निर्वाण दिवस पर विशेष
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सनातन धर्म के ध्वजवाहक स्वामी विश्वदेवानंद
निर्वाण दिवस पर विशेष समाज सेवा में रत सर्वजन सुखाय सर्वजन हिताय, विश्व के कल्याण का उद्घोष देनेवाले भारतीय वैदिक सनातन भावना के अजस्त्र अबोध अविरल गति से प्रचार में समस्त जीवन को अर्पण करने वाले एवं श्री यंत्र विद्या के साधक, ब्रह्मलीन निर्वाण पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी विश्वदेवानंदजी का सनातन धर्म में विशेष योगदान […]
समाज सेवा में रत सर्वजन सुखाय सर्वजन हिताय, विश्व के कल्याण का उद्घोष देनेवाले भारतीय वैदिक सनातन भावना के अजस्त्र अबोध अविरल गति से प्रचार में समस्त जीवन को अर्पण करने वाले एवं श्री यंत्र विद्या के साधक, ब्रह्मलीन निर्वाण पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी विश्वदेवानंदजी का सनातन धर्म में विशेष योगदान है. उनके तृतीय निर्वाण दिवस के अवसर पर प्रस्तुत है स्वामी जी का एक परिचय.
जन्म स्थान : स्वामी विश्वदेवानंदजी महाराज का जन्म सन् 26 जनवरी 1946 ईस्वी में कानपुर, उत्तर प्रदेश के एक नौगवां, (हरचंदखेड़ा) में सनातनधर्मी कान्यकुब्ज ब्राह्मण ‘विश्वनाथ शुक्ला के परिवार में हुआ. बचपन में उनका नाम ‘कैलाशनाथ शुक्ला’ रखा गया.
वैराग्य : स्वामी विश्वदेवानंदजी महाराज ने सत्य की खोज में 14 वर्ष की अल्पायु में गृहत्याग कर दिया. वस्तुत: उसके बाद वह कभी घर लौट कर नहीं गये और न ही किसी प्रकार का घर से सम्बन्ध रखा. उसी वर्ष नैमिषारणय के पास दरिया पुर गांव में स्वामी सदानंद परमहंस जी महाराज जी से साधना सत्संग की इच्छा से मिलने गये. वहां उन्होंने अनेक प्रकार कि साधनाएं सीखी और उनमें पारंगत हुए.
अध्ययन : स्वामी विश्वदेवानंदजी महाराज ने निर्वाण पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी कृष्णानंद जी महाराज के सान्निध्य में संन्यास आश्रम अहमदाबाद में व्याकरण शास्त्र, दर्शन शास्त्र, भागवत, न्यायशस्त्र, वेदांत आदि का अध्ययन किया. फिर दिल्ली विश्वविद्यालय से आंग्ल भाषा में स्नातकोत्तर की उपाधि ग्रहण की.
तपो जीवन : स्वामी विश्वदेवानंदजी महाराज ने 20 वर्ष की आयु से हिमालय गमन प्रारंभ कर अखंड साधना, आत्मदर्शन, धर्म सेवा का संकल्प लिया. पंजाब में एक बार भिक्षाटन करते हुए स्वामी जी को किसी विरक्त महात्मा ने विद्या अर्जन करने कि प्रेरणा की. एक ढाई गज कपड़ा एवं दो लंगोटी मात्र रखकर भयंकर शीतोष्ण वर्षा का सहन करना इनका 15 वर्ष की आयु में ही स्वभाव बन गया था। त्रिकाल स्नान, ध्यान, भजन, पूजन, तो चलता ही था. विद्याध्ययन की गति इतनी तीव्र थी की संपूर्ण वर्ष का पाठ्यक्रम घंटों और दिनों में हृदयंगमकर लेते.
संन्यास ग्रहण : स्वामी विश्वदेवानंदजी महाराज ने सन् 1962 में परम तपस्वी निर्वाण पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी श्री अतुलानंद जी महाराज श्री से विधिवत संन्यासी बनकर “परमहंस परिब्राजकाचार्य 1008 श्री स्वामी विश्वदेवानंद जी महाराज” कहलाए.
देश और विदेश यात्राएं : सम्पूर्ण देश में पैदल यात्राएं करते हुए धर्म प्रचार एवं विश्व कल्याण की भावना से ओतप्रोत पूज्य महाराज जी प्राणी मात्र की सुख शांति के लिए प्रयत्नशील रहने लगे.
उनकी दृष्टि में समस्त जगत और उसके प्राणी सर्वेश्वर भगवान के अंश हैं या रूप हैं. यदि मनुष्य स्वयं शांत और सुखी रहना चाहता है तो औरों को भी शांत और सुख ीबनाने का प्रयत्न आवश्यक है उन्होंने जगह-जगह जाकर प्रवचन देने आरम्भ किये और जन जन में धर्म और अध्यात्म का प्रकाश किया. उन्होंने सारे विश्व को ही एक परिवार की भांति समझा और लोगों में वंसुधैव कुटुम्बकम की भावना का बीज वपन किया और कहा कि इससे सद्भावना, संघटन, सामंजस्य बढेगा और फिर राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय तथा समस्त विश्व का कल्याण होगा.
निर्वाणपीठाधीश्वर के रूप में : सन् 1985 में पूज्य निर्वाण पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अतुलानंद जी महाराज के ब्रह्मलीन होने का पश्चात स्वामी विश्वदेवानंदजी महाराज को समस्त साधु समाज और श्री पंचायती अखाड़ा महानिर्वाणी के श्री पञ्च ने गोविन्द मठ कि आचार्य गद्दी पर बिठाया.
श्री यंत्र मंदिर का निर्माण : सन् 1985 में महानिर्वाणी अखाड़े के आचार्य बनने के बाद 1991 में हरिद्वार के कनखल क्षेत्र में स्वामी विश्वदेवानंदजी महाराज ने विश्व कल्याण की भावना से विश्व कल्याण साधना यतन की स्थापना की उसके बाद सन् 2004 में इसी आश्रम में भगवती त्रिपुर सुंदरी के दिव्य मंदिर को बनाने का संकल्प लिया और सन् 2010 के हरिद्वार महाकुम्भ में महाराज श्री का संकल्प साकार हुआ. सम्पूर्ण रूप से श्री यंत्राकार यह लाल पत्थर से निर्मित मंदिर अपने आप में महाराजश्री की कीर्ति पताका को स्वर्णा अक्षरों में अंकित करने के लिए पर्याप्त है.
ब्रह्मलीन : 7 मई 2013 को हरिद्वार के लिए आतेहुए एक भीषण दुर्घटना में स्वामी विश्वदेवानंदजी महाराज जी का प्राण व्यष्टि से समष्टि में विलीन हो गया. उनके नश्वर पार्थिव शरीर को श्री यंत्र मंदिर के प्रांगन में रुद्राक्ष के वृक्ष के नीचे श्री भगवती त्रिपुर सुंदरी की पावन गोद में भू समाधी दी गयी.
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