!!अनिल जैन, वरिष्ठ पत्रकार!!
‘अगर गांव में कब्रिस्तान बनता है, तो श्मशान भी बनना चाहिए.’ ‘अगर ईद पर बिजली मिलती है, तो दीवाली पर भी मिलनी चाहिए.’ ‘आपको अगर सरकारी नौकरी पाना है, तो किसी यादव के घर में जन्म लेना होगा.’ इस तरह के चुनावी सुभाषित किसी गली-मोहल्ले या जिला स्तर के नेता के नहीं, बल्कि सवा सौ करोड़ की आबादी वाले देश के सर्वोच्च नेता यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के श्रीमुख से उत्तर प्रदेश की विभिन्न चुनावी सभाओं में निकले हैं. जब प्रधानमंत्री के पद से इस तरह की भाषा का इस्तेमाल हो, तो उनके अपने ही सहयोगी और विरोधी दलों के नेता भी इसी तरह के छिछले कटाक्षों और आरोपों का इस्तेमाल करने से कैसे बच सकते हैं. सो, कोई किसी गंठबंधन की तुलना कसाब आतंकवादी से कर रहा है, तो कोई किसी को सीधे-सीधे आतंकवादी और हत्यारा बता रहा है और कोई ‘गुजराती गधों’ के हवाले से तंज कस रहा है. किसी भी चुनाव में राजनीतिक दलों और उनके नेताओं के बीच परस्पर आरोप-प्रत्यारोप और कटाक्ष किया जाना कोई नयी बात नहीं है, लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान जिस तरह के छिछले कटाक्ष और निम्न स्तरीय भाषा का इस्तेमाल हमारे नेताओं द्वारा एक-दूसरे के खिलाफ किया जा रहा है, यह हमारे लोकतंत्र के लिए एक चिंताजनक अनुभव है.
कर्कशतम होता चुनाव प्रचार
इस समय तीन राज्यों में विधानसभा के लिए वोट डाले जा चुके हैं, जबकि उत्तर प्रदेश और मणिपुर में चुनाव प्रक्रिया जारी है. उत्तर प्रदेश में सात चरणों वाला चुनाव जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा है, वैसे-वैसे वह विद्रूप और कर्कशतम होता जा रहा है. नेताओं की राजनीतिक शराफत और भाषाई शालीनता अपने पतन के नित नये कीर्तिमान रच रही है.
नाक का सवाल बना यूपी चुनाव
नरेंद्र मोदी पहले ऐसे प्रधानमंत्री नहीं हैं, जो अपनी पार्टी के पक्ष में चुनाव प्रचार कर रहे हैं. उनसे पहले जवाहरलाल नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक सबने चुनाव प्रचार किये हैं. इन सभी प्रधानमंत्रियों का कामकाज और अंदाज-ए-हुकूमत चाहे जैसा रहा हो, लेकिन किसी ने भी चुनाव के दौरान अपने विरोधियों पर कभी छिछले कटाक्ष नहीं किये. आरोप भी लगाये, तो शालीनता और अपने पद की मर्यादा के दायरे में. लेकिन, मोदी के चुनाव प्रचार का अंदाज अपने सभी पूर्ववतीã प्रधानमंत्रियों से बिल्कुल निराला है. दरअसल, मोदी के लिए उत्तर प्रदेश का चुनाव बेहद अहम है. बिहार और दिल्ली में मिली अपमानजनक हार के बाद उनके लिए यह चुनाव नाक का सवाल बना हुआ है, जिसमें अपनी पार्टी की नैया पार लगाने का जिम्मा उन्होंने ही ले रखा है. नोटबंदी का उनका समूचा प्रयोगवाद दांव पर लगा हुआ है. ऐसे में प्रधानमंत्री चुनावी रैलियों में अपने जिस ताली ठोंक आक्रामक तेवर के साथ विपक्ष पर बरस रहे हैं, वह हैरान करनेवाला है.
तुष्टीकरण की राजनीति
मतदाताओं को जातीय और सांप्रदायिक स्तर पर उद्वेलित और गोलबंद करने का काम वैसे तो हर चुनाव में होता रहा है, लेकिन इस बार यह खेल बिल्कुल खुलेआम और खतरनाक रूप में खेला जा रहा है. हैरत की बात यह है कि इस खेल में जहां प्रधानमंत्री अपनी पार्टी के सुपर स्टार प्रचारक के तौर पर अपनी प्रतिभा का भरपूर प्रदर्शन करते हुए खुलेआम सांप्रदायिक और जातीय विभाजन पैदा करनेवाले भाषण दे रहे हैं, वहीं कथित तौर पर जातिवाद और तुष्टीकरण की राजनीति करनेवाली उनकी विरोधी पार्टियों के नेता जाहिर तौर पर जातिगत या सांप्रदायिक अपील करने से बचते दिख दे रहे हैं.
