दलितों और पिछड़ों के उत्थान के लिए उसने कौन से काम किये. बसपा सरकार की नाकामी के चलते सूबे की जनता का भ्रम टूटा और 2012 में वह सत्ता से बाहर हो गयी. मौर्य और चौधरी के रहते लोकसभा चुनावों में पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली थी. इसी वजह से मायावती कह रही हैं कि इन नेताओं के जाने का पार्टी पर असर नहीं पड़ेगा.
मुख्यमंत्री बनने के लिए मायावती को भाजपा और सपा का मुकाबला करना है. मायावती ने संभावित उम्मीदवारों को विधानसभा प्रभारी बना कर बूथ स्तर तक पार्टी कार्यकर्ताओं को तैनात कर दिया है. लोगों को ये सपा और भाजपा सरकार की जनविरोधी नीतियों और बढ़ती महंगाई के बारे में बताते हुए मायावती को फिर से सत्ता में लाने की अपील कर रहे हैं. इस बार वे मूर्तियों और स्मारकों से दूर रहते हुए विकास और कानून व्यवस्था को तरजीह देने की बातें कह रही हैं.
2007 में उन्हें सत्ता में लाने में मुसलमानों व कुछ हद तक ब्राह्मणों का योगदान माना जाता है, जिसे वह दोहराना चाहती हैं. वे जानती हैं कि बीते लोकसभा चुनावों में मुसलिम और ब्राह्मण वोटबैंक के पार्टी से दूर होने के चलते ही बसपा को एक भी सीट हासिल नहीं हुई. अब वह सर्वसमाज के नारे को हवा दे रही हैं. सपा शासनकाल में दलितों के साथ भेदभाव और प्रमोशन में आरक्षण को समाप्त करना बसपा के लिए बड़ा मुद्दा होगा. हालांकि, प्रदेश के तमाम राजनीतिक क्षत्रपों की असली परीक्षा इनके जातीय आधार की जमीनी सच्चाई की कसौटी पर ही होगी.
भाजपा : बड़े कार्यक्रम, बड़े दावं
अनुपम त्रिवेदी : राजनीतिक विश्लेषक
अटलजी का कथन, कि दिल्ली का रास्ता लखनऊ होकर जाता है, पिछले लोकसभा चुनावों में सही साबित हो चुका है. केंद्र की सत्ता पर काबिज भाजपा यह अच्छी तरह जानती है कि न केवल लोकसभा बल्कि राज्यसभा में बहुमत, 2017 के राष्ट्रपति चुनाव और 2019 में केंद्र में दोबारा जीत का रास्ता भी कमोबेश लखनऊ से ही होकर जाता है.
इसलिए आनेवाले विधानसभा चुनावों के लिए पार्टी ने कमर कस ली है. इसकी एक बानगी मोदी सरकार के दो वर्ष पूरे होने पर दिखी, जब एक-दो नहीं, पूरे 45 मंत्रियों ने उत्तरप्रदेश में विकास-पर्व कार्यक्रम में शिरकत की और सरकार की उपलब्धियों का बढ़-चढ़ कर प्रचार किया.
भले ही भाजपा ने 2014 के लोकसभा चुनावों में रिकार्ड तोड़ 73 सीटें जीती हो, पर पार्टी यह जानती है कि विधानसभा में वह चमत्कार दिखाना संभव नहीं है. पिछले 20 वर्षों में यूपी विधानसभा में भाजपा की ताकत लगातार कम ही हुई है. 1996 की 174 सीटों से 2012 में पार्टी मात्र 47 सीटों पर सिमट गयी थी. इसलिए इस बार के विधानसभा चुनाव में लोकसभा चुनाव का फार्मूला अपनाया जा रहा है. पार्टी ने घोषणा की है कि वह चुनाव विकास के मुद्दे पर लड़ेगी. यह सही भी है, क्योंकि पार्टी के पास दिखाने के लिए बहुत कुछ है.
जिस तरह दुनियाभर के मुश्किल हालात में भी भारतीय अर्थव्यवस्था आगे बढ़ रही है, भाजपा इसे प्रचारित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ेगी. केंद्र सरकार के दो वर्ष पूरे होने पर 26 मई को प्रधानमंत्री मोदी की सहारनपुर में हुई सभा से यह जाहिर हो गया है.
सरकार की कई महत्वपूर्ण योजनाओं का आगाज भी उत्तरप्रदेश से ही हो रहा है. इनमें प्रमुख हैं- बलिया से प्रारंभ की गयी प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना. वाराणसी में गंगा में जल-परिवहन की शुरुआत व नमामि-गंगे योजना, गोरखपुर में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान की स्थापना और बरसों से बंद पड़े उर्वरक कारखानों को चालू करने की योजना आदि. प्रधानमंत्री के चुनाव क्षेत्र वाराणसी और उनके गोद लिये गांव जयापुर का भी पूरा ध्यान रखा जा रहा है, जिससे यह दिखाया जाये कि अगर भाजपा जीती तो प्रदेश के लिए कितना कुछ करेगी.
