अब आदमी को नहीं ढोयेगा आदमी

कोलकाता: देश की सांस्कृतिक राजधानी के नाम से परिचित कोलकाता में आज भी आदमी, आदमी को ढोता है, जो इस शहर पर दाग जैसा है. यहां आनेवाले पर्यटक जब यह देखते हैं तो इस अमानवीय कार्य की निंदा करते हुए नहीं थकते. यहां तीन दशक से भी अधिक समय तक वामपंथियों का राज रहा, लेकिन […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 6, 2017 9:34 AM
कोलकाता: देश की सांस्कृतिक राजधानी के नाम से परिचित कोलकाता में आज भी आदमी, आदमी को ढोता है, जो इस शहर पर दाग जैसा है. यहां आनेवाले पर्यटक जब यह देखते हैं तो इस अमानवीय कार्य की निंदा करते हुए नहीं थकते. यहां तीन दशक से भी अधिक समय तक वामपंथियों का राज रहा, लेकिन उन लोगों ने भी कभी इन हाथरिक्शा चालकों की जिंदगी में झांक कर नहीं देखा. 2006 में तत्कालीन सरकार ने इसे बंद करने की घोषणा तो की, लेकिन इनके लिए वैकल्पिक रोजगार का अवसर प्रदान करने की दिशा में कुछ नहीं किया. 2011 में सत्ता परिवर्तन के बाद तृणमूल कांग्रेस की सरकार इस अमानवीय प्रथा को बंद करने में जुट गयी और विभिन्न चरणों में यहां से हाथरिक्शा की प्रथा को खत्म कर रही है. हाथरिक्शा समयांतर में फिल्मों और साहित्य का भी हिस्सा रहा है.
1953 में बंगाली फिल्म निर्माता-निर्देशक विमल राय ने ‘दो बीघा जमीन’ फिल्म बनायी थी. फिल्म में गरीबी और कर्ज की विभीषिका झेल रहे किसान की भूमिका का अदाकार बलराज साहनी कलकत्ता पहुंचता है और जीविकोपार्जन के लिए एक इंसान होते हुए दूसरे इंसान को हाथरिक्शा के जरिए ढोने का काम करता है. कसावट से परिपूर्ण निर्देशन और बलराज साहनी के भावपूर्ण अभिनय ने मानवीय विवशता की पराकाष्ठा को बहुत संजीदगी से पेश किया था. वर्ष 1992 में प्रदर्शित और संजीदा अभिनय के लिए मशहूर ओम पुरी अभिनीत फिल्म ‘सिटी ऑफ जॉय’ हाथ रिक्शा चलानेवालों के जीवन दर्शन को दोहराती है. कोलकाता नगर निगम ने करीब छह हजार रिक्शा चालकों को परिचयपत्र देने की योजना बनायी है.

कोलकाता के मेयर शोभन चट्टोपाध्याय ने कहा कि हम शहर के रिक्शा चालकों को परिचयपत्र जारी करने की योजना बना रहे हैं, ताकि उन्हें किसी प्रकार की प्रताड़ना का सामना न करना पड़े. साथ ही विभिन्न चरणों में इससे जुड़े लोगों को राेजगार का अवसर प्रदान कर इस पेशे से दूर करने की भी योजना बनायी गयी है. आॅल बंगाल रिक्शा एसोसिएशन के एक पदाधिकारी ने रिक्शा चालकों को परिचयपत्र दिये जाने की पहल का स्वागत किया और कहा कि यह एक स्वागत योग्य कदम है. हाथ रिक्शा पर प्रतिबंध लगाये जाने से हम अपनी जीविका के साधन को लेकर अनिश्चितता के माहौल में जी रहे हैं. अदालत ने हालांकि प्रतिबंध पर स्थगन दिया है, लेकिन हमारे लाइसेंस का नवीनीकरण नहीं किया गया है. उन्होंने कहा कि उन लोगों ने दीदी ( ममता बनर्जी ) को एक ज्ञापन दिया है और उम्मीद है कि कोई सकारात्मक परिणाम सामने आएगा. हाथ रिक्शा खींचने वालों के पुनर्वास के लिए काम कर रहे एक गैर सरकारी संगठन ने भी इन्हें परिचयपत्र दिए जाने की योजना का स्वागत किया है.

एनजीअो कार्यकर्ता कनक गांगुली ने कहा कि हाथ रिक्शा चालकों के लिए परिचयपत्र ही नहीं बल्कि जब तक उनके लिए वैकल्पिक रोजगार का अवसर पर प्रदान नहीं किया जाता, तब तक उनके लाइसेंसों का नवीनीकृत भी होना चाहिए, जिससे उनको पुलिस की प्रताड़ना सहना न पड़े.
ब्रिटिशकाल से है परंपरा : कलकत्ता (अब कोलकाता ) में हाथरिक्शा की विरासत ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रभाव से मिली है. ब्रिटिश काल में जब परिवहन व्यवस्था की कमी थी तो हाथ रिक्शा का प्रयोग यातायात के लिए किया जाता था, लेकिन आजादी के बाद भी यह प्रथा खत्म नहीं हुई. विभिन्न ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहरों वाले इस शहर के वासियों ने देर-सबेर ही महसूस किया कि पेट की भूख मिटाने के लिए हाथरिक्शा खींचते की मजबूरी किसी अमानवीयता से कम नहीं है.
इन इलाकों में चल रहे हाथरिक्शा : आज भी कोलकाता के पारंपरिक इलाके माने जाने वाले काॅलेज स्ट्रीट, कालीघाट, भवानीपुर, हॉग मार्केट, बउबाजार, श्यामबाजार, बालीगंज, बड़ाबाजार और अमहर्स्ट स्ट्रीट की गलियों में अभी हाथरिक्शा चलते हैं. हालांकि, कोलकाता के रहनेवाले लोग भी अब यहां इंसान को ही इंसान को ढोते देखने का पक्षधर नहीं है. वर्तमान में सत्तारुढ़ तृणमूल कांग्रेस सरकार ने भी इन हाथ रिक्शा को सड़कों और गलियों से हटाना शुरू कर दिया है.

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