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बुद्धदेव नवंबर 2000 में बने थे बंगाल के मुख्यमंत्री

बुद्धदेव भट्टाचार्य की स्थिति में उस समय नाटकीय बदलाव आया, जब उम्रदराज हो चुके बसु का उत्तराधिकारी तलाश थी. आखिरकार उन्होंने नवंबर 2000 में मुख्यमंत्री के रूप में ज्योति बसु का स्थान लिया.

कोलकाता. पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की स्थिति में उस समय नाटकीय बदलाव आया, जब उम्रदराज हो चुके बसु का उत्तराधिकारी तलाश रही और सत्ता विरोधी कड़ी लहर का सामना कर रही माकपा ने भट्टाचार्य को राज्य के गृह मंत्री के रूप में मंत्रिमंडल में फिर से शामिल होने को तैयार किया. आगे चल कर तीन साल के भीतर ही वह उपमुख्यमंत्री बने और आखिरकार नवंबर 2000 में मुख्यमंत्री के रूप में ज्योति बसु का स्थान लिया. अगले वर्ष उन्होंने राज्य विधानसभा चुनावों में वाममोर्चा को जीत दिलायी और कृषि प्रधान राज्य में तेजी से औद्योगीकरण के लिए महत्वाकांक्षी पहल शुरू की. उन्होंने निवेशकों को आकर्षित करने के लिए अपनी विचारधारा तक की परवाह नहीं की और आये दिन बंद व हड़ताल का आह्वान करने वाले अपने दल के मजदूर संगठन सीटू की सार्वजनिक रूप से निंदा करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी. आम लोगों को उनका यह कदम पसंद आया और उनकी लोकप्रियता चरम पर पहुंच गयी. वाममोर्चा ने उनके नेतृत्व में लड़े गये 2006 के विधानसभा चुनाव में शानदार जीत भी दर्ज की.

मीडिया में खूब हुई थी ‘ब्रांड बुद्ध’ की चर्चा

अपनी सरकार की विकासमूलक पहलों के कारण मीडिया में ‘ब्रांड बुद्ध’ के तौर पर उनकी खूब चर्चा होने लगी थी. उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि टाटा मोटर्स को सिंगूर में छोटी कारों का एक संयंत्र स्थापित करने के लिए आकर्षित करना था, जो महानगर से बहुत दूर हुगली जिले के सिंगूर में स्थित था. हालांकि, इस परियोजना को किसानों का कड़ा विरोध झेलना पड़ा, जो कि वामदलों का प्रमुख वोट बैंक था और अंतत: यह मार्क्सवादी सरकार के पतन की मुख्य वजहों में से एक बना. उनकी सरकार को नंदीग्राम में भी एक एसईजेड स्थापित करने की कोशिश के चलते भारी विरोध का सामना करना पड़ा, जहां तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी के नेतृत्व में कृषियोग्य जमीन के अधिग्रहण के खिलाफ आंदोलन के कारण वाममोर्चा के वोट बैंक में बड़ी गिरावट आयी. इसी आंदोलन के क्रम में पुलिस ने 14 मार्च, 2007 को नंदीग्राम के प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी कर दी थी, जिसके परिणामस्वरूप 14 लोगों की मौत हो गयी और मार्क्सवादियों की सामाजिक-राजनीतिक बद से बदतर हो गयी. स्मरणीय है कि सिंगूर में प्रस्तावित कार संयंत्र के पास आज की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के धरने को समाप्त कराने के लिए कोई निर्णायक कार्रवाई करने में उनकी विफलता भी उन पर भारी पड़ी और जनवरी 2008 में टाटा को पश्चिम बंगाल से अपनी नैनो कार परियोजना को वापस लेकर बाहर जाना पड़ा. इसके बाद हुए विधानसभा चुनाव में बंगाल की जनता ने बुद्धदेव भट्टाचार्य के नेतृत्व वाली तब की वाममोर्चा सरकार को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया था.

कोलकाता में जन्मे थे बुद्धदेव भट्टाचार्य

बुद्धदेव भट्टाचार्य का जन्म एक मार्च 1944 को हुआ था. उत्तर कोलकाता में एक विद्वान पृष्ठभूमि वाले परिवार में. उनके पितामह कृष्ण चंद्र स्मृति तीर्थ संस्कृत के विद्वान थे. उन्होंने पुरोहितों व पुजारियों के लिए कर्मकांड आधारित एक पुस्तक भी लिखी थी. भट्टाचार्य प्रसिद्ध बंगाली कवि सुकांत भट्टाचार्य के रिश्तेदार थे. सुकांत भट्टाचार्य ने आधुनिक बंगाली कविता पर अपनी महत्वपूर्ण छाप छोड़ी थी. उन्हें खुद एक सफल लेखक के रूप में जाना जाता है और वह विभिन्न परिस्थितियों में रवींद्रनाथ टैगोर को उद्धृत करने में माहिर थे. बुद्धदेव भट्टाचार्य को सादगीपूर्ण जीवन जीने के लिए जाना जाता है. वह मुख्यमंत्री रहने के दौरान और उसके बाद भी दक्षिण कोलकाता के पाम एवेन्यू स्थित दो कमरे के एक फ्लैट में ही रहते रह गये. बांग्ला में प्रेसीडेंसी कॉलेज से स्नातक करने के बाद बुद्धदेव भट्टाचार्य ने पूरी तरह से राजनीति में आने से पहले एक शिक्षक के रूप में काम किया और 1960 के दशक के मध्य में माकपा में शामिल हो गये थे. इस दौरान चर्चित वामपंथी नेता प्रमोद दासगुप्ता की नजर उन पर पड़ी थी, जिन्होंने बिमान बसु, अनिल विश्वास, सुभाष चक्रवर्ती और श्यामल चक्रवर्ती जैसे बंगाल के अन्य पार्टी नेताओं के साथ भट्टाचार्य को भी राजनीति का ककहरा सिखाया था.

1977 में बने थे विधायक, 33 की उम्र में मंत्री

भूतपूर्व मुख्यमंत्री श्री भट्टाचार्य 1977 में पहली बार काशीपुर निर्वाचन क्षेत्र से विधानसभा के लिए चुने गये थे और 33 साल की उम्र में ज्योति बसु के नेतृत्व में वाममोर्चा की पहली सरकार में सूचना और संस्कृति मंत्री बने थे. भट्टाचार्य ने बंगाली संस्कृति, रंगमंच, साहित्य और गुणवत्तापूर्ण फिल्मों को बढ़ावा देने के लिए प्रशंसा अर्जित की और कोलकाता में फिल्म व सांस्कृतिक केंद्र ‘नंदन’ की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी. वैसे, 1982 में वह अपना दूसरा चुनाव हार गये थे. इससे आगे चल कर उन्हें अपना निर्वाचन क्षेत्र बदल कर महानगर के दक्षिणी हिस्से में जादवपुर से चुनाव लड़ना पड़ा और वह 1987 में राज्य मंत्रिमंडल में लौट सके थे. पार्टी और सरकार से अपनी कुछ शिकायतों के चलते उन्होंने 1993 में अचानक कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया था. इसके बाद उन्होंने सक्रिय राजनीति से दूरी बना ली और इसी दौरान उन्होंने ‘दुस्समय’ (बैड टाइम्स) नामक नाटक लिखा.

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