Lok Sabha Election 2024 : बंगाल में सरना धर्म कोड भी चुनाव मुद्दा, 12 लोकसभा सीटों पर हार-जीत का फैसला करेंगे आदिवासी

पश्चिम बंगाल, झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में आदिवासियों की लंबे समय से मांग उठती रही है कि उन्हें अलग धर्म के तौर पर मान्यता दी जाए.

By Kunal Kishore | May 5, 2024 6:49 PM
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Lok Sabha Election 2024 : कोलकाता, अमर शक्ति : सरना धर्म कोड पश्चिम बंगाल के लोकसभा चुनाव में भी चुनावी मुद्दा बन गया है. वजह है झारखंड मूल के आदिवासियों या झारखंड मूल के जनजातीय उपनाम वाले आदिवासियों की अच्छी-खासी तादाद. दार्जिंलिंग और दूसरे हिल एरिया में रहने वाले आदिवासिय़ों की संख्या भी इस में जोड़ ली जाय तो यह तादाद 53 लाख हो जाती है. कुल मतदाताओं में इनका हिस्सा 7.4 फीसदी है. 12 लोकसभा सीटों पर इनका दखल है. इसलिए पश्चिम बंगाल में चुनावी पारी खेल रहे हर राजनीतिक दल इनका भरोसा जीतने के लिए जी-तोड़ कोशिश कर रहे हैं. ऐसे में य़ह जानना जरूरी है कि वे कौन सी सीटें हैं जहां उम्मीदवारों के लिए आदिवासिय़ों के आशीर्वाद के बिना चुनावी वैतरणी का पार करना मुश्किल होगा.

झारखंड के नेता भी बुलाए जाते हैं चुनाव प्रचार में

पश्चिम बंगाल की सत्ता पर काबिज होने के लिए किसी भी राजनीतिक दल को दो समुदाय आदिवासी व दलित का वोट मिलना काफी जरूरी है. इसलिए सभी पार्टियां इनका वोट अपने पाले में लाने के लिए हर प्रकार का प्रलोभन देती हैं. इस बार भी दे ही रही हैं. यहां राज्य में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस व प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा, दोनों ही आदिवासियों को साधने में लगी हैं. दोनों तरफ से आदिवासी मतदाताओं को रिझाने के लिए तरह-तरह के सपने दिखाये जा रहे हैं.

यहां आदिवासी मतदाताओं की तादाद कुल मतदाताओं के 7.4 फीसदी के बराबर हैं. जंगलमहल के चार संसदीय क्षेत्रों में और उत्तर बंगाल के आठ क्षेत्रों ये आदिवासी मतदाता फैले हुए हैं. राज्य में आदिवासी आबादी ज्यादातर दार्जिलिंग, जलपाईगुड़ी, अलीपुरदुआर, दक्षिण दिनाजपुर, पश्चिम मेदिनीपुर, बांकुड़ा और पुरुलिया जिले में है. इन जिलों में स्थित कुल 16 विधानसभा सीटें आदिवासी समुदाय के लिए रिजर्व है. इसके अलावा अन्य सीटों पर भी इनका थोड़ा-बहुत प्रभाव तो है ही. 2011 की जनगणना के मुताबिक तब राज्य में आदिवासी समुदाय की जनसंख्या तकरीबन 53 लाख थी.

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सरना धर्म कोड को मान्यता आदिवासियों की पुरानी मांग

झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल आदि राज्यों में रह रहे आदिवासियों के बीच से एक अलग धर्म के फॉलोअर्स के तौर पर इनकी मान्यता की मांग लंबे समय से उठती रही है. झारखंड मुक्ति मोर्चा सहित कई दलों ने अगली जनगणना से पहले सरना आस्था के लिए एक अलग कॉलम बनाने की मांग तेज कर दी है. हालांकि, झारखंड सरकार के बाद पश्चिम बंगाल की तृणमूल कांग्रेस सरकार ने भी इसे लेकर विधानसभा में प्रस्ताव पारित किया है. अब आदिवासियों के अलग-अलग समूहों ने केंद्र से मान्यता की मांग की है. इस संबंध में अंतर्राष्ट्रीय संथाल परिषद के कार्यकारी अध्यक्ष नरेश मुर्मू ने कहा कि झारखंड सरकार ने पहले ही हमारे विश्वास को मान्यता दे दी है. अब बंगाल सरकार भी ऐसा कर ही रही है. यह हमारे लिए एक बड़ी उपलब्धि है. वह कहते हैं कि उन्होंने केंद्रीय गृह मंत्रालय से भी इसकी मान्यता की अपील की है. जैन धर्म को सिर्फ 44 लाख आबादी के साथ मान्यता मिली हुई है. आदिवासी तो 50 लाख से भी अधिक हैं. फिर हमें मान्यता क्यों नहीं ?