भाषा के पतन का श्रेय
चुनावी मैदान में भाषा के पतन का ‘श्रेय’ अकेले मोदी को भी नहीं दिया जा सकता. उनसे भी पहले कई नेता हो चुके हैं और विभिन्न दलों में अभी भी हैं, जो राजनीतिक विमर्श या संवाद का स्तर गिराने में अपना ‘योगदान’ दे चुके हैं. ऐसा नहीं कि यह काम उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के बाद शुरू किया हो, गुजरात में अपने मुख्यमंत्रित्व काल के दौरान भी काॅरपोरेटी क्रूरता और सांप्रदायिक कट्टरता के नायाब रसायन से तैयार अपने राजनीतिक शब्दकोष का इस्तेमाल वे अपने राजनीतिक विरोधियों के लिए बडे मुग्ध भाव से करते रहे हैं. अपनी इसी राजनीतिक शैली और बड़े पूंजी घरानों के सहारे वे 2013 आते-आते भाजपा के पोस्टर ब्वॉय और प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार भी बन गये, लेकिन उनकी भाषा और लहजे में गिरावट का सिलसिला तब भी नहीं थमा. शिमला की एक चुनावी रैली में कांग्रेस नेता शशि थरूर की पत्नी के लिए उनके मुंह से निकली ‘पचास करोड़ की गर्ल फ्रेंड’ जैसी भद्दी उक्ति को कौन भूल सकता है!
मोदी के भाषिक विचलन में तेजी
उनके प्रधानमंत्री बन जाने के बाद लोगों को उम्मीद थी कि अब शायद उनके राजनीतिक विमर्श की भाषा में कुछ संतुलन आ जायेगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, बल्कि उनके भाषिक विचलन में और तेजी आ गयी. दिल्ली विधानसभा के चुनाव में उन्होंने अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को नक्सलियों की जमात, केजरीवाल को पाकिस्तान का एजेंट, एके 47 और उपद्रवी गोत्र का बताया. बिहार के चुनाव में तो उन्होंने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के डीएनए में भी गड़बड़ी ढूंढ ली. उनके इस बयान को नीतीश कुमार ने तो बेहद शालीन अंदाज में बिहारी अस्मिता से जोड़ कर मोदी को बचाव की मुद्रा में ला दिया था, लेकिन अरविंद केजरीवाल ने बेमुरव्वत जवाब देते हुए प्रधानमंत्री को मनोरोगी ही करार दे दिया था. मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले कभी देखने-सुनने और पढ़ने में नहीं आया कि किसी प्रधानमंत्री ने किसी चुनाव में अपनी जाति का उल्लेख करते हुए किसी जाति विशेष से वोट मांगा हो, लेकिन मोदी ने बिहार के चुनाव में यह ‘महान’ काम भी बिना संकोच किया. इस समय उत्तर प्रदेश की चुनावी सभाओं में तो वे मथुरा (उत्तर प्रदेश) से द्वारिका (गुजरात) का रिश्ता बताते हुए एक जाति विशेष को आकर्षित करने के लिए खुद को कृष्ण का कलियुगी अवतार बताने से भी नहीं चूक रहे हैं.
यह प्रधानमंत्री की भाषा नहीं
उत्तर प्रदेश के चुनाव में मोदी का हर भाषण राजनीतिक विमर्श के पतन का नया कीर्तिमान रच रहा है. उनके हास्यास्पद बयान की एक और बानगी देखिये. उत्तर प्रदेश में हेलीकाॅप्टर से इस शहर से उस शहर में उतर रहे अब तक के सबसे खर्चीले भारतीय प्रधानमंत्री मोदी ने एक चुनावी सभा में कहा कि लखनऊ में एक परिवार के पास दर्जनों कारें हैं, लेकिन मेरे पास एक कार भी नहीं है. अखिलेश के गधों वाले बयान पर भी उन्होंने इसी तरह अपने पद की गरिमा को परे रखते हुए जवाब दिया कि ‘हां, मैं तो गधे से प्रेरणा लेता हूं और गधे की तरह मेहनत करता हूं.’ मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि चापलूस मंत्रियों, पार्टी नेताओं, भांड मीडिया और फेसबुकिया भक्तों के समूह के अलावा कोई नहीं कह सकता कि यह देश के प्रधानमंत्री की भाषा है.
संकीर्ण आग्रह बरकरार
जहां तक अखिलेश यादव, राहुल गांधी और मायावती की बात है, इनमें से किसी का भी राजनीतिक आचरण और प्रशासनिक तौर-तरीके आलोचना से परे नहीं हैं और उन पर कई सवाल खडे करते हैं, लेकिन इन तीनों ने ही प्रधानमंत्री की ओर से अपने पर हो रहे व्यक्तिगत हमलों का उन्हीं की शैली में जवाब नहीं दिया. हां, अखिलेश के ‘गुजराती गधों’ वाले बयान और मायावती के ‘निगेटिव दलित मैन’ वाले बयान को जरूर इस सिलसिले में अपवाद माना जा सकता है. बहरहाल, यह बेहद अफसोसनाक है कि हमारे लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष संवैधानिक ढांचे के साथ लंबे समय से काम कर करते रहने के बावजूद मोदी के संकीर्ण और नफरतपंसद आग्रह बरकरार हैं. उत्तर प्रदेश के चुनाव में कोई भी हारे-जीते, अहम सवाल यह है कि क्या भारतीय लोकतंत्र नेताओं के इस तरह के भाषा-व्यवहार और अंदरूनी हमलों से अपने वजूद को बचा पायेगा?