डॉ अमरनाथ
कोलकाता : हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ( 1869-1948 ) ने आजाद भारत का जो सपना देखा था और उस सपने को साकार करने के लिए जो मार्ग सुझाया था, हम उस मार्ग से भटकते-भटकते विपरीत दिशा की ओर मुड़ गये और धीरे-धीरे चलते हुए इतनी दूर पहुंच चुके हैं कि अब तो उधर लौटना एक सपना देखना भर रह गया है. आज हम गांधीजी की उस ‘शैतानी सभ्यता’ की ओर बेतहासा भाग रहे हैं, जिससे दूर रहने के लिए उन्होंने हमें बार-बार आगाह किया था.
गांधीजी ने हिंदी के आंदोलन को आजादी के आंदोलन से जोड़ दिया था. उनका ख्याल था कि देश जब आजाद होगा तो उसकी एक राष्ट्रभाषा होगी और वह राष्ट्रभाषा ‘हिंदुस्तानी’ होगी क्योंकि वह इस देश की सबसे ज्यादा लोगों द्वारा बोली और समझी जानेवाली भाषा है. गांधीजी द्वारा प्रस्तावित यह हिंदुस्तानी कोई नयी वस्तु नहीं थी. हिंदी का पहला व्याकरण हालैंड निवासी जॉन जोशुआ केटलर द्वारा डच भाषा में 1698 ई. में लिखा गया था, जिसका शीर्षक है, ‘हिंदुस्तानी ग्रामर’.
बेंजामिन शुल्जे द्वारा लैटिन में लिखा गया और 1745 ई. में प्रकाशित ग्रंथ का नाम है, ‘ग्रामेटिका हिंदोस्तानिका’. जॉन फार्गुसन की पुस्तक है ‘ए डिक्शनरी आफ द हिंदुस्तानी लैंग्वेज,’ (1773 ई.) और जॉन गिलक्रिस्ट के व्याकरण ग्रंथ का नाम है, ‘ए ग्रामर आफ द हिंदुस्तानी लैंग्वेज’ (1790 ई.). गार्सां द तासी द्वारा लिखित तथाकथित हिंदी साहित्य का पहला इतिहास वास्तव में हिंदुई और हिंदुस्तानी साहित्य का इतिहास है.इससे भी पहले सन् 1800 में कलकत्ता में जो फोर्ट विलियम कॉलेज बना था, उसमें भी हिंदुस्तानी विभाग खुला था, जिसके पहले अध्यक्ष जॉन गिलक्रिस्ट थे. जॉन गिलक्रिस्ट के अनुसार उस समय हिंदुस्तानी ही “द ग्रैंड पॉपुलर स्पीच ऑफ हिंदुस्तान” थी.
पता नहीं, गांधीजी को हिंदुस्तानी के इस इतिहास की जानकारी थी या नहीं, किन्तु अपने अनुभवों से वे भली-भांति समझ चुके थे कि इस देश की एकता को कायम रखने में हिंदुस्तानी बड़ी भूमिका अदा कर सकती है. खेद है कि संविधान सभा में होनेवाली बहस के पहले ही गांधीजी की हत्या हो गयी और देश का विभाजन हो गया. इन परिस्थितियों का गंभीर प्रभाव संविधान सभा की बहसों पर पड़ा. हिंदुस्तानी और हिंदी को लेकर सदन दो हिस्सों में बंट गया और बहुमत के आधार पर हिंदी को संघ की राजभाषा तय कर दिया गया.
आज सत्तर वर्ष बाद जब हम संविधान सभा के उक्त निर्णय के प्रभाव का मूल्यांकन करते हैं तो हमें लगता है कि हिंदी को इसके लिए बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है. दक्षिण के हिंदी विरोध का मुख्य कारण यही है. जो लोग पहले गांधीजी के प्रभाव में आकर हिंदी का प्रचार कर रहे थे, वे ही बाद में हिंदी के विरोधी हो गये. वैसे भी हिंदुस्तानी कहने से जिस तरह व्यापक राष्ट्रीयता और सामाजिक समरता का बोध होता है, उस तरह हिंदी कहने से नहीं. इस शब्द में न तो क्षेत्रीयता की गंध है और न जाति-धर्म की संकीर्णता की.
