कोलकाता: बोली और पहचान का संकट विषयक दो दिवसीय सेमिनार के मंगलवार को समापन भाषण में प्रो. मैनेजर पांडेय ने बोली और भाषा पर आयोजित इस सेमिनार को सार्थक और एक जरूरी अभियान बताया. उन्होंने कहा कि भारतीय सभ्यता और साहित्य में हमेशा लोक साहित्य को महत्व दिया गया है. वैदिक संस्कृति जहां वर्चस्व की संस्कृति है, वहीं लोक साहित्य प्रतिरोध का वैदिक संस्कृति ने बोलियों को काफी नुकसान पहुंचाया है . इसने एक अभिजात्यवादी दृष्टि पैदा की. आज के सत्रों में प्रो चंद्रकला पांडेय, प्रो. शिवनाथ पांडेय, प्रो. विकास कांति मीदिया, डॉ वैभव सिंह , डॉ. अजय कुमार साव, डॉ. अदिति घोष, डॉ. मधुरा साम्कांत दामले और प्रो. इप्शिता चन्दा ने उपरोक्त विषय पर विचार रखे. वक्ताओं ने कहा कि हर भाषा की समृद्धि उसकी बोली हैं. लेकिन हिंदीवालों ने बोलियों को बचाने की दिशा में सकारात्मक प्रयास नहीं किया. बोलियों का अस्तित्व भावनात्मक एकता के लिए जरूरी है .भोजपुरी सहित भारत की सभी बोलियों का नये सिरे से भाषाई विकास हो रहा है. अंग्रेजी को साथी भाषा के रूप में ही अपनाना चाहिए न कि अतिरिक्त वर्चस्व का. अपने धन्यवाद ज्ञापन में संयोजक प्रो तनुजा मजुमदार ने इस सेमिनार को एतिहासिक महत्व का बताते हुए इसे प्रेसीडेंसी की परम्परा से जोड़ा. सेमिनार के समन्वयक डा. ऋ षिभूषण चौबे ने कहा कि यह सेमिनार अपने उद्देश्य में सफल रहा है . श्रोताओं एवं वक्ताओं ने पूरे मनोयोग से इसमें भाग लिया . 14 आलेख पढ़े गये.
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बोली व पहचान का संकट पर संगोष्ठी संपन्न
कोलकाता: बोली और पहचान का संकट विषयक दो दिवसीय सेमिनार के मंगलवार को समापन भाषण में प्रो. मैनेजर पांडेय ने बोली और भाषा पर आयोजित इस सेमिनार को सार्थक और एक जरूरी अभियान बताया. उन्होंने कहा कि भारतीय सभ्यता और साहित्य में हमेशा लोक साहित्य को महत्व दिया गया है. वैदिक संस्कृति जहां वर्चस्व की […]
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