Yoga Day: योग जीवन रूपांतरण का विज्ञान है. योग सत्य को उद्घाटित करने का प्रयोग है. योग मन से मुक्त होकर निर्विचार स्वप्नहीन मन तक पहुंचने की वैज्ञानिक तकनीक है. योग से शरीर के समस्त अंग-प्रत्यंग सुचारु रूप से प्रभावित होते हैं. योग आसनों से लिगामेंट्स, रीढ़ की हड्डी की स्नायु, मांसपेशियां, धमनियां और शिराएं लचीली, सशक्त एवं सुदृढ़ होती हैं. आसनों से हृदय, फेफड़े, नाड़ी तथा अंतःस्रावी ग्रंथियां विशेष रूप से प्रभावित होती हैं. इसलिए योग को जीवनशैली में शामिल करना बहुत फायदेमंद है.
लखनऊ विश्वविद्यालय के योग व वैकल्पिक चिकित्सा विभाग संयोजक डॉ. अमरजीत यादव बताते हैं कि आसन, सिम्पेथेटिक और पैरा सिम्पेथेटिक नर्व्स सिस्टम पर नियंत्रक, नियामक, संतुलित प्रभाव डालकर शरीर एवं मन को स्वस्थ बनाते हैं. योग का नियमित अभ्यास करने से मांसपेशियों की क्रियाशीलता, लचीलापन, फेफड़े की वाइटल कैपेसिटी, रक्त परिसंचरण संस्थान, तंत्रिका तंत्र की स्वाभाविक क्रियाएं संतुलित होती हैं.
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उन्होंने बताया कि योगासन का शरीर के विभिन्न तंत्र पर असर पड़ता है. दैनिक जीवन में योगासनों का नियमित अभ्यास करने से आमाशय की क्रियाशीलता बढ़ती है. यहां से स्रावित होने वाले गैस्ट्रिक हार्मोन का स्राव बढ़ जाता है. जिससे पाचन क्रियाएं स्वाभाविक ढंग से सम्पन्न होने लगती हैं. योगासनों से आंतों के अंदर होने वाली क्रमाकुंचक गतियां प्राकृतिक रूप से होती है.
डॉ. अमरजीत यादव ने बताया कि योगासन से छोटी आंतों में पाए जाने वाले अंकुरक की अवशोषण क्षमता बढ़ जाती है. जिससे पोषक पदार्थों का समुचित मात्रा में अवशोषण होता है और अंग विशेष को परिपूर्ण पोषण मिलता है. इससे कब्ज, अपच, अम्लता आदि पाचन संबंधी विकार दूर होते हैं. मुख्यतः उदर शक्ति विकासक क्रिया के लिए वज्रासन, अर्द्धमत्स्येंद्रासन, गौमुखासन, धनुरासन इत्यादि पाचन संस्थान पर प्रभावी आसन हैं.
नियमतः दीर्घ श्वसन का अभ्यास करने से श्वसन एवं बाह्य श्वसन क्रियाएं संतुलित होती हैं. शरीर में समुचित मात्रा में ऑक्सीजन पहुंचती है जो कि रक्त के साथ मिलकर सम्पूर्ण अंग प्रत्यंग में संचारित होती है. नित्य प्राणायाम का अभ्यास करने से विशेषकर फेफड़े के ऊपरी हिस्से में जीवाणु का संक्रमण नहीं हो पाता है. विशेषकर सैप्रोलैटिक बैक्टीरिया विकास नहीं कर पाते, जो बाद में टीबी बीमारी का कारण बनते हैं. श्वसन की सूक्ष्म क्रियाओं से ब्रांकाइटिस, निमोनिया आदि में आराम मिलता है.
डॉ. अमरजीत ने बताया कि ध्यान के आसन विशेषकर पद्मासन से सेरोटीनीन, डोपामीन इत्यादि का स्राव नियंत्रित होता है. ऐसे रोगी जिनमें ऐड्रीनलीन तथा कार्टीसोन का स्राव ज्यादा होता है, ध्यान के आसन विशेषकर पद्मासन करने से उपरोक्त स्राव नियंत्रित होता है. जिससे रोगी को उच्च रक्तचाप, तनाव, चिंता में लाभ मिलता है. सर्वांगासन, हलासन, कर्णपीड़ासन, शीर्षासन की स्थिति में गुरुत्वाकर्षण के कारण थायराइड, पैराथायराइड, पिट्यूटरी, पीनियल नामक ग्रंथियों की तरफ रक्त संचार तीव्र होता है. जिससे संबंधित अंग प्रभावित होते हैं.
उन्होंने बताया कि पैरासिम्पेथेटिक स्नायु तंत्र की अधिक सक्रियता से व्यक्ति अधिक आक्रामक और अपराधी बनता है. सिम्पेथेटिक स्नायु तंत्र की अति सक्रियता से व्यक्ति भय और हीन भावना से ग्रस्त होता है. आसनों का प्रभाव इन दोनों स्नायु संस्थानों पर नियंत्रित तथा संतुलित पड़ता है जिससे व्यक्ति का समग्र विकास होता है.
रोजाना यौगिक आसन तथा यौगिक क्रियाओं का अभ्यास करने से मांसपेशियां सुदृढ और लचीली होती हैं. मांसपेशियों की क्रियाएं स्वाभाविक होती हैं और सूक्ष्म स्तर पर इनमें होने वाली क्षति की आपूर्ति शीघ्र हो जाती है. योगासनों से ऑक्सीजन समुचित मात्रा में रक्त में पहुंचती है और ऑक्सीजन की उपस्थिति में ग्लाईकोजन का जलना प्राकृतिक होता है. जो ऊर्जा निर्माण की एक कड़ी है. इस कारण रक्त में लैक्टिक अम्ल की मात्रा बढ़ नहीं पाती है. ऊर्जा से संबंधित निर्धारित प्राकृतिक क्रियाएं अनवरत चलती रहती हैं.
दैनिक आसनों का अभ्यास करने से रक्त का संवर्धन होता है और रक्त परिसंचरण संस्थान तीव्रता से संचरित होता है. जिससे परिसंचरण संस्थान में पाए जाने वाले • विभिन्न प्रकार के सूक्ष्म स्तर के संचय, जिसमें कोलेस्ट्रॉल मुख्य है जमा नहीं हो पाता. जिससे विभिन्न प्रकार से रक्त परिसंचरण संस्थान के संबंधित विकारों से शरीर की सुरक्षा होती है.
डॉ. अमरजीत ने बताया कि प्राणायाम, बंध, शटकर्म, ध्यान आदि अनेक यौगिक क्रियाओं और आसनों से हृदय, फेफड़े, नाड़ी संस्थान, अंतःस्रावी ग्रंथियां विशेष रूप से प्रभावित होती हैं. प्राणायाम और अन्य यौगिक क्रियाओं से विभिन्न प्रकार की बीमारियां तथा फेफड़ों की वाइटल कैपेसिटी, हृदय नियंत्रण, रक्तदाब, बाह्यःस्रावी व अंतःस्रावी ग्रंथियों की क्रियाशीलता, स्नायु संस्थान, उत्सर्जन संस्थान एवं मस्तिष्क तरंगों आदि के नियंत्रण के कारण व्यक्ति सामाजिक, पारिवारिक, आत्मिक तथा शारीरिक स्तर पर संतुलित एवं नियंत्रित होकर अपना कार्य सम्पादित करता है. उसके व्यक्तित्व और विचारों में सकारात्मक दृष्टि उत्पन्न होती है और रोगों से मुक्ति मिलती है.