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आजमगढ़: सलामत नहीं सपा का गढ़, आपसी कलह चुनाव में बन सकता है खतरा

आजमगढ़ से कृष्ण प्रताप सिंह इतिहासप्रसिद्ध इसलामी विद्वान अल्लामा शिबली नोमानी की शानदार राष्ट्रवादी विरासत पर गर्व करते आ रहे आजमगढ़ जिले की अहमियत सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के लिए कितनी है, इसे समझने के लिए थोड़ा पीछे जाना होगा. गल लोकसभा चुनाव में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने अपनी दूरगामी रणनीति […]

आजमगढ़ से कृष्ण प्रताप सिंह

इतिहासप्रसिद्ध इसलामी विद्वान अल्लामा शिबली नोमानी की शानदार राष्ट्रवादी विरासत पर गर्व करते आ रहे आजमगढ़ जिले की अहमियत सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के लिए कितनी है, इसे समझने के लिए थोड़ा पीछे जाना होगा. गल लोकसभा चुनाव में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने अपनी दूरगामी रणनीति के तहत गुजरात की वड़ोदरा के साथ इस प्रदेश की वाराणसी लोकसभा सीट से भी चुनाव लड़ने का फैसला किया तो सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ‘उनकी बढ़त रोकने के लिए’ उन्हीं की राह पर चल कर अपनी परंपरागत मैनपुरी लोकसभा सीट के साथ आजमगढ़ से भी चुनावी अखाड़े में कूद पड़े.

यह और बात है कि तब ‘हर हर मोदी, घर घर मोदी’ के खुमार में खोये मतदाताओं ने उनकी पार्टी के प्रत्याशियों को पूर्वी उत्तर प्रदेश की किसी भी सीट पर जीत का मुंह नहीं देखने दिया. आजमगढ़ में वे किसी तरह खुद जीत की मंजिल तक पहुंचे भी तो ऐसे कि उसमें कोई चमक नहीं रह गयी. बाद में डांवाडोल आत्मविश्वास ने उन्हें अपना ही यह एलान भूल जाने पर विवश कर दिया कि दो सीटों से चुने जाने पर वे वही सीट अपने पास रखेंगे, जिस पर उनकी जीत का अंतर ज्यादा होगा. आजमगढ़ से कम अंतर से जीतने के बावजूद उन्होंने मैनपुरी छोड़ इसी का सांसद बने रहने का फैसला किया, क्योंकि उनके सलाहकारों की राय थी कि उनके इस्तीफे के बाद उपचुनाव में किसी और प्रत्याशी के लिए मोदी लहर को मात देकर सीट पर पार्टी का कब्जा बरकरार रख पाना संभव नहीं होगा.

गौरतलब है कि सलाहकारों की यह राय इस तथ्य के बावजूद थी कि 2012 के विधानसभा चुनाव में सपा ने मुबारकपुर विधानसभा सीट छोड़, जहां से बसपा जीती थी, आजमगढ़ जिले की दस में से नौ सीटें अपनी झोली में डाल ली थीं और भाजपा का खाता नहीं खुलने दिया था. निजामबाद, फूलपुर, मवई, दीदारगंज, लालगंज, गोपालपुर, सगड़ी, मेहनगर और आजमगढ़ विधानसभा सीटों पर उसी का कब्जा है. लेकिन, उसके दुर्भाग्य से चाचा शिवपाल व भतीजे अखिलेश के बीच वर्चस्व की जंग के बाद जिले में उसके लिहाज से हालात और खराब हो गये हैं, जिसका असर जमीनी स्तर तक दिख रहा है.

पिछले कई चुनावों से परम्परा-सी रही है कि सपा अपने चुनाव अभियानों व रैलियों आदि की शुरुआत आजमगढ़ से ही करती रही है. लेकिन इस बार जैसे ही उसने छह अक्तूबर को आजमगढ़ में रैली करने की घोषणा की, मुलायम परिवार के झगड़े ने उसके सारे किये पर ऐसा पानी फेरा कि रैली स्थगित करने में ही भलाई दिखी. ‘बेचारे’ मुलायम करते भी क्या, इस रैली से पहले सपा के चारो युवा प्रकोष्ठों के अध्यक्षों ने बगावत पर उतारू होकर शिवपाल को प्रदेश अध्यक्ष बनाने के उनके फैसले के खिलाफ इस्तीफा दे दिया था और सपा कार्यकर्ता उनके दिल में बसने वाले अमर सिंह के गृह जनपद में ही उनके पुतले जलाने लगे.

इस बीच उसके लिए एक और नुकसानदेह विवाद भड़का हुआ है कि मुलायम ने आजमगढ़ के सांसद के तौर पर सांसद आदर्श ग्राम योजना के तहत जिस गांव को गोद लिया है, उसमें अस्सी प्रतिशत यादव परिवार हैं और एक भी मुसलिम नहीं है. यह तब है जब सपा गैर मुसलिम गांवों को गोद लेने के लिए भाजपा सांसदों की जम कर आलोचना करती रही है. जाहिर है कि इसे लेकर विपक्षी दल मुलायम के दोहरे चरित्र पर सवाल उठा रहे हैं.

गौरतलब है कि बाहुबली मुख्तार अंसारी के कौमी एकता दल के सपा में विलय के प्रकरण में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने जिन बलराम यादव को अपनी कैबिनेट से निकाल दिया था, वे भी इसी जिले के हैं और कैबिनेट में वापसी के बावजूद असहज महसूस कर रहे हैं. प्रतिद्वंद्वी दलों में बसपा प्रमुख मायावती व भाजपाध्यक्ष अमित शाह जिले में बड़ी-बड़ी रैलियां कर चुके हैं. उनके कार्यकर्ता नोटबंदी, विकास व भ्रष्टाचार आदि के मुद्दों पर मतदाताओं से संपर्क में जुट गये हैं. पर सपा में अभी भी असमंजस व गुटबाजी का माहौल है, जो उस पर पर भारी पड़ सकता है.

जिले की विधानसभा सीटों में सगड़ी पूर्वी विधानसभा सीट के साथ एक रोचक तथ्य जुड़ा हुआ है, जहां 1952 में पहले आम चुनाव में तेरह उम्मीदवारों के बीच मतों के व्यापक बिखराव के कारण जीतने वाले उम्मीदवार की भी जमानत जब्त हो गयी थी. उस चुनाव में विधानसभा क्षेत्र के कुल 83,378 मतदाताओं में से 32,378 ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया था और कांग्रेस के प्रत्याशी बलदेव उर्फ सत्यानंद ने 4969 मत पाकर अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी निर्दलीय शंभूनारायण को 621 मतों से हराया था. बलदेव चुनाव तो जीत गये थे, लेकिन चूंकि उन्हें कुल हुए मतदान का 15.35 प्रतिशत ही प्राप्त हुआ था, इसलिए उनकी जमानत जब्त होने से नहीं बच पायी थी.

दरअसल, इस चुनाव में पहली बार जनप्रतिनिधित्व कानून की सबसे बड़ी विसंगति सामने आयी थी. कानून के अनुसार, जमानत बचाने के लिए कुल वैध मतों का छठा भाग प्राप्त करना जरूरी है, जबकि चुनाव जीतने के लिए अपने प्रतिस्पर्धियों से ज्यादा मत पाना ही पर्याप्त है. वह छठे भाग तो क्या किसी भी भाग से कम हो सकता है.

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