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पारिवारिक कलह से मतुआ समुदाय के गढ़ में सियासी पारा चढ़ा

मतुआ महासंघ विवाद

मतुआ महासंघ विवाद

एजेंसी, बनगांव

मतुआ समुदाय के लिए सामाजिक-धार्मिक आधार माने जाने वाले मतुआ ठाकुरबाड़ी परिवार में अखिल भारतीय मतुआ महासंघ पर नियंत्रण को लेकर चल रहे आंतरिक संघर्ष का असर बंगाल में समुदाय के गढ़ बनगांव क्षेत्र में राजनीतिक गठबंधन पर दिख रहा है और यह समुदाय के चुनावी असर को प्रभावित कर रहा है. मतुआ मत जुटाने के लिए राजनीतिक संघर्ष जैसे-जैसे तेज होता जा रहा है, ठाकुर परिवार के आंतरिक संघर्ष, तृणमूल कांग्रेस और भाजपा की व्यापक रणनीतियां बनगांव में चुनावी राजनीति के भविष्य को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करने के लिए तैयार हैं. हरिचंद ठाकुर द्वारा स्थापित मतुआ संप्रदाय के लगभग 1.75 करोड़ लोग बनगांव, बारासात, राणाघाट, कृष्णानगर और कूचबिहार जैसे लोकसभा क्षेत्रों में महत्वपूर्ण जनसांख्यिकीय प्रभाव रखते हैं. ठाकुरनगर के प्रथम परिवार के भीतर का झगड़ा एक राजनीतिक लड़ाई और महासंघ पर नियंत्रण के लिए संघर्ष दोनों ही हैं. यह महासंघ मतुआ समुदाय का प्रतिनिधित्व करने वाला प्रमुख संगठन है. महासंघ वर्तमान में बनगांव से भाजपा सांसद और केंद्रीय मंत्री शांतनु ठाकुर और तृणमूल कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य ममता बाला ठाकुर के नेतृत्व वाले दो गुटों में बंटा हुआ है. राजनीतिक विश्लेषक विश्वनाथ चक्रवर्ती कहते हैं, “एक राजनीतिक झगड़े से अधिक, यह ठाकुरबाड़ी के नियंत्रण की लड़ाई है, क्योंकि जो व्यक्ति इसे नियंत्रित करता है वह न केवल सामाजिक-धार्मिक प्रभाव रखता है बल्कि राजनीतिक प्रभाव भी रखता है.” ठाकुरनगर में अप्रैल में नाटकीय दृश्य देखने को मिला जब शांतनु और ममता बाला दोनों के समर्थक एक घर के नियंत्रण को लेकर आमने-सामने आ गए, जहां पांच साल पहले अपनी मृत्यु तक संप्रदाय की कुलमाता बीनापाणि देवी रहीं, जिन्हें ‘बोड़ोमा’ के नाम से भी जाना जाता है. ममता बाला के अनुसार, यह घटना तब हुई जब शांतनु और उनके समर्थकों ने कथित तौर पर उस घर पर कब्जा करने की कोशिश की, जहां वह वर्तमान में रहती हैं. शांतनु का तर्क हालांकि यह था कि संपत्ति के कानूनी दावेदारों में से एक होने के बावजूद, “ममता बाला ठाकुर अवैध रूप से संपत्ति पर कब्जा कर रही हैं और यहां तक कि इसके एक हिस्से को तृणमूल पार्टी के कार्यालय में बदल रही हैं.” उन्होंने आरोप लगाया था, “मैं पोते के रूप में उत्तराधिकारियों में से एक हूं और इस संपत्ति के आधे हिस्से पर मेरा पूरा अधिकार है. लेकिन ममता बाला ने अवैध रूप से इसका पूरा नियंत्रण ले लिया है.” शांतनु बीनापाणि देवी के पोते हैं, जबकि ममता बाला ठाकुर उनकी बहू हैं. धार्मिक उत्पीड़न के कारण वैष्णव मत को मानने वाले मतुआ 1950 के दशक में और बांग्लादेश बनने के बाद यहां विस्थापित हुए. उत्तरी बंगाल में राजबंशियों (18.4 प्रतिशत) के बाद, नमोशूद्र, जिसमें मतुआ भी शामिल हैं(17.4 प्रतिशत), राज्य का सबसे महत्वपूर्ण अनुसूचित जाति समुदाय है. मतुआ समुदाय की अच्छी खासी आबादी और उनके एकजुट होकर मत देने की प्रवृत्ति ने राजनीतिक दलों में उनकी पूछ को काफी बढ़ा दिया है. राज्य में 1990 के दशक की शुरुआत में माकपा ने इस समुदाय की सियासी अहमियत को आंका. वाममोर्चा सरकार के दौरान बोड़ोमा के सबसे बड़े बेटे कपिल कृष्ण को वाम नेताओं के साथ उनकी करीबी के लिये जाना जाता था. हालांकि राज्य में सियासी हवा बदली तो तृणमूल ने ठाकुरबाड़ी का रुख किया. यह देखते हुए कि करीब 30 विधानसभा क्षेत्रों में उसका प्रभाव है. तृणमल नेता ममता बनर्जी ने 2011 में शांतनु के पिता मंजुल कृष्ण ठाकुर को उम्मीदवार बनाया था. बाद में उन्हें राज्य मंत्री के रूप में उनके मंत्री परिषद में शामिल किया गया.

तृणमूल के सत्ता में आने के बाद, कपिल कृष्ण ने भी अपनी निष्ठा बदल ली और पार्टी से जुड़ गए. अक्टूबर 2014 में कपिल कृष्ण की अचानक मृत्यु से पारिवारिक कलह शुरू हो गयी. उनकी विधवा, ममता बाला ठाकुर और उनके देवर मंजूल कृष्ण, उत्तराधिकार को लेकर आपस में भिड़ गए. मंजूल अपने छोटे बेटे सुब्रत को बनगांव से चुनाव लड़ाना चाहते थे लेकिन पार्टी नेतृत्व ने ममता बाला को चुना. इससे नाराज मंजूल कृष्ण ने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और भाजपा का दामन थाम लिया. उन्होंने फरवरी 2015 में सुब्रत को इस सीट से चुनाव लड़ने के लिए भाजपा का टिकट दिलाया, लेकिन सुब्रत तीसरे स्थान पर रहे. मंजूल कृष्ण कुछ महीनों बाद तृणमूल में वापस लौट आए लेकिन उन्हें फिर कभी मंत्री पद नहीं दिया गया. वहीं बनगांव से नवनिर्वाचित सांसद ममता बाला को क्षेत्र में पार्टी के काम की जिम्मेदारी सौंपी गयी. राज्य में 2016 के विधानसभा चुनावों में, मंजूल कृष्ण को