Lucknow: उत्तर प्रदेश में एक्स्ट्रा पल्मोनरी ट्यूबरक्लोसिस के बढ़ते मामले चिंता का सबब बनते जा रहे हैं. टीबी के सामान्य मरीजों की तुलना में इनमें बीमारी की पहचान नहीं होना और जागरूकता का अभाव डॉक्टरों के लिए चुनौती बना हुआ है. खास तौर से आंखों की टीबी के कारण मरीजों का जीवन हमेशा के लिए अंधकारमय हो रहा है.
राजधानी लखनऊ के अर्जुनगंज निवासी रामपाल को फेफड़े की टीबी हो गई. दो महीने तक दवा खाई तो आंखों में रोशनी नहीं रही. डॉक्टर को दिखाया तो पता चला कि टीबी का बैक्टीरिया आंखों में भी पहुंच चुका है. डॉक्टर की सलाह पर छह महीने जमकर दवा खाई. टीबी तो ठीक हो गई. लेकिन, आंखों में रोशनी नहीं आई.
रामपाल तो महज मिसाल भर है. स्टेट टीबी अफसर डॉ. शैलेंद्र भटनागर के मुताबिक इंसान से इंसान में फैलने वाली बीमारी टीबी बाल और नाखून के अलावा शरीर के किसी भी अंग को प्रभावित कर सकती है. फेफड़े और आंत की टीबी तो पकड़ में आ जाती है. लेकिन, शरीर के अन्य हिस्सों में हुए संक्रमण का पता बहुत देर से चलता है.
उन्होंने बताया कि दिमाग, हड्डी, स्पाइन, जेनाइटल अंगों के साथ आंखों की टीबी (इंट्राऑक्युलर टीबी) तेजी से बढ़ रही है. आंख की टीबी की पहचान न हो पाना डॉक्टरों के लिए चुनौती बना हुआ है. अगर किसी की दृष्टि में धुंधलापन, प्रकाश संवेदनशीलता, सिरदर्द, चमक, आंख की लाली जैसे लक्षण हैं तो उसे फौरन आंख विशेषज्ञ को दिखाना चाहिए. ये टीबी के लक्षण हो सकते हैं. समय से इलाज नहीं हो पाने पर आंखों की रोशनी जा सकती है. यहां तक की आंख पूरी तरह खराब भी हो जाती है. अगर विशेषज्ञ की बात मानकर जांच व इलाज करा लिया जाए तो इन समस्याओं से बचा जा सकता है.
Also Read: UP Board 10th Toppers List: आईएएस अफसर बनना चाहती हैं टॉपर प्रियांशी सोनी, कोचिंग के बिना हासिल की उपलब्धि
टीबी की वर्ष 2022 की रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर प्रदेश में एक्स्ट्रा पल्मोनरी टीबी के केस फेफड़ों की टीबी के केस की तुलना में एक तिहाई हैं. रिपोर्ट बताती है कि फेफड़े की टीबी के यूपी में बीते साल कुल 3,41,444 आए जबकि इसी दौरान एक्स्ट्रा पल्मोनरी टीबी के 1,12,268 केस प्रदेश में पाए गए हैं. टीबी ज्यादातर फेफड़ों पर हमला करता है. लेकिन, एक्स्ट्रा पल्मोनरी टीबी फेफड़ों के अलावा शरीर के अन्य भागों को भी प्रभावित कर सकता है.
सीतापुर नेत्र चिकित्सालय के सीनियर परामर्शदाता डॉ. इंद्रनिल साहा के अनुसार आंख की टीबी किसी भी उम्र और किसी भी लिंग में हो सकती है. आंख की टीबी के कुछ मरीज हैं, जिनकी पहचान हो पाती है. जबकि जागरूकता और डायग्नोसिस के अभाव में बहुत से मरीजों की पहचान नहीं हो पाती है. सबसे बड़ी चुनौती इन रोगियों में टीबी की दवा का शुरू करना है क्योंकि चिकित्सकों को टिश्यू पाजिटिव साक्ष्य की जरूरत होती है.
यह केवल रोगी की आंख से नमूना लेने से ही संभव होगा, जो आमतौर पर अत्यंत आवश्यक होने तक नहीं किया जाता है. इसलिए मरीजों का इलाज डॉक्टर अपने क्लीनिकल अनुभव और दूसरे टेस्ट के आधार पर करते हैं. उन्होंने कहा कि कभी-कभी जब चिकित्सक टीबी की दवा शुरू करने से इनकार करते हैं तो नेत्र रोग विशेषज्ञों को रोगी के हित में दवा शुरू करना पड़ता है. उनकी प्रैक्टिस में हर माह पांच से छह मरीज आंखों की टीबी के आ रहे हैं.
इंदिरा गांधी नेत्र चिकित्सालय की सहायक प्रोफेसर डॉ. अश्विनी ने बताया कि कई केस में फेफड़ों की टीबी न होने पर भी आंखों में टीबी हो रही है. इसके लिए जरूरी है कि मरीज की स्क्रीनिंग करने के साथ पीसीआर जांच कराई जाए. शुरुआती लक्षण को कंजेक्टिवाइटिस समझ कर इलाज होता है, जबकि इसमें नेत्र दिव्यांगता का खतरा सर्वाधिक है. मोतियाबिंद, ग्लूकोमा के बाद अंधता की प्रमुख वजह यह है, जिन्हें टीबी है, उनकी आंखों में टीबी का खतरा अधिक होता है. कई बार व्यक्ति को टीबी का संक्रमण नहीं होने पर भी आंखों की टीबी होती है.