West Bengal : इंजेक्शन के अभाव में अंधेपन के शिकार हो रहे शिशु ,आरआइओ में नहीं मिल रहा इलाज

West Bengal : पिछले साल 15 मार्च को केंद्र ने नेशनल प्रोग्राम फॉर प्रिवेंशन ऑफ ब्लाइंडनेस फंड से आरआइओ को दो करोड़ रुपया मिले थे. इसके बाद 16 मार्च को केंद्रीय वाणिज्य व उद्योग मंत्रालय ने राज्य के प्रधान सचिव को पत्र लिखा.

By Shinki Singh | February 26, 2024 4:45 PM
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कोलकाता, शिव कुमार राउत : राज्य के क्षेत्रीय नेत्र विज्ञान संस्थान, रीजनल इंस्टीट्यूट ऑफ ऑपथैल्मोलॉजी (आरआइओ) में आंखों की गंभीर समस्या को लेकर पहुंचने वाले शिशुओं की चिकित्सा नहीं हो पा रही है. गत 11 महीने से अस्पताल में यह समस्या बनी हुई है. अंधेपन के शिकार होने वाले शिशुओं के आंखों की रोशनी को सलामत रखने व रेटिना को स्वस्थ रखने के लिए एक महंगी इंजेक्शन लगायी जाती है. पर इंजेक्शन की खरीदने की प्रक्रिया पिछले साल मार्च से रुकी हुई है. केंद्र सरकार के ”नेशनल प्रोग्राम फॉर प्रिवेंशन ऑफ ब्लाइंडनेस” से मिलने वाली राशि से अस्पताल प्रबंधन इस इंजेक्शन को खरीदता था. अस्पताल सूत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार, केंद्रीय योजना से अस्पताल को पिछले साल दो करोड़ रुपये मिले थे. चूंकि, आरआइओ केंद्रीय फंड का ”यूटिलाइजेशन सर्टिफिकेट”नहीं दे पा रहा है, इसलिए केंद्र ने आगे का फंड भी रोक लिया है.

राज्य स्वास्थ्य विभाग ने विशेषज्ञों की कमेटी गठित की

इस समस्या के समाधान के लिए राज्य स्वास्थ्य विभाग ने विशेषज्ञों की कमेटी गठित की है. कमेटी के सदस्य कई बार केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के प्रतिनिधियों के साथ वीडियो कांफ्रेंसिंग भी कर चुके हैं. इसके बाद भी केंद्र की ओर से फंड को रोक दिया गया है. धनराशि के अभाव में अस्पताल प्रबंधन गत 11 महीने से उक्त इंजेक्शन को खरीद नहीं पा रहा है. इस वजह से शिशुओं के इलाज के लिए जरूरी यह इंजेक्शन अस्पताल में उपलब्ध नहीं है. ऐसे में आरआइओ और राज्य स्वास्थ्य विभाग पर दबाव बढ़ रहा है है. रानिबिजुमैब इंजेक्शन की वजह से यह विवाद हो रहा है. यह इंजेक्शन मूल रूप से रेटिना में नसों की सूजन को नियंत्रित करने के लिए दिया जाता है. यह ”उम्र से संबंधित मैक्यूलर डीजनरेशन”, ””डायबिटिक रेटिनोपैथी”” के साथ-साथ ””रेटिनोपैथी ऑफ प्रीमैच्योरिटी”” जैसी रेटिना संबंधी बीमारियों में बहुत उपयोगी है.

एक सिरिंज की कीमत करीब 16 हजार रुपये

स्वास्थ्य विभाग लंबे समय से नवजातों में रेटिना डिटैचमेंट के इलाज के लिए ”प्री-फील्ड रैनिबिज़ुमैब” इंजेक्शन का इस्तेमाल कर रहा है, जो सिरिंज में पहले से भरी होती है. यह इंजेक्शन केवल एक विदेशी कंपनी ही बेचती है. सेंट्रल मेडिकल स्टोर के माध्यम से राज्य के सरकारी अस्पतालों को सप्लाई की जाती थी. एक सिरिंज की कीमत करीब 16 हजार रुपये है. जुलाई 2022 में केंद्र सरकार और ड्रग कंट्रोल जनरल ऑफ इंडिया ने एक स्थानीय कंपनी को भारत में इंजेक्शन बनाने की मंजूरी दी थी. लेकिन उनका इंजेक्शन ””प्री-फील्ड”” नहीं है. यानी दवा शीशी में है. इसे इस्तेमाल के लिए सिरिंज में भरना होगा. इस इंजेक्शन की एक शीशी की कीमत आठ हजार रुपये है. पर आरआइओ देसी इंजेक्शन के बजाय विदेशी कंपनियों से दोगुनी कीमत पर खरीदता रहा है.

विदेशी कंपनियों के बजाय घरेलू कंपनियों से कम कीमत पर इंजेक्शन खरीदने का सुझाव

जानकारी के अनुसार, भवानी राय चौधरी नामक शख्स ने पिछले साल फरवरी में केंद्रीय उद्योग और वाणिज्य मंत्रालय व राज्य स्वास्थ्य विभाग को इस संबंध में एक लिखित शिकायत की थी. वही, पिछले साल 15 मार्च को केंद्र ने नेशनल प्रोग्राम फॉर प्रिवेंशन ऑफ ब्लाइंडनेस फंड से आरआइओ को दो करोड़ रुपया मिले थे. इसके बाद 16 मार्च को केंद्रीय वाणिज्य व उद्योग मंत्रालय ने राज्य के प्रधान सचिव को पत्र लिखा. पत्र में विदेशी कंपनियों के बजाय घरेलू कंपनियों से कम कीमत पर इंजेक्शन खरीदने का सुझाव दिया गया था.

अस्पताल को प्रति माह 25-30 इंजेक्शन की होती है जरूरत

लेकिन इसके बाद भी 23 मार्च को आरआइओ ने एक विदेशी कंपनी से 250 ‘प्री-फील्ड रैनिबिज़ुमैब’ इंजेक्शन खरीद लिया. केंद्र सरकार से प्राप्त फंड से एक करोड़ रुपये में इसकी खरीदारी की गयी थी. गत वर्ष 10 मई को राज्य के तत्कालीन स्वास्थ्य सेवा निदेशक और स्वास्थ्य शिक्षा निदेशक ने एक आदेश जारी कर आरआइओ को रैनिबिजुमैब इंजेक्शन की खरीद को निलंबित करने का आदेश दिया था. केंद्र और राज्य के बीच इस पर खींचतान की वजह से आरआइओ अबतक रैनिबिज़ुमैब नहीं खरीद सका है. जानकारी के अनुसार, अस्पताल को प्रति माह 25-30 इंजेक्शन की जरूरत होती है.

क्या कहते हैं निदेशक

आरआइओ के निदेशक असीम कुमार घोष ने बताया कि प्री-फील्ड इंजेक्शन से नवजात शिशुओं के रेटिना में संक्रमण का खतरा नहीं होता है. लेकिन अगर दवा शीशी से सिरिंज में खींची जाती है, तब संक्रमण का खतरा अधिक रहता है. मैं इन्हें खरीदना नहीं चाहता था क्योंकि स्थानीय कंपनी के इंजेक्शन शीशी में हैं. इसके अलावा घरेलू कंपनी हमें कोई आधिकारिक प्रमाण पत्र नहीं दिखा सकी कि कंपनी का इंजेक्शन बच्चों की रेटिना के इलाज में प्रभावी है.

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