हावड़ा. उनके जीवन में अभावों की काली छाया बरकरार है. दीवाली भी उनके जीवन में प्रकाश नहीं ला सकता. बात हो रही है पटाखा मजदूरों की. वर्ष भर दीवाली की बाट जोहनेवाले पटाखा मजदूरों की जीवनलीला भी पटाखा बनाते कभी-कभी असमय काल के गाल में समा जाती हैं.
हावड़ा के उलूबेड़िया स्थित मालपाड़ा में पटाखा बनाने वाले मजदूरों का दर्द भरी दासता भी कुछ ऐसी ही है. मूर्ति बनानेवालों के प्रति सरकार सक्रिय तो है साथ ही कई कुटीर उद्योग चलानेवालों को सरकार की ओर कुछ राहत मिल ही जाती है, लेकिन इनका दर्द बांटनेवाला कोई नहीं है. दीवाली के दिन जब प्रकाश बिखारने वाले पटाखों से लेकर आवाज करनेवाले पटाखे लोगों के जीवन में खुशियां भर देता है, तो उस दिन भी उलूबेड़िया मालपाड़ा के पटाखा मजदूर लालटेन की रोशनी में अपनी झोपड़ी में अगली सुबह की प्रतिक्षा करता रहता है.
राष्ट्रीय राजमार्ग 6 से सटे उलूबेड़िया में एक छोटा-सा ग्राम है मालपाड़ा. गरीबों की इस बस्ती में अल्पसंख्यकों की बहुलता है. कोई रिक्सा चलाकर अपना जीवन गुजरता है तो कोई पटाखा बनाकर किसी तरह अपने परिवार को भरण-पोषण करता है. यहां रहनेवाले कुल आबादी का मात्र पांच फीसदी पटाखा बनाने का काम करते हैं. पांच माह पहले से ही पटाखा बनाने के काम में वे जुट जाते हैं, यह सोचकर कि इस बार महाजन का उधार मिट जाएगा, लेकिन ऐसा होता नहीं. उधार द्रौपदी की साड़ी की तरह बढ़ती ही जाती है. सरकार की ओर से आवाज करनेवाले पटाखों पर प्रतिबंध लगाने के बाद भी यहां चोरी छिपे आवाजा करनेवाले पटाखों का निर्माण किया जाता है.
पटाखा मजदूर मशदुल अहमद का कहना है कि पूरे वर्ष भर उनका परिवार रंग-बिरंगे तथा कीमती पटाखों का निर्माण करता है, और जब उसकी बिक्री होती है तो उससे आय होनेवाली रकम को महाजन ले जाता है. हाथ कुछ नहीं आता. दिवाली के अलावे कभी कभार शादी ब्याह में भी उनके पटाखों की बिक्री हो जाती है, जिससे एक बेला का जुगाड़ हो जाता है. शेख आलताब का कहना है कि महाजन से पैसा लेने के लिए उन्हें बर्तन तक गिरवी रखना पड़ता है.
और पटाखा बेचने के बाद जब पैसे की आय होती है तो महाजन पहले से ही रुपए लेने के लिए हाजिर रहता है. सिर्फ बड़े ही नहीं छोटे-छोटे बच्चों का जीवन भी दांव पर लगा रहता है. चारों ओर बारूद की ढेर है और अपने छोटे हाथों में बच्चे जब मिट्टी के छोटे भाड़ में उस बारूद को भरते हैं तो उसके अंश फेफड़ों में अपना घर बनाते रहते है और इन सब बातों से अन्जान बच्चे पटाखा बनाने के काम में मगन रहते है. शेख महसीन, शेख सज्जाद, तसलीमा बेगम सहित कई एेसे पटाखा मजदूर हैं जिनका परिवार पटाखा बनाने के काम में लिप्त है. उन्हें हर वर्ष दीवाली का इंतजार रहता है यह सोचकर कि इस बार उनका जीवन प्रकाश से भर उठेगा, लेकिन दीवाली भी उनके जीवन में व्याप्त अंधकार को दूर करने में असमर्थ होता है.