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गोरखालैंड आंदोलन इतिहास के आइने में : 8>> पहाड़ को पार कर डुआर्स तक फैली आंदोलन की आंच

सिलीगुड़ी: इस बार गोरखालैंड राज्य आंदोलन के जद में डुआर्स क्षेत्र भी रहा. चूंकि इसके कई चाय बागान इलाकों में गोरखा समुदाय के श्रमिकों व किसानों का निवास है. विशेष रुप से भारत-भूटान सीमावर्ती चामुर्ची और जयगांव क्षेत्र में गोरखा समुदाय की अच्छी खासी आबादी है. अस्सी के दशक से ही गोरखालैंड राज्य के आंदोलन […]

सिलीगुड़ी: इस बार गोरखालैंड राज्य आंदोलन के जद में डुआर्स क्षेत्र भी रहा. चूंकि इसके कई चाय बागान इलाकों में गोरखा समुदाय के श्रमिकों व किसानों का निवास है. विशेष रुप से भारत-भूटान सीमावर्ती चामुर्ची और जयगांव क्षेत्र में गोरखा समुदाय की अच्छी खासी आबादी है. अस्सी के दशक से ही गोरखालैंड राज्य के आंदोलन में डुआर्स को शामिल करने की आवाज उठती रही है. अपना राजनैतिक जनाधार बनाकर पहली बार विमल गुरुंग ने डुआर्स क्षेत्र को भी अपने आंदोलन के दायरे में लाने का प्रयास किया.

यह अलग बात है कि राजनैतिक और प्रशासनिक विरोध के चलते गोजमुमो को तरह तरह की बाधाओं का सामना करना पड़ा. डुआर्स में गोजमुमो को सबसे अधिक आदिवासी विकास परिषद की ओर से विरोध का सामना करना पड़ा. वहीं, कामतापुर राज्य की मांग करने वाले लोगों में प्रमुख रुप से राजवंशी समुदाय के लोगों ने गोरखालैंड में डुआर्स को शामिल किये जाने का विरोध किया.

हालांकि इसी मसले पर आदिवासी विकास परिषद दो गुटों में विभाजित हो गया. जॉन बारला गुट का 2008 के आंदोलन के प्रति परोक्ष समर्थन रहा. हालांकि बाद में वे भी गोरखालैंड के विरोध में आ गये. जबकि संगठन के दूसरे गुट के नेता और राज्य अध्यक्ष बिरसा तिर्की ने डुवार्स को शामिल किये जाने की किसी भी कोशिश का डट कर विरोध किया. वैसे यों कहें तो गोरखालैंड के मसले को लेकर ही आदिवासी विकास परिषद सुर्खियों में आयी. आदिवासी समुदाय धीरे धीरे छठी अनुसूची के आधार पर डुआर्स-तराई के लिए अलग से स्वायत्तशासन की मांग करने लगा है.

इसने डुआर्स में गोरखालैंड आंदोलन को कुछ हद तक कमजोर जरूर किया है. डुआर्स में आंदोलन का सबसे मुखर रूप सीमावर्ती सिप्चू में 8 फरवरी 2009 में दिखा, जब पुलिस फायरिंग में गोजमुमो के युवा मोरचा के तीन कार्यकर्ता मारे गये. इस दौरान एक पुलिसकर्मी भी आंदोलनकारियों के हमले में गंभीर रूप से जख्मी हुए थे. यह घटना तब घटी जब आंदोलनकारियों ने पुलिस बैरिकेड को तोड़ने की असफल कोशिश की.
(समाप्त)
घीसिंग को दागोपाप, तो गुरूंग को जीटीए
सुभाष घीसिंग की तरह विमल गुरुंग ने भी संकल्प लिया था कि वे 2010 तक गोरखालैंड राज्य लेकर रहेंगे. लेकिन क्या हुआ? आखिर में उन्हें भी राज्य सरकार ने गोरखा टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (जीटीए) नामक स्वायत्तशासी निकाय थमा दी. हालांकि डीजीएचसी से लेकर जीटीए तक के लंबे सफर में पहाड़ की जनता ने बहुत कुछ खोया लेकिन पाया क्या? यह सवाल भी बुद्धिजीवियों के जेहन में रह रह कर उठते हैं. जो व्यवस्था उन्हें दी गई उसका भी उपयोग पहाड़ के विकास में नहीं किया जा सका. पहाड़ की जनता की अवस्था आज भी जस की तस बनी हुई है.

राज्य सरकार के साथ लगातार टकराव
विमल गुरुंग ने भी राज्य सरकार पर जीटीए को समझौते के मुताबिक कई विभाग नहीं दिये जाने का आरोप लगाया. यहां तक कि यह मामला सुप्रीम कोर्ट भी पहुंचा. इस बीच बंगाल सरकार ने राज्य के अन्य हिस्सों की तरह पहाड़ में भी बांग्ला विषय को अनिवार्य कर एक नया मुद्दा विमल गुरुंग को दे दिया. जनता में इस नई व्यवस्था के प्रति नाराजगी को उन्होंने आंदोलन के लिये गोरखालैंड का लॉन्च पैड बनाकर मुहिम शुरु कर दी जो आज तक चल रहा है.
विकास बोर्ड बनाये जाने पर आपत्ति
गोजमुमो प्रमुख की सबसे बड़ी आपत्ति पहाड़ के विभिन्न जनजातियों के लिये राज्य सरकार के मातहत विकास बोर्ड के गठन को लेकर भी रही है. उन्होंने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर आरोप लगाया कि राज्य सरकार विकास बोर्ड के जरिये गोरखा समुदाय को विभाजित करना चाहती है. हालांकि लेप्चा, मंगर, तामंग और शेरपा विकास बोर्ड के जरिये ममता बनर्जी कुछ हद तक गोजमुमो के जनाधार में सेंध लगाने में कामयाब हो भी गईं थीं. इस बीच मिरिक नगरपालिका पर तृणमूल कांग्रेस का कब्जा होने से दलीय प्रमुख ममता बनर्जी ने समझा था कि शायद अब पहाड़ में उनके लिये मैदान साफ है. लेकिन यहीं पर उन्होंने राजनैतिक भूल की. गोरखालैंड राज्य के मसले पर एक बार फिर पहाड़ की जनता एकजुट हो गई. यह तथ्य इसी बात से साबित होता है कि बीते 29 अगस्त की सर्वदलीय बैठक में मुख्यमंत्री ने यह माना कि गोरखालैंड राज्य की मांग गोरखा समुदाय की भावना के साथ जुड़ा हुआ है. अब 12 सितंबर को सिलीगुड़ी में सर्वदलीय बैठक हुयी है. इसी बैठक से आंदोलन की दिशा व दशा तय हो सकती है.

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