राज्य की राजनीति से लगातार दूर हो रहे वामपंथी
इस बार के लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद सवाल उठ रहे हैं कि क्या बंगाल की राजनीति से वामपंथी दूर होते जा रहे हैं.
कोलकाता. इस बार के लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद सवाल उठ रहे हैं कि क्या बंगाल की राजनीति से वामपंथी दूर होते जा रहे हैं. पश्चिम बंगाल में 34 साल तक सत्ता में रहने के बावजूद खाता नहीं खोल पाने वाली माकपा, राजस्थान में किसान नेता आमरा राम को संसद में भेजने में सफल रही. वहीं, माकपा को केरल से दो और तमिलनाडु से एक सीट का इजाफा हुआ है. लेकिन बंगाल में जनता ने वामपंथियों को इस कदर नकारा कि महज दो सीट पर ही पार्टी अपनी जमानत बचा पायी. केवल एक सीट पर माकपा दूसरे नंबर रही, नहीं तो सभी सीटो पर उसे तीसरे नंबर की पार्टी बनकर रहना पड़ा. अगर वोटों का शेयर देखा जाये, तो पंचायत चुनाव में माकपा को अकेले 14 फीसदी वोट मिला था. गठबंधन को कुल 22.5 फीसदी वोट मिला था. वहीं, इस बार के लोकसभा चुनाव में कुल वोटों का प्रतिशत पांच पर पहुंच गया. हालांकि चुनाव जीतने के लिए माकपा ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी. राज्य सचिव मोहम्मद सलीम, केंद्रीय कमेटी के सदस्य सुजन चक्रवर्ती, युवा नेता दीप्सिता धर व सृजन भट्टाचार्य जैसे युवा चेहरों के साथ हेवीवेट नेताओं को मैदान में उतारा गया था. लेकिन सफलता नहीं मिली. बकौल मोहम्मद सलीम जैसे पूरे देश में लोगों का हिसाब नहीं मिला, उसी तरह पश्चिम बंगाल में भी हिसाब नहीं मिला. माकपा के वरिष्ठ नेता शमिक लाहिड़ी, जो केंद्रीय कमेटी के सदस्य भी हैं, ने कहा कि हार के कारणों को जानना होगा. राज्य में एक तरफ भाजपा की सांप्रदायिक के खिलाफ माहौल था, तो दूसरी ओर भ्रष्टाचार और अत्याचार के खिलाफ ममता बनर्जी के खिलाफ भी लोगों में नाराजगी थी. बावजूद इसके लोगों ने ममता बनर्जी पर ही भरोसा क्यों जताया? यह जानना बेहद जरूरी है. दक्षिण बंगाल में तृणमूल अभी भी अपनी पकड़ बनाये हुए है, जबकि उत्तर बंगाल में भाजपा ने अपनी दावेदारी बरकरार रखी. लेकिन तृणमूल कांग्रेस सेंधमारी करने में सफल रही. इतना ही नहीं, जहां तृणमूल कांग्रेस नहीं जीती, वहां वह दूसरे नंबर पर रही. राज्य में राजनीतिक समीकरण दो खेमे में बंटकर रह गया. इसमें वामपंथियों के लिए जगह नहीं बच रही है. वामपंथी जानकारों का मानना है कि पिछले 10 वर्षों में राज्य की राजनीति का ध्रुवीकरण हुआ है. अल्पसंख्यक के साथ साॅफ्ट हिंदुत्व का मोर्चा ममता बनर्जी संभाल रही हैं, तो भगवा परचम लहराते हुए भाजपा अपनी दावेदारी बहुसंख्यक समाज की कर रही है. ऐसे में वामपंथियों को फिर से अपनी खोई पहचान हासिल करने के लिए आंदोलन का रास्ता अख्तियार करना होगा. उदाहरण उत्तर प्रदेश का है. वहां पर सपा ने साफ कहा कि उसके मुद्दे रोजी और रोजगार हैं, जिसे उठाने में उसे सफलता भी मिली. यही हाल भाकपा माले का है. उसने बिहार के आरा व काराकट में भाजपा को सीधी टक्कर में हरा कर जीत हासिल की. उसका मुद्दा भी एक ही रहा. माकपा के एक वरिष्ठ नेता के मुताबिक आम जनता ने उन्हें नहीं समझा. बंगाल ””””भिक्षा नहीं-शिक्षा चाहता है”””” का वामपंथियों का नारा भी लोगों ने नहीं स्वीकारा. यही वजह है कि लोगों ने वामपंथियों को नकार दिया.
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