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जादवपुर यूनिवर्सिटी: कभी कैंपस में ही कुलपति की हुई थी हत्या, आज तक नहीं चल पाया हत्यारों का पता

-30 दिसंबर 1970 को तत्कालीन कुलपति गोपाल चंद्र सेन का विवि परिसर में तालाब के पास मिला था शवकोलकाता : जादवपुर यूनिवर्सिटी में केंद्रीय मंत्री बाबुल सुप्रियो पर हुए हमले ने एक बार फिर यहां के हिंसा की राजनीति के चरित्र को उजागर किया था. जेयू में हिंसा की राजनीति कोई नयी बात नहीं है. […]

-30 दिसंबर 1970 को तत्कालीन कुलपति गोपाल चंद्र सेन का विवि परिसर में तालाब के पास मिला था शव
कोलकाता : जादवपुर यूनिवर्सिटी में केंद्रीय मंत्री बाबुल सुप्रियो पर हुए हमले ने एक बार फिर यहां के हिंसा की राजनीति के चरित्र को उजागर किया था. जेयू में हिंसा की राजनीति कोई नयी बात नहीं है. 70 के दशक में नक्सल आंदोलन के शुरुआती दौर में पश्चिम बंगाल के विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों में पढ़ने वाले छात्रों के बीच हिंसा के सहारे सत्ता परिवर्तन का दौर शुरू हो चुका था. सत्ता परिवर्तन का नारा देने वाले नक्सली गांव खेतों से निकल कर महानगर कोलकाता के उच्च शैक्षणिक संस्थानों तक पहुंच चुके थे. किताबें रखने वाले बैग में पिस्तौल बम रखे जाते थे.

कॉलेज पाड़ा से दूर महानगर के जादवपुर विश्वविद्यालय की कमान उस समय गांधीवादी प्रोफेसर गोपाल चंद्र सेन के पास थी. वे विश्वविद्यालय के कुलपति थे. जादवपुर विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति गोपाल चंद्र सेन पर जान का खतरा मंडरा रहा था, लेकिन गांधीवादी कुलपति को उन पर मंडराते खतरे की कोई परवाह नहीं थी. आखिर में विश्वविद्यालय के परिसर में ही कुलपति की हत्या कर दी गयी. गौरतलब है कि उस समय विश्वविद्यालय में नक्सली, माओवादी, चरम वामपंथी सक्रिय थे, जो विश्वविद्यालय की इंजीनियरिंग विभाग की परीक्षाएं नहीं होने देने पर आमादा थे. कुलपति गोपाल चंद्र सेन ने परीक्षाएं कराने का बीड़ा उठाया. उनका मानना था कि जो छात्र परीक्षाएं देना चाहते हैं, उनके लिए परीक्षा आयोजित करनी ही होगी. उनके नेतृत्व में परीक्षाएं हुईं और उनके नतीजे भी तैयार किये गये. पूजा की छुट्टियां शुरू वाली थीं, इसलिए कुलपति निवास से ही प्रोविजनल सर्टिफिकेट वितरण किया जाने लगा. लेकिन यह सब विश्वविद्यालय में चरम वामपंथियों को कहां पसंद आने वाला था.

बातें शुरू हुईं तो कुलपति तक खबर भी आयी कि उनकी जान को खतरा है. लेकिन गांधी जी के साथ 1930 के दशक से जुड़े गोपाल चंद्र दास ने किसी तरह की सुरक्षा व्यवस्था लेने से इंकार कर दिया. यहां तक की वे कुलपति को मिलने वाली सहूलियत भी नहीं लेते थे और ना ही वाहन का प्रयोग नहीं करते थे. आवास से कार्यालय पैदल आना जाना करते थे.

कार्यकाल के आखिरी दिन ही गयी थी जान
30 दिसंबर 1970 का दिन था. यह उनके कुलपति के कार्यकाल का आखिरी दिन भी था. आखिरी फाइल साइन कर शाम साढ़े बजे वह कार्यालय से आवास के लिए निकले, परिसर के तालाब के पास ही उनकी हत्या कर दी गयी. हत्या किसने की, क्यों की, यह अब तक पता नहीं चल पाया. हत्या का आरोप उस समय के चरम वामपंथियों पर लगा, लेकिन न कोई सबूत मिला और न गवाह. आज तक उनके हत्यारों का पता नहीं चल पाया है.

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