पोइला बैशाख भूलती जा रही है युवा पीढ़ी
पंडित तरुण भट्टाचार्य पोइला बैशाख या बांग्ला नववर्ष का अर्थ है कि बंगाली संस्कृति, बंगाली खान-पान, बंगाली रीति-रिवाज और बंगाली गीत-संगीत. बंगाली भोजन में ‘पोस्तो’ ‘मोरलो माछ भाजा’ ‘संदेश’ ‘फोर’ (केला गाछ की सब्जी), ‘शुक्तो’ (मिक्स्ड वेजेटवल्स), ‘घंटो’ ( पालक साग व बरी की सब्जी), ‘कलाई दाल’ ‘माछेर मुंडो’ तथा ‘छेजरा’ (साग-पत्ता) आदि बंगाली भोजन […]
पंडित तरुण भट्टाचार्य
पोइला बैशाख या बांग्ला नववर्ष का अर्थ है कि बंगाली संस्कृति, बंगाली खान-पान, बंगाली रीति-रिवाज और बंगाली गीत-संगीत. बंगाली भोजन में ‘पोस्तो’ ‘मोरलो माछ भाजा’ ‘संदेश’ ‘फोर’ (केला गाछ की सब्जी), ‘शुक्तो’ (मिक्स्ड वेजेटवल्स), ‘घंटो’ ( पालक साग व बरी की सब्जी), ‘कलाई दाल’ ‘माछेर मुंडो’ तथा ‘छेजरा’ (साग-पत्ता) आदि बंगाली भोजन पोइला बैशाख का खाना था. लाल वस्त्र में लिपटा नया खाता, फूल-पल्लव, सिद्धि (भांग) और रजत मुद्रा के साथ ठाकुर की पूजा करना और मंगलमय और समृद्ध नव वर्ष की कामना आज भी बंगाली व्यावसायियों की पंरपरा है, लेकिन यह पंरपरा केवल अब कर्मकांड तक ही सीमित रह गयी है, लेकिन युवा पीढ़ी पोइला बैशाख और बंगाली संस्कृति को भूलते जा रही है.
पोइला बैशाख मनाने का स्वरूप बदला है. डिजिटल क्रांति के साथ-साथ अब केवल बंगाल ही नहीं, वरन देश का कोई भी राज्य या गांव एक ग्लोबल विलेज में परिणत हो गया है और इसके साथ ही हमारी संस्कृति जो हमारी यूएसपी हुआ करती थी, वह इस ग्लोबल कल्चर में धुंधली पड़ती जा रही है. पोइला बैशाख में बंगाली संस्कृति के साथ-साथ अन्य संस्कृतियों का भी मिलन हुआ है. केवल खान-पान ही नहीं बदले हैं, वरन हमारे रहन-सहन और परिधान भी बदले हैं. धोती-कुर्ता हमारा परिधान था, लेकिन आज शायद ही कोई बंगाली धोती-कुर्ता में दिखायी देता है. धोती कुर्ता का इस्तेमाल केवल शादियों में ही होता है. इसी तरह से पोइला बैशाख या बंगाल कलेंडर अब केवल शादी-विवाह, धार्मिक अनुष्ठान या पूजन के समय ही प्रयोग किये जाते हैं. चाहे आप हो या हम अब कोई भी कार्यक्रम जो हमारे पेशा से जुड़ा है या जीवन के अन्य पहलू से जुड़ा है, उन्हें हम बंगाली कलेंडर के अनुसार तय नहीं करते हैं. यदि कोई मुझे ही कहे कि अषाढ़ द्वितीया को मेरा कार्यक्रम करना चाहते हैं. मेरे लिए यह मुश्किल होगा कि अषाढ़ द्वितीया कब होगी. उन्हें मुझे अंग्रेजी कलेंडर की तारीख बतानी होगी, तभी मैं यह तय कर पाऊंगा कि उस तिथि को मेरी उपलब्धता क्या है? आज का अंग्रेजी कलेंडर हमारी जरूरत बन गया है. युवा पीढ़ी कोएक जनवरी का सेलेब्रेशन याद है. 25 दिसंबर को क्रिसमस डे का सेलेब्रेशन याद है, लेकिन पोइला बैशाख के उत्सव को लेकर शायद अब उनके मन में उतना जोश नहीं है, जितना पहले की युवा पीढ़ी में हुआ करती थी.
अब केवल टीवी कार्यक्रमों में ही पोइला बैशाख को लेकर कार्यक्रम या सजगता देखने को मिलती है. अब पोइला बैशाख के दिन घरों से बंगाली पकवान गायब हो चुके हैं और बंगाली परिधान कब का बंगाली परिवार भूल चुका है. पहले प्रत्येक घरों में बंगाली पंजिका होती थी, लेकिन अब शायद ही किसी घर में बंगाली पंजिका मिल जाये. यदि कोई कलैंडर होता भी है, तो वह अंग्रेजी और बंगाली के छोटे-छोटे शब्द उनके नीचे लिखे मिलेंगे. नृत्य और संगीत बंगालियों को विरासत में मिली है, लेकिन अब ये भी लुप्त होता जा रहा है. शास्त्रीय और रवींद्र संगीत की जगह कानफोड़ू संगीत अपना स्थान लेता जा रहा है. अब पर्व केवल अनुष्ठान और यादों का पर्व रह गया है, लेकिन बचपन में गुजारे गये पोइला बैशाख की यादें अभी भी जेहन में जिंदा है और उन यादों के सहारे पोइला बैशाख और बंगाली संस्कृति को पुनर्जीवित करने की आस की बांट सजोये हूं और उम्मीद है कि फिर से युवा पीढ़ी बंगाली संस्कृति की ओर लौटेगी और शास्त्रीय संगीत और गीत, जो हमारी पहचान है, उसे अपनायेगी, लेकिन इसके लिए समाज को और सरकार को भी आगे होना होगा, ताकि केवल बंगाली संस्कृति ही नहीं, वरन पूरी भारतीय संस्कृति पर लग रहे ग्रहण से रक्षा की जा सके. समाज और हमारे गीत-संगीत पर पड़ रहे पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव को बचाया जा सके.
(अजय विद्यार्थी से बातचीत पर आधारित)