पिछले लोस चुनाव में भाजपा को मिला था इनका समर्थन

वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने राज्य की 42 में से 18 सीटें जीत कर राज्य की सत्तारूढ़ पार्टी तृणमूल कांग्रेस को चौंका दिया था. भाजपा ने तब जंगलमहल की सभी चार सीटों पर कब्जा जमा लिया था. उत्तर बंगाल की आठ में से छह सीटों पर वह जीत गयी थी. हालांकि, वर्ष 2021 के विधानसभा चुनावों में तृणमूल ने भाजपा को नुकसान पहुंचाते हुए इन जिलों में फिर से कामयाबी हासिल की. वैसे तो चुनाव लोकसभा के लिए हो रहा है न कि राज्य विधानसभा के लिए, फिर भी पिछले विस चुनावों में तृणमूल को मिली सफलता से भाजपा चिंतित तो रहेगी ही. वह आदिवासी वोटरों को आंकने के मामले में भी सावधानी बरत रही है.

कुड़मी फैक्टर बदल सकता है वोटों का गणित

इस बार के लोकसभा चुनाव में झाड़ग्राम सीट से कुड़मी समाज ने भी अपना उम्मीदवार उतारा है. अपनी मांगों को संसद में उठाने के लिए उन्होंने यह तरीका अपनाया है. उनके प्रतिनिधि के चुनाव में कूदने से राजनीतिक समीकरण बदलने की संभावना है. गौरतलब है कि लंबे समय से एसटी में शामिल करने की मांग पर कुड़मी आंदोलन चला रहे हैं. राज्य या केंद्र सरकार, दोनों ने ही उनकी मांगों को पूरा नहीं किया है. अब सीधे राष्ट्रीय राजनीति में कदम रखने का उन्होंने फैसला किया है. लोकसभा चुनाव में उनका नारा है, ‘हमारा वोट हमारा ही रहे’. पंचायत चुनाव के बाद इसी नारे को सामने रख कर वे मैदान में हैं. झाड़ग्राम, पुरुलिया, बांकुड़ा व पश्चिम मेदिनीपुर में कुड़मी समाज के मतदाता रहते हैं. झाड़ग्राम लोकसभा क्षेत्र में उनकी तादाद करीब एक चौथाई है. पुरुलिया के बांदवान विधानसभा क्षेत्र में कुड़मी वोटरों की संख्या 40 फीसदी से अधिक बतायी जाती है, जबकि गड़बेता में पांच फीसदी से कम. जंगलमहल क्षेत्र में स्थित जिलों में कुड़मी समुदाय के लोगों की संख्या अन्य जगहों की तुलना में अधिक है. पुरुलिया की आबादी में इनकी हिस्सेदारी 65%, झाड़ग्राम में 42%, पश्चिम मेदिनीपुर में 17% और बांकुड़ा में 18% बतायी जाती है.

झाड़ग्राम व अलीपुरदुआर आदिवासियों के लिए आरक्षित

राज्य में दो लोकसभा सीटें आदिवासी समुदाय के लिए आरक्षित हैं. ये हैं- झाड़ग्राम व अलीपुरदुआर. झाड़ग्राम संसदीय सीट के सात विधानसभा क्षेत्रों में से चार झाड़ग्राम जिले में हैं, जबकि दो पश्चिम मेदिनीपुर और एक पुरुलिया जिले में. झाड़ग्राम संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत सात विधानसभा सीटें हैं – नयाग्राम, बांदवान, बीनपुर, गोपीबल्लवपुर, झाड़ग्राम, गड़बेता और सालबोनी. 2011 की जनगणना के अनुसार, झाड़ग्राम लोकसभा सीट पर 8,12,390 पुरुष मतदाता हैं, जबकि महिला मतदाताओं की संख्या 8,29,465 है. झाड़ग्राम सीट पर तृणमूल कांग्रेस ने कालीपद सोरेन और भाजपा ने डॉ प्रणत टुडु को उम्मीदवार बनाया है. इसके अलावा दो सामाजिक संगठनों ने पृथक तौर पर कुड़मी उम्मीदवार उतारे हैं. आदिवासी नागाचारी कुड़मी समाज ने वरुण महतो को जबकि अजित महतो के नेतृत्व वाले आदिवासी कुड़मी समाज ने सूर्य सिंह बेसरा को उम्मीदवार बनाया है. वह झाड़खंड पीपुल्स पार्टी की केंद्रीय कमेटी के अध्यक्ष हैं और झारखंड में घाटशिला के विधायक रहे हैं. अजित प्रसाद महतो के नेतृत्व वाले आदिवासी कुड़मी समाज, शिवाजी महतो के नेतृत्व वाले आदिवासी जनजाति कुड़मी समाज, राजेश महतो के नेतृत्व वाले कुड़मी समाज पश्चिमबंग और अनूप महतो के नेतृत्व वाले आदिवासी नागाचारी कुड़मी समाज के समर्थक अपनी-अपनी मांगों के समर्थन में पृथक तौर पर आज भी आंदोलन चला रहे हैं.