यदि हिंदुस्तानी को राजभाषा के रूप में स्वीकृति मिल गयी होती तो उर्दू का झगड़ा सदा के लिए खत्म हो गया होता.निश्चित रूप से हिंदुस्तानी की जगह हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया जाना एक बड़ी ऐतिहासिक भूल थी. हिंदी भाषा के स्वरूप की व्याख्या करते हुए गांधीजी ने कहा था, “हिंदी भाषा मैं उसे कहता हूं, जिसे उत्तर में हिंदू और मुसलमान बोलते हैं और देवनागरी या फारसी (उर्दू) लिपि में लिखते हैं. ऐसी दलील दी जाती है कि हिंदी और उर्दू दो अलग-अलग भाषाएं हैं. यह दलील सही नहीं है.
उत्तर भारत में मुसलमान और हिंदू एक ही भाषा बोलते हैं. भेद पढ़े लिखे लोगों ने डाला है….. मैं उत्तर में रहा हूं, हिंदू-मुसलमानों के साथ खूब मिला जुला हूं और मेरा हिंदी भाषा का ज्ञान बहुत कम होने पर भी मुझे उन लोगों के साथ व्यवहार रखने में जरा भी कठिनाई नहीं हुई है. जिस भाषा को उत्तरी भारत में आम लोग बोलते हैं, उसे चाहे उर्दू कहें चाहे हिंदी, दोनों एक ही भाषा की सूचक हैं. यदि उसे फारसी लिपि में लिखें तो वह उर्दू भाषा के नाम से पहचानी जाएगी और नागरी में लिखें तो वह हिंदी कहलायेगी.”
गांधीजी चाहते थे कि बुनियादी शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक सब कुछ मातृभाषा के माध्यम से हो. दक्षिण
अफ्रीका प्रवास के दौरान ही उन्होंने समझ लिया था कि अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा हमारे भीतर औपनिवेशिक
मानसिकता बढ़ाने की मुख्य जड़ है. ‘हिंद स्वराज’ में ही उन्होंने लिखा कि, “करोड़ों लोगों को अंग्रेजी शिक्षण देना उन्हें गुलामी मे डालने जैसा है. मैकाले ने जिस शिक्षण की नींव डाली, वह सचमुच गुलामी की नींव थी. उसने इसी इरादे से वह योजना बनायी, यह मैं नहीं कहना चाहता, किंतु उसके कार्य का परिणाम यही हुआ है. हम स्वराज्य की बात भी पराई भाषा में करते हैं, यह कैसी बड़ी दरिद्रता है? ….. अंग्रेजी शिक्षण से दंभ- द्वेष अत्याचार आदि बढ़े हैं. अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों ने जनता को ठगने और परेशान करने में कोई कसर नहीं रखी. भारत को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेजी जाननेवाले लोग ही हैं. जनता की हाय अंग्रेजों को नहीं हमको लगेगी.” अपने अनुभवों से गांधीजी ने निष्कर्ष निकाला था कि, “अंग्रेजी शिक्षा के कारण शिक्षितों और अशिक्षितों के बीच कोई सहानुभूति, कोई संवाद नहीं है. शिक्षित समुदाय, अशिक्षित समुदाय के दिल की धड़कन को महसूस करने में असमर्थ है.”
‘यंग इंडिया’ में उन्होंने लिखा है, “अगर मेरे हाथों में तानाशाही सत्ता हो तो मैं आज से ही हमारे लड़के और लड़कियों की विदेशी माध्यम के जरिये शिक्षा बंद कर दूं और सारे शिक्षकों और प्रोफेसरों से यह माध्यम तुरंत बदलवा दूं या उन्हें बरखास्त कर दूं. मैं पाठ्यपुस्तकों की तैयारी का इंतजार नहीं करूंगा. वे तो माध्यम के परिवर्तन के पीछे-पीछे चली आयेंगी.”
क्या गांधीजी की डेढ़ सौवीं जयंती वर्ष के अवसर पर हम उनके सुझावों पर पुनर्विचार करेंगे ?
( लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर व हिंदी विभागाध्यक्ष हैं.)