उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी के खुद के साथ आने पर 300 से अधिक सीट जीतने का हुंकार भरने वाले अखिलेश यादव को यूपी मेंकरारी हार का मुंह देखना पड़ा है. उनके पूर्ण नेतृत्व में समाजवादी पार्टी ने इस बार पहला चुनाव लड़ा था और पार्टी ही नहीं उनका गंठबंधन भीचारों खाने चित हो गया. शायद अखिलेश यादव ने इस चुनाव परिणाम की कल्पना भी नहीं की होगी. आखिर, ऐसा क्या हुआ कि अखिलेश यादव को ऐसी हार देखना पड़ा? क्या मुलायम कुनबे का कलह उन्हें डूबा ले गया? क्या राहुल गांधी से उनका गठजोड़ बेमेल साबित हुआ जिसमें तीन जोड़ एक का परिणाम चार के बजाय दो आया? या फिर मोदी के प्रचंड राजनीतिक उभार में उनकी एक नहीं चली?
कुनबे का कलह
समाजवादी कुनबे के घर काझगड़ा इस बार सड़क तक चला आया.झगड़ा एक या दो बार नहीं कई चरणमें हुआ.अखिलेश यादव व उनके चाचा शिवपालयादव के बीच राजनीतिक वर्चस्व की खुलीजंग छिड़ी.इस दौरान अखिलेश केपिता मुलायम सिंह यादव अपने भाईशिवपालयादव के साथ नजर आये.मुलायम सिंह यादव की दूसरी पत्नी साधना गुप्ता व अखिलेश यादव के बीच मतभेद की भी खबरें आयीं.अंतिम चरण आते-आते साधना गुप्ता ने भी मुंह खोला.उन्होंनेकहाकिउनकाबहुतअपमानहुआ,वे अबऔरसहननहींकरेंगी.उन्होंनेशिवपालकापक्षलियाऔर
कहा उन्हें गलतढंग से पार्टी से किनारे किया गया. भले पूरी जंग में अखिलेश यादव विजेता बन कर उभरे,लेकिन इन सब सेकार्यकर्ताओं में गलत संदेश गया.
राहुल-शीला की खाट सभा
अखिलेश यादव व राहुल गांधी ने गंठबंधन बहुत देर से की और दोनों के गठजोड़को लेकर तनाव की खबरें भी मीडिया में खूब छपी. इस गठजोड़ से पहले राहुल गांधी और उनकी पार्टी कांग्रेस कीमुख्यमंत्री पद की घोषित उम्मीदवार शीला दीक्षित ने यूपी में खाट सभाएं की, जिसमें वे किसानों से बात करते थे. यूपीमें चुनाव के एलानसे पहले कांग्रेस का यह नारा लोकप्रिय हो गया था- 27 साल, यूपी बेहाल. भाजपा व अखिलेश की राहुल-शीला ने आलोचना की. फिर अचानक कांग्रेस ने यू टर्न लिया और अखिलेश के साथ हो गया. भाजपा ने इसे बड़ा मुद्दा बनाया कि जिसे राहुलयूपी की बेहाली के लिए कोसते रहे, उसी से गंठबंधन कर लिया. अखिलेश-राहुल की जीत की सबसे बड़ी उम्मीद उनका स्थिर वोट बैंक से जुड़ा था, जो धराशायी हो गयाऔर दोनों का साझा वोट प्रतिशत भी गिर गया.
परिवारवाद, भ्रष्टाचार व अपराध
अखिलेश यादव की व्यक्तिगत छवि भले ही बहुत अच्छी रही हो, लेकिन उनकी पार्टी परिवारवाद व भ्रष्टाचारसे बेदाग नहीं रही. अखिलेशअपनी ही सरकार के कुछ भ्रष्ट मंत्रियों व नेताओंसे जूझते दिखे, इससे उनकी छवि भले ही उभरी, लेकिन पार्टी की पहचान खराब हुई.गायत्री प्रजापतिजैसे नेताओंके कारण पार्टी व सरकार की छवि बहुत खराब हुई. मुजफ्फनगर में मां-बेटी के साथ हुआगैंगरेपएक बड़ा मुद्दा बना. महिलाओं की राज्य में सुरक्षाएक बड़ा चुनावी मुद्दा बना. यह बात सही है कि डैमेज कंट्रोल के तहत अखिलेश ने कई उपाय किये, कदम उठाये, लेकिनतबतकशायद बहुत देर हो चुकी थी.
भीतरघात,शिवपालकीउपेक्षा
इस चुनाव में अखिलेश केसबसे बड़े रणनीतिकार उनके चचेरे चाचा प्रो रामगोपाल यादव थे, जबकि अपने चाचा शिवपाल से उनका मनमुटाव जगजाहिर था. रामगोपाल यादव समाजवादी पार्टी की राष्ट्रीयराजनीति के चेहरेरहे हैं और उनकी दिल्ली वाले के रूप में पहचान है. जबकि शिवपाल यादव जमीनी स्तर के नेता व लखनऊ वाला होने की छवि रखते हैं, जिनकी कार्यकर्ताओं के बड़े वर्ग तक सीधी पहुंचव पकड़ है. ऐसे में शिवपाल की उपेक्षा अखिलेश को भारी पड़ी. शिवपाल इस चुनाव प्रक्रिया में सुस्त पड़े रहे. संभव हैकि उनका धड़ा चुनाव में भीतरघात किया हो.
मुजफ्फरनगर दंगा और धुव्रीकरण
2013 का मुजफ्फरनगरदंगे में जाट व मुसलिमों के आमने-सामने आने की खबरें आयीं.मुसलिम वर्ग इस दंगे के बादसमाजवादी पार्टी से नाराज भी हुआ.यह धारणा रही है किमुसलिम उनके परंपरागत वोटर रहे हैं. वहीं, जाटों की नाराजगी भी सपा से बढ़ी. जाट इसके बाद भाजपा की ओर धुव्रीकृत होते दिखे.भाजपा के कुछ फायरब्रांड नेताओं के बयानों ने इसमेंमदद की. अखिलेश ने मुसलिम वोटों को खुद के साथबनाये रखने केउद्देश्य से आखिरी वक्त मेंअजीत सिंह की पार्टी रालोद को गठबंधन में शामिल नहीं किया, जबकि कांग्रेस ऐसा चाहती थी.