आशुतोष के पांडेय
लखनऊ : उत्तर प्रदेश में विधान सभा चुनाव होने हैं. तमाम पार्टियों की अपनी-अपनी रणनीति तैयार है. उत्तर प्रदेश की सियासत भी जातीय समीकरणों के इर्द-गिर्द हमेशा से घूमती रही है. आगामी चुनाव में भी जातीय समीकरणों का पार्टियों के साथ मेल बहुत मायने रखेगा. राजनीतिक पार्टियों के हालिया चुनावी कवायद को देखें तो यूपी में बीजेपी के मुकाबले सपा ने सत्ता में रहते हुए अभी से जातीय रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया है. राजनीतिक जानकार ऐसा मानते हैं कि यूपी में नेताओं का कद भी उनकी जाति में हैसियत के हिसाब से तय होता रहा है. आप यूपी के किसी भी बड़े चेहरे को देख लीजिए. चाहे वह मुलायम सिंह यादव हों या मायावती या फिर बीजेपी के हालिया चुने गये प्रदेश अध्यक्ष. यह सभी नेता अपनी जाति के बड़े नेता हैं. स्वभाविक है इनकी नजरें चुनाव में अपनी जातियों पर टिकी रहती हैं.
जनाधार और जातीय समीकरण
यूपी के वर्तमान सियासी माहौल की बात करें तो सर्वजन की बात को मंच से हमेशा दुहराने वाली मायावती पार्टी के अंदरखाने विरोध झेल रही हैं. पार्टी के अंदर अस्तुष्टों की लंबी कतार है. मायावती इन असंतुष्टों से परेशान नहीं हैं. अब उन्हें एक बार फिर अपने दलित वोट बैंक की चिंता सता रही है. इस वोट बैंक को अपने पाले में करने की शुरूआत मायावती ने राज्यसभा में नामांकन के दौरान कर दिया था. इस बार विधानसभा चुनाव में मायावती एक बार फिर दलित सियासत की मुख्य धारा में अपने आपको पूरी तरह झोंक देने की जुगत में हैं. मायावती 2017 के विधानसभा चुनाव को लेकर अभी से अपना वोट बैंक मजबूत करने में जुटी हैं. मायावती को मालूम है कि सपा की नजर अतिपिछड़ों पर हैं. हालांकि उन्हें विश्वास है कि अतिपिछड़े उनसे छिटकेंगे नहीं.
जातीय जनाधार वाले नेताओं को अपने पाले में करने की कोशिश
उत्तर प्रदेश का सियासी गणित हमेशा जाति के पगडंडी से गुजरकर वोट बैंक में तब्दील हुआ है. यह बात सभी पार्टियों को मालूम है. सत्ता में बैठी सपा अभी से जातीय जनाधार वाले नेताओं को अपनी पार्टी में लाने की कवायद में जुट गयी है. राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि मुलायम सिंह यादव ने फरमान जारी कर दिया है कि अखिलेश यादव हो या मंत्री शिवपाल यादव इन्हें व्यक्तिगत रूप से ऐसे नेताओं को अपने पाले में करना होगा. जानकारी के मुताबिक इस मसले को लेकर सांसद प्रो. राम गोपाल यादव व प्रदेश सरकार में मंत्री शिवपाल यादव के साथ इस मुद्दे पर दो चरणों में बातचीत हो चुकी है. अनुमान है कि सपा अतिपिछड़े नेताओं को बड़ी जिम्मेदारी देकर उनकी नाराजगी दूर करने की फिराक में हैं. सपा की यह कवायद मायावती के दलित सियासत में सेंध की तरह काम करेगी.
सभी पार्टियोंलगी हैं पिछड़ों को मनाने में
समाजवादी पार्टी में पहले से ही प्रभावी अतिपिछड़े नेताओं का अभाव रहा है. भाजपा ने इस मायने में बाजी मार ली और लोकसभा चुनाव में 15 अत्यंत पिछड़े उम्मीदवारों को टिकट देकर संसद पहुंचा दिया. अमित शाह की रणनीति में लोकसभा चुनाव के वक्त भी आगामी विधानसभा की तस्वीर दिख रही थी. उन्हें पता था कि सपा और बसपा दलित वोट बैंक को अपनी ओर करने के लिये खींचतान जारी रखेंगे. बीजेपी के पास अतिपिछड़ों के कई सामाजिक न्याय मोरचा और मछुआरा प्रकोष्ठ जैसे संगठन हैं. राजनीतिक पंडित भी कहते हैं जातीय समीकरणों की राजनीति में सपा अभी पीछे है. बीजेपी ने हद तक सदस्यता अभियान में भी दलितों को ज्यादात्तर जोड़कर उन्हें अपने पाले में करने की कोशिश में लगी है. बीजेपी की दलित वोटों पर नजर लोकसभा चुनाव के समय से ही है. फिलहाल यूपी सरकार के कैबिनेट में लोधी, कुशवाहा, मौर्य, शाक्य, निषाद, पाल, बघेल समाज का प्रतिनिधित्व शून्य है. देखना दिलचस्प होगा कि सपा की कवायद उसे अतिपिछड़ों के करीब लाती है या मामला सियासती सिफर से होकर गुजरता है.
2012 विधानसभा के नतीजे
उत्तर प्रदेश में 2012 में जब विधानसभा चुनाव हुए थे तो समाजवादी पार्टी को 29.13 फीसदी और बसपा को 25.91 फीसदी मत मिले थे. उसके पीछे जायें तो 2007 विधानसभा चुनाव में बसपा को 29.5, समाजवादी पार्टी को 25.5 फीसदी मत मिले थे. बीजेपी को इन दोंनों चुनावों में 17 फीसदी के आसपास मत मिले थे. हालांकि लोकसभा चुनाव में पासा पलट गया और बीजेपी को 42.3 फीसदी और बसपा को 19.5 फीसदी और सपा को 22.6 फीसदी मत प्राप्त हुए थे. वोटों के यह प्रतिशत साफ जाहिर करते हैं कि जिस पार्टी का आधार दलित वोट बैंक पर होगा, उसे लाभ जरूर होगा. इस वोट बैंक के लिये सभी पार्टियां कोशिशों में जुट गयी हैं. सपा अपने वोट बैंक के प्रतिशत को इन्हीं अतिपिछड़ों के जरिये बढ़ाने के प्रयास में लगी है. लेकिन इतना तय है कि यूपी की सियासत का सिरमौर वहीं बनेगा जिसके पास जातीय समीकरणों को अपने पाले में करने की पूरी कुव्वत होगी.