विकास को आगे रखने के साथ-साथ पार्टी जातिगत समीकरणों का प्रबंध भी बखूबी कर रही है. ब्राह्मण लक्ष्मीकांत बाजपेयी को हटा कर केशव प्रसाद मौर्य को लाना, बड़ी संख्या में पिछड़ी जाति के जिला अध्यक्षों की नियुक्ति, अपना-दल और सुहेलदेव समाज पार्टी के साथ गंठबंधन इस ओर इशारा है कि कभी अगड़ों की पार्टी मानी जानेवाली भाजपा अब सर्वसमाज की पसंद बनना चाहती है. पार्टी दलितों को अपने नजदीक लाने के लिए बड़े कार्यक्रम कर रही है. लखनऊ के दलित कन्वेंशन के बाद वाराणसी में जन-स्वाभिमान रैली और मऊ में अति-दलित पिछड़ा महापंचायत कार्यक्रम हो चुके हैं. चुनाव तक ऐसे अनेक कार्यक्रम प्रदेशभर में होंगे. साथ ही चार बड़ी यात्राएं निकालने की भी योजना है.
पार्टी धार्मिक ध्रुवीकरण से बच रही है, इसलिए संवेदनशील राम-मंदिर की चर्चा नहीं हो रही है. पर कैराना कि गूंज गाहे-बगाहे सुनाई दे जाती है. वहीं संघ भी पूरी ताकत से मैदान में आ गया है.
बूथ-प्रबंधन के लिए बड़ा अभियान छेड़ा गया है. बूथ-प्रभारियों की क्षेत्रवार बैठकें बड़े जोर-शोर से हो रही हैं. अभियान को महत्व देने के लिए कई बूथ-सम्मलेन पार्टी अध्यक्ष के साथ कराये जा रहे हैं. जिताऊ प्रत्याशियों का आकलन भी जोर-शोर से हो रहा है. हालांकि, इतना सब होते हुए भी पार्टी को एहसास है कि राह आसान नहीं है. अन्य दलों की सियासी चालें पार्टी को उलझा रही हैं. लेिकन भाजपा के रणनीतिकारों को भरोसा है कि वे हर दावं की काट लायेंगे और असम के नतीजों को दोहरायेंगे.
नवीन जोशी : वरिष्ठ पत्रकार
उ त्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के लिए कांग्रेस की अब तक की तैयारियों ने यह साफ कर दिया है कि पार्टी में अपने राजनीतिक अस्तित्व के बारे में गहन मंथन चल रहा है और इस लड़ाई को वह बहुत गंभीरता से ले रही है. उसके दो ताजा फैसले रणनीतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण हैं. लगातार तीन बार दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं और खुद को यूपी की बहू कहनेवाली शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री का प्रत्याशी पेश करना और राज बब्बर को प्रदेश कांग्रेस की कमान सौंपना कांग्रेस के नये चुनावी कौशल का परिचय देते हैं.
शीला दीक्षित को विकास के जरिये दिल्ली का नया चेहरा बनाने का श्रेय जाता है, तो राज बब्बर जातीय और गुटीय छवि से परे पूरे प्रदेश में बेहतर पहचान वाला चेहरा हैं. राज बब्बर के साथ चार नये उपाध्यक्ष बनाये गये हैं, जिनके चयन का आधार निश्चय ही जातीय-धार्मिक समीकरण हैं. कांग्रेस कार्यकर्ताओं में इन फैसलों से उत्साह जागा है और विपक्षी दलों में भी यह स्वीकार करनेवालों की कमी नहीं है कि कांग्रेस ने मैदान में ताल ठोक दी है.
इससे पहले राहुल गांधी ने प्रशांत किशोर को पार्टी की चुनावी रणनीति बनाने का जिम्मा सौंप कर भी हलचल मचायी. प्रशांत किशोर का दावा है कि कांग्रेस ऐसा चुनाव प्रचार करेगी, जैसा पिछले 25 वर्षों में किसी ने देखा नहीं होगा. पहले नरेंद्र मोदी और फिर नीतीश कुमार के चुनावी प्रचार से प्रख्यात हुए प्रशांत ने पिछले तीन-चार महीनों में कांग्रेस संगठन की ढीली चूलें कसने की कोशिश की है. बूथ स्तर तक कार्यकर्ताओं की टीम बनाने और उन्हें सक्रिय करने के उनके प्रयासों ने बहुत नाराजगियां पैदा कीं, तो शांत पड़े तालाब में लहरें भी उठायी हैं. प्रशांत ने प्रियंका गांधी को भी पूरे प्रदेश में सक्रिय करने के संकेत दिये, तो कुछ और लहरें उठीं. सभी मानते हैं कि राहुल गांधी की तुलना में प्रियंका की जन-अपील कहीं ज्यादा है.
अब शीला दीक्षित ने भी कह दिया है कि उनकी हार्दिक इच्छा है कि प्रियंका पूरे प्रदेश में चुनाव प्रचार करें. तारीख घोषित नहीं है, लेकिन पिछले पखवाड़े से बूथ स्तर तक कार्यकर्ताओं को संदेश भेजे गये हैं कि जुलाई अंत तक प्रदेश में एक बड़ी रैली की जायेगी, जिसमें राहुल के साथ प्रियंका भी मुख्य वक्ता होंगी. संदेश में इस रैली के लिए भारी भीड़ जुटाने के लिए तैयार रहने को कहा जा रहा है.
कांग्रेस की नजर ब्राह्मण वोटों पर है, तो अन्य जातीय समूहों पर भी वह पूरा ध्यान दे रही है. लगता है कि 27 वर्षों से प्रदेश की सत्ता से बाहर कांग्रेस ने इसे ‘करो या मरो’ वाला मैदान मान लिया है. हालांकि, सत्ता हासिल करना अभी दूर की कौड़ी है, अगर 2017 में वह भाजपा को यूपी की सत्ता पाने से रोकने में सहायक हो सकी, तो भी उसके लिए बड़ी उपलब्धि होगी. इसीलिए वह कुछ फुटकर दलों और बसपा के बागी नेताओं से गंठजोड़ की संभावना भी तलाश रही है. नीतीश कुमार के उत्तर प्रदेश दौरों ने बिहार जैसे महागंठबंधन की चर्चा छेड़ी है, लेकिन कांग्रेस यहां प्रमुख दल के रूप में ही मैदान में रहना चाहेगी. आखिर सवाल उसके अस्तित्व का है.
जदयू : रणनीति कार्यकर्ता सम्मेलन के बाद
केसी त्यागी : राष्ट्रीय महासचिव सह प्रवक्ता, जदयू
भा जपा के नकारात्मक रवैये से देश काे बाहर निकालने में जदयू अपनी जिम्मेवारी को अच्छी तरह से समझती है. यूपी में लोकसभा चुनावों में भाजपा को 70 से ज्यादा सीटें मिली हैं. 250 विधानसभा सीटों पर वह पहले नंबर पर रही थी. दो साल बाद ही यूपी की जनता सहित देशभर के लोगों का मोह भी मोदी सरकार से भंग हो गया है. भाजपा के एजेंडा से सभी लोग भली-भांति परिचित हैं. इसलिए आगामी चुनाव में यूपी की जनता भाजपा के झांसे में आने वाली नहीं है.
यूपी में जदयू पूरे दम-खम के साथ मैदान में उतरेगा. फिलहाल जदयू अकेले चुनाव लड़ने के पक्ष में है. पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को यूपी में कार्यक्रमों के लिए आमंत्रित किया जा रहा है. विविध महिला संगठनों समेत कई अन्य संगठनों ने नीतीश कुमार को यूपी में साथ देने का आग्रह किया है.
इनके कार्यक्रमों में जुट रही भीड़ को देख कर सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि जदयू की हालत यूपी में कैसी है. इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने यूपी चुनाव में जदयू को वोटकटवा पार्टी होने की बात कही है. अमित शाह के बयान से जाहिर होता है कि भाजपा को जदयू से भय है. बिहार चुनाव के बाद से यह भय और बढ़ गया है.
नीतीश कुमार की स्वीकार्यता जिस तरह से देश में बढ़ी है, उसके सकारात्मक संकेत दिख रहे हैं. बिहार में हुए विकास कार्यों की चर्चा यूपी में हो रही है. दूसरी ओर भाजपा की नकारात्मक छवि और उसके द्वारा किये जा रहे कार्यों से लोगों में निराशा है. दिसंबर तक जदयू यहां राज्यभर में कार्यकर्ता सम्मेलन करेगा. कार्यकर्ताओं से व्यापक बातचीत के बाद ही वह आगे की रणनीति पर फैसला करेगा. इसी के तहत गाजीपुर में नीतीश कुमार की पहली जनसभा हुई थी, जिसमें 50 हजार से ज्यादा लोगों की भीड़ जुटी थी.
हालांकि, यह एक सामाजिक कार्यक्रम था, लेकिन जितनी भीड़ जुटी, उसे देख यह अंदाजा लगाया जा सकता था कि लोग किसे सुनने के लिए आये थे. उसके बाद वाराणसी के पिंडरा, लखनऊ, मिर्जापुर आदि में सभाएं की गयीं और यह आगे भी जारी रहेगी. प्रदेश की महिलाओं ने नीतीश कुमार में अपना विश्वास व्यक्त करते हुए शराबबंदी की मांग की है. नीतीश कुमार ने साफ तौर पर कहा है कि शराबबंदी को लेकर देश में जहां भी उनके सहयोग की जरूरत होगी, वहां वह जायेंगे और मुहिम चलायेंगे. दूसरे दलों से जो लोग जदयू में आ रहे हैं, उनका पार्टी स्वागत करती है.
बसपा के पूर्व नेता आरके चौधरी 26 जुलाई को एक कार्यक्रम कर रहे हैं, जिसमें शामिल होने के लिए उन्होंने नीतीश कुमार को आमंत्रित किया है. बिहार से भाजपा बेदखल हो ही चुकी है, अब यूपी की बारी है. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के परिणाम ही आगामी लोकसभा चुनाव के नतीजे निर्धारित करेंगे.
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