महानगर में प्रवासी मजदूरों की हालत खस्ता
देश के दूसरे महानगरों की तरह महानगर में भी लाखों प्रवासी मजदूर लॉकडाउन के कारण फंस गये हैं. इनमें से कोई मोटिया मजदूर के तौर पर माल ढुलाई का काम करता था तो कोई हाथ रिक्शा चला कर परिवार का पेट पालता था. इन लोगों के पास एक सप्ताह से ना तो कोई काम है और ना ही कमाई. खाने के भी लाले पड़े हैं. स्थिति ऐसी है कि वे अब अपने गांव भी नहीं जा सकते.
कोलकाता : देश के दूसरे महानगरों की तरह महानगर में भी लाखों प्रवासी मजदूर लॉकडाउन के कारण फंस गये हैं. इनमें से कोई मोटिया मजदूर के तौर पर माल ढुलाई का काम करता था तो कोई हाथ रिक्शा चला कर परिवार का पेट पालता था. इन लोगों के पास एक सप्ताह से ना तो कोई काम है और ना ही कमाई. खाने के भी लाले पड़े हैं. स्थिति ऐसी है कि वे अब अपने गांव भी नहीं जा सकते. केंद्र सरकार ने हालांकि राज्य सरकारों से प्रवासी मजदूरों के सामूहिक पलायन पर अंकुश लगाने और ऐसे लोगों की मदद करने को कहा है, लेकिन पेट की आग के आगे भला सरकारी निर्देशों की परवाह कौन करता है.
देश के दूसरे शहरों की तरह कोलकाता के सैकड़ों मजदूर भी पैदल या साइकिल से ही बिहार और झारखंड स्थित अपने गांवों के लिए रवाना हो गये हैं, लेकिन अब भी लाखों लोग यहां फंसे लॉकडाउन के खत्म होने का इंतजार कर रहे हैं. कोलकाता में बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड और ओडीशा जैसे पड़ोसी राज्यों के मजदूर बड़ी तादाद में रहते और काम करते हैं.
इनमें से कोई एशिया में खाद्यान्नों की सबसे बड़ी मंडी बड़ाबाजार में सिर पर या रिक्शा वैन से सामान ढोने का काम करता है तो कोई हाथ रिक्शा खींचता है. कोरोना वायरस के आतंक के बाद लॉकडाउन की वजह से उन सबकी कमाई ठप हो गयी है. अब यह लोग पाई-पाई को मोहताज हो गये हैं. आलम यह है कि इन लोगों को परिवार समेत किसी स्वयंसेवी संस्था या सरकार की ओर से बांटे जाने वाले खाने के पैकेट के लिए लंबी लाइन लगानी पड़ रही है. वह भी रोज नहीं मिल पाता.
बिहार के दरभंगा से यहां आकर मोटिया मजदूर के तौर पर काम करने वाले रामदीन का कहना है कि पहले वह रोजाना पांच से छह सौ रुपये तक कमा लेता था, लेकिन बीते दो सप्ताह से एक ढेले की भी कमाई नहीं हुई है. कोलकाता के बड़ाबाजार इलाके में हाथ रिक्शा खींचनेवाले मंगी दुसाध बताते हैं कि दो सप्ताह से कमाई लगभग ठप है, लेकिन पेट तो मानता नहीं है.
अब तो जमा पूंजी भी लगभग खत्म हो गयी है. पता नहीं आगे क्या होगा. ऐसे प्रवासी मजदूर समूहों में एक साथ रहते हैं. यह लोग हर महीने अपने किसी न किसी साथी के हाथ अपने गांव पैसे भेज देते हैं ताकि वहां परिवार की रोजी-रोटी चलती रहे. अब कमाई बंद होने से यहां इनके सामने खाने-पीने का संकट है तो गांव में रहने वाले परिजनों के सामने भी भूख की समस्या गंभीर होती जा रही है.
वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक, कोलकाता में बाहरी राज्यों के प्रवासी मजदूरों की तादाद 3.90 लाख थी. अब यह तादाद पांच लाख से ऊपर होने का अनुमान है. इनमें से लगभग 50 फीसदी बिहार के हैं और 28 फीसदी उत्तर प्रदेश, झारखंड और ओडिशा जैसे पड़ोसी राज्यों के रहनेवाले हैं. पोस्ता मर्चेंट्स एसोसिएशन के पदाधिकारी ने कहा कि सीमित समय के लिए बाजार खुला है, लेकिन लॉकडाउन के चलते पुलिस के डर से वह लोग अपने घरों से बाहर ही नहीं निकल रहे हैं.
बिहार-यूपी के प्रवासी मजदूरों का पसंदीदा ठिकाना है कोलकाता
वहीं, राजनीतिक पर्यवेक्षक विश्वनाथ चक्रवर्ती का कहना है कि बिहार और उत्तर प्रदेश से प्रवासी मजदूरों के कोलकाता आने का जो सिलसिला 19वीं सदी के मध्य में शुरू हुआ था वह अब भी जस का तस है. अर्थशास्त्री अभिरूप सरकार इसकी वजह बताते हैं. वह कहते हैं कि यहां कमाई ज्यादा है और यह शहर दूसरे महानगरों के मुकाबले काफी सस्ता है.
ऐसे में मजदूर अधिक से अधिक रुपये बचा कर गांव भेज सकते हैं. इसी आकर्षण की वजह से प्रवासी मजदूरों के लिए सदियों से कोलकाता एक पसंदीदा ठिकाना रहा है. कोरोना की वजह से फैले आतंक और लंबे लॉकडाउन के चलते अब ऐसे लाखों लोग आशा और निराशा के भंवर में फंसे हैं. उनको पता नहीं है कि आखिर ऐसी हालत कब तक बनी रहेगी और हालात में सुधार होने तक उनकी सांसें साथ देंगी या नहीं?