अलीपुरदुआर की 80% से अधिक की आबादी है एससी-एसटी

उत्तर बंगाल का अलीपुरदुआर लोकसभा क्षेत्र चाय बागान इलाके में आता है. इस संसदीय क्षेत्र को कूचबिहार एवं जलपाईगुड़ी जिले के हिस्सों को मिला कर बनाया गया है. अलीपुरदुआर पहले जलपाईगुड़ी के अंतर्गत आता था, लेकिन अब अलग जिला है. यह अनुसूचित जनजाति का संसदीय क्षेत्र है. साल 1977 में पहली बार इस संसदीय क्षेत्र का गठन हुआ था. इस लोकसभा क्षेत्र में विधानसभा की सात सीटें हैं. ये हैं- मदारीहाट (एसटी), अलीपुरदुआर, नागराकाटा (एसटी), कालचीनी (एसटी) फालाकाटा (एससी), तूफानगंज और कुमारग्राम (एसटी). इन सात सीटों में से केवल एक पर तृणमूल का कब्जा हैं, जबकि छह ने भाजपा प्रतिनिधियों को विधायक चुना है. अलीपुरदुआर में ग्रामीण आबादी ज्यादा है. इसकी कुल आबादी के 80 प्रतिशत से अधिक का हिस्सा अनुसूचित जाति और जनजाति का है. यहां राभा, मेच, संथाल, मदसिया, राजबंशी, टोटो ओरांव और बोडो जैसी जनजातियां हैं. कहा जा सकता है कि इस अंचल में आदिवासियों की पकड़ मजबूत है. अनुसूचित जाति (एससी) एवं अनुसूचित जनजाति की कुल जनसंख्या का अनुपात 30:23 एवं 26:16 का है.

मतदान में सावधानी बरतने की बात कर रहे आदिवासी

लोकसभा चुनाव के दौरान आदिवासी संगठन जागरूकता पर जोर दे रहे हैं. उनके समर्थक मतदाता मतदान में सा‍वधानी बरतें, यह बताया-समझाया जा रहा है. भारत जकात माझी परगना जुवान महल के जिला अध्यक्ष राजन टुडू कहते हैं कि यह चुनाव देश का चुनाव है. वे लोग हालात का अध्ययन कर रहे हैं, उस पर नजर रख रहे हैं. राजनीतिक दलों के अतीत के रुख-रवैये के साथ ही वे लोग इनके भविष्य के आश्वासनों का भी विश्लेषण कर रहे हैं. आदिवासियों की जमीन छिन रही है, उनका दमन-उत्पीड़न जारी है. उनके मुताबिक इस बार इनके समर्थक काफी सोच-समझ कर ही वोट करेंगे.

झारखंड के आदिवासी नेता भी कर रहे चुनाव प्रचार

पड़ोसी राज्य झारखंड के कुछ आदिवासी नेता चुनाव प्रचार में लगे हैं. खास कर झारखंड से सटे दक्षिण पुरुलिया में उत्तरी क्षेत्र में इनका कोई खास प्रभाव नहीं है. राजन टुडू कहते हैं कि आदिवासी झारखंड के हो या बंगाल के, सबकी मांग एक ही है. वह यह कि हमारे लिए धर्म कोड को स्वीकृति मिले, हमारे जल-जमीन और जंगलों पर हम आदिवासियों का ही कब्जा रहे. वह बताते हैं कि पुरुलिया के दक्षिणी भाग में झारखंड के आदिवासी नेता आते ही रहते हैं. इस इलाके में सालखन मुर्मू और केंद्रीय मंत्री तथा झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा जैसे नेताओं का भी आना-जाना लगा रहता है. अनुमान है कि इनके अतिरिक्त झारखंड के अन्य नेता भी अब जल्दी ही इस इलाके में चुनाव प्रचार के लिए दौरे शुरू करेंगे.

(इनपुट्स : हंसराज सिंह, प्रणव बैरागी)

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