लखनऊ : इलाहाबाद हाई कोर्ट (Allahabad High Court) ने 31 मई को वाराणसी के ज्ञानवापी (Gyanvapi) मस्जिद परिसर में श्रृंगार गौरी की नियमित पूजा की मांग वाली याचिका सुनने लायक है या नहीं? इस पर फैसला दे दिया. उच्च न्यायालय ने मुस्लिम पक्ष की आपत्ति खारिज कर दी. हिंदू पक्ष की याचिका को सुनने लायक मानते हुए वाराणसी जिला अदालत के फैसले को बरकरार रखा है. श्रृंगार गौरी-ज्ञानवापी मामले में हिंदू पक्ष के वकील सौरभ तिवारी ने कहा है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले से न तो मस्जिद का चरित्र बदलेगा और नहीं हिन्दू पक्ष को नियमित पूजा करने का अधिकार मिला है. यह अधिकार तभी मिलेगा जब वाराणसी की जिला अदालत हिन्दुओं के पक्ष में फैसला सुनाती है. सौरभ तिवारी का कहना है कि हाइकोर्ट ने अपने आदेश में कहा है कि कि मां श्रृंगार गौरी की पूजा के अधिकार को लागू करने के लिए कहना एक ऐसा कार्य नहीं है जो ज्ञानवापी मस्जिद के चरित्र को मंदिर में बदल देता है.
#WATCH | Varanasi, UP: The Allahabad High Court said that mere asking to enforce a right to worship Maa Srinagar Gauri is not an act that changes the character of the Gyanvapi Mosque into a temple: Saurabh Tiwari, Advocate Hindu Side on Shringar Gauri-Gyanvapi case pic.twitter.com/J8U2XTDOJr
— ANI UP/Uttarakhand (@ANINewsUP) June 2, 2023
हाईकोर्ट ने अपने फैसला में कहा कि “मां श्रृंगार गौरी, भगवान गणेश, भगवान हनुमान और अन्य देवताओं को उनके निर्दिष्ट स्थान पर सूट संपत्ति में पूजा करने का अधिकार लागू करने के लिए कहना, एक ऐसा कार्य नहीं है जो ज्ञानवापी मस्जिद के चरित्र को एक मंदिर में बदल देता है. यह एक मौजूदा अधिकार के पूर्ण प्रवर्तन की मांग से ज्यादा कुछ नहीं है जो वादी में निहित है और लंबे समय से 15 अगस्त, 1947 के बाद तक उनके जैसे अन्य भक्तों द्वारा प्रयोग किया जाता है,” हाईकोर्ट ने अंजुमन इंतेजामिया मस्जिद की प्रबंधन समिति द्वारा वाराणसी की जिला अदालत के आदेश के खिलाफ दायर एक पुनरीक्षण याचिका पर विचार करने से इनकार करते हुए ये टिप्पणियां कीं, जिसमें कहा गया था कि मुकदमा चलने योग्य था. 12 सितंबर 2022 को जिला जज डॉक्टर एके विश्वेश ने मुक़दमे की पोषणीयता को लेकर मुस्लिम पक्षकार द्वारा दायर याचिका को खारिज कर दिया था.
मुस्लिम पक्षकारों की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता सैयद अहमद फैजान और अधिवक्ता जहीर असगर ने तर्क दिया था कि वाद को मुकदमे के परीक्षण के बिना खारिज कर दिया जाना चाहिए, क्योंकि वाद पूजा के स्थान (विशेष प्रावधान) अधिनियम द्वारा वर्जित था. मुस्लिम पक्षकारों ने दावा किया कि यह ढांचा 15 अगस्त 47 को एक मस्जिद था और इसे ऐसे ही जारी रहना चाहिए. कोर्ट में यह भी तर्क दिया गया कि अगर कोई व्यक्ति जबरन और कानून के अधिकार के बिना उस संपत्ति के भीतर या किसी विशेष स्थान पर नमाज अदा करता है, तो उसे मस्जिद नहीं कहा जा सकता. हिन्दू पक्ष का कहना था कि वे 1990 तक नियमित रूप से पूजा करते रहे हैं और 1993 के बाद से साल में एक बार परिसर में दर्शन करते रहे हैं.