गोरखालैंड आंदोलन > इतिहास के आइने में : 3 > लोग भूले नहीं हैं‍ 80 के दशक में मारकाट का दौर

सिलीगुड़ी: सुभाष घीसिंग के नेतृत्व में जीएनएलएफ भारत-नेपाल संधि 1950 को रद कराने की मांग कर रहा था. उनके अनुसार इसी संधि के चलते गोरखा लोगों को पूरे देश में नेपाल का नागरिक या विदेशी समझा जाता है. जबकि ये लोग खुद को भारतीय नेपाली या गोरखा के रुप में मान्यता दिये जाने के पक्ष […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 8, 2017 10:39 AM
सिलीगुड़ी: सुभाष घीसिंग के नेतृत्व में जीएनएलएफ भारत-नेपाल संधि 1950 को रद कराने की मांग कर रहा था. उनके अनुसार इसी संधि के चलते गोरखा लोगों को पूरे देश में नेपाल का नागरिक या विदेशी समझा जाता है. जबकि ये लोग खुद को भारतीय नेपाली या गोरखा के रुप में मान्यता दिये जाने के पक्ष में रहे हैं.

इसीलिये आंदोलनकारियों ने 27 जून 1986 को इस संधि के अनुच्छेद सात का जगह-जगह दहन करना शुरु किया. इस दौरान पुलिस की गोलीबारी में जीएनएलएफ के 23 समर्थकों की मौत हो गई, जबकि 50 के लगभग जख्मी हो गये. इसी दौरान कालिम्पोंग में एक सीआरपीएफ का जवान संघर्ष में मारा गया. वहीं, गुप्तचर विभाग के डीआईजी कमल कुमार मजुमदार गंभीर रुप से जख्मी हो गये. उन्हें तत्काल कोलकाता ले जाया गया. इसके बाद प्रशासन ने पार्वत्य क्षेत्र के तीनों महकमों में अनिश्चितकालीन कर्फ्यू लागू कर दिया. इसके साथ ही सुरक्षा व्यवस्था कड़ी कर दी गई. अपने समर्थकों की मौत के विरोध में जीएनएलएफ ने 108 घंटा पहाड़ बंद का आह्वान किया. प्रशासन ने एहतियाती कार्रवाई करते हुए सिलीगुड़ी-कालिम्पोंग-गंगतोक राजमार्ग सेना के हवाले कर दिया.

वहीं,सिलीगुड़ी-कर्सियांग-दार्जिलिंग राजमार्ग की सुरक्षा की कमान सीआरपीएफ और बीएसएफ ने संयुक्त रुप से संभाल ली. इतिहासकार शिव चटर्जी के अनुसार इसके बाद 29 जुलाई को पर्यटकों को लेकर सिलीगुड़ी से रवाना हुई एनबीएसटीसी की बस पर आंदोलनकारियों ने हमला बोल दिया जिससे बस बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गई. हालांकि इस दौरान कोई यात्री हताहत नहीं हुए. उसके बाद 29 जुलाई को दार्जिलिंग में फंसे पर्यटकों को एनबीएसटीसी की बस में कड़ी सुरक्षा के बीच सुरक्षित सिलीगुड़ी लाया गया जहां से उन्हें अपने अपने गंतव्य स्थलों को रवाना किया गया.

ऐसे ही गंभीर हालात में राज्य के मुख्यमंत्री ज्योति बसु तीन सप्ताह की यूरोप यात्रा पर रवाना हो गये. हालांकि उस समय ज्योति बसु को इसके लिये उनके राजनैतिक विरोधियों द्वारा कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा. अपनी यूरोप यात्रा पूरी करने के बाद मुख्यमंत्री ज्योति बसु 31 जुलाई को स्वदेश लौटे. उन्होंने एक अगस्त को सुभाष घीसिंग की गिरफ्तारी के आदेश दिये. तब तक सुभाष घीसिंग भूमिगत हो चुके थे. उनके कई कार्यकर्ता गिरफ्तार किये गये. आंदोलन को लेकर राज्य की सत्ताधारी पार्टी माकपा में गोरखालैंड राज्य को लेकर गहन आत्ममंथन चला. उसी के बाद पार्टी की पोलित ब्यूरो ने एक प्रस्ताव पारित कर दार्जिलिंग जिले के पार्वत्य क्षेत्र को स्वायत्त शासन देने पर अपनी मंजूरी दे दी.

21 सितंबर 1986 को दार्जिलिंग में माकपा और जीएनएलएफ के कार्यकर्ताओं के बीच संघर्ष में जीएनएलएफ का कार्यकर्ता मारा गया. उसके बाद शहर में दो रोज तक अघोषित बंद रहा. जनजीवन पूरी तरह से ठप हो गया. 23 सितंबर को जीएनएलएफ ने उनके कार्यकर्ताओं की हत्या के विरोध में 48 घंटा पहाड़ बंद का आह्वान किया. उसी दौरान विरोधी दलों के साथ संघर्ष के चलते हजारों माकपा और भाकपा समर्थकों ने सिलीगुड़ी और आसपास शरण ली. मोहन दुखुन और तुलसी भट्टराई यहीं आकर बस गये. राज्य सरकार ने इन विस्थापितों को सिलीगुड़ी के कंचनजंघा स्टेडियम में तत्काल रहने की व्यवस्था कराई.

11 अक्टूबर को बिजनबारी में माकपा और जीएनएलएफ के कार्यकर्ताओं के बीच संघर्ष में दोनों पक्षों से एक एक समर्थक की मौत हो गई. हालात को बेकाबू होते देख राज्य सरकार ने इलाके को सेना के हवाले कर दिया. इसके बाद 15 अक्टूबर से लेकर 20 अक्टूबर 1986 के बीच सिलीगुड़ी से पार्वत्य क्षेत्र के तीनों महकमों तक आने जाने वाले वाहनों को कड़ी सुरक्षा के बीच ले जाया जाता. इस दौरान समय समय पर पहाड़ की घाटियों में छिपे हुए जीएनएलएफ के उग्रवादी हमले भी करते. शिव चटर्जी बताते हैं कि यह दौर पहाड़ में अराजकता का दौर था. एक खास समुदाय को प्रताड़ित-उत्पीड़ित करने के अलावा पहाड़ में बसे अल्पसंख्यक समुदायों से जबरन वसूली और अपहरण की घटनाएं आम हो गईं थी. यही वह दौर था जब कालिम्पोंग के जुबली हाई स्कूल के प्रधान शिक्षक की निर्मम हत्या कर उनके सिर को पोल में टांग दिया गया था. आंदोलन के फरमान को दरकिनार करते हुए वाहन परिचालन के लिये एक चालक का गला काट दिया गया. यह घटना सिलीगुड़ी-कालिम्पोंग राजमार्ग पर हुआ था. पूरी तरह से दहशत का माहौल था. गोरखा समुदाय के लोग गुस्से में थे जबकि अन्य समुदायों के लोग डरे सहमे अपने घरों में दुबके हुए थे.

उसी दौरान बहुत से अल्पसंख्यक वर्ग के लोगों ने अपनी संपत्ति आदि बेचकर सिलीगुड़ी में अपना कारोबार स्थानांतरित कर लिया. व्यवसाय वाणिज्य के चौपट होने से पहाड़ों की रानी कहलाने वाली दार्जिलिंग उदास व दुखी रहने लगी. चारों तरफ मौत व अराजकता का बोलबाला था. प्रशासन ने पुलिस व सुरक्षा बलों को देखते ही उपद्रवियों को देखते ही गोली मारने का आदेश दे दिया. 26 अक्टूबर को दुधिया में माकपा के दो काडर मारे गये. इसकी प्रतिक्रिया में माकपा ने अगले ही दिन 24 घंटा व्यापी सिलीगुड़ी महकमा बंद का आह्वान किया.

जीएनएलएफ के गोरखालैंड राज्य के आंदोलन के दौरान माकपा के तकरीबन 222 काडर मारे गये थे. इस दौरान यदि अपवाद रहे तो माकपा के पूर्व नेता एवं पूर्व राज्य सभा सदस्य आरबी राई. उन्होंने उस दौर में मैदान नहीं छोड़ा. अपने ठोस जनाधार के चलते वे पहाड़ में टिके रहे और बाद में चलकर उन्होंने गोरखालैंड राज्य का समर्थन करते हुए माकपा से नाता तोड़ लिया और अपनी एक अलग पार्टी क्रांतिकारी मार्क्सवादी पार्टी यानी सीपीआरएम का गठन किया. आज पहाड़ में गोजमुमो के बाद यह पार्टी जनाधार वाली बड़ी पार्टी है. इस पार्टी ने वाममोर्चा शासनकाल में गोरखालैंड के समर्थन में पदयात्रा निकालने की योजना ली थी लेकिन किन्हीं कारणों से वह पदयात्रा स्थगित करनी पड़ी थी.

ज्योति बसु के यूरोप यात्रा की हर ओर हुई आलोचना : ऐसे ही गंभीर हालात में राज्य के मुख्यमंत्री ज्योति बसु तीन सप्ताह की यूरोप यात्रा पर रवाना हो गये. हालांकि उस समय ज्योति बसु को इसके लिये उनके राजनैतिक विरोधियों द्वारा कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा. अपनी यूरोप यात्रा पूरी करने के बाद मुख्यमंत्री ज्योति बसु 31 जुलाई को स्वदेश लौटे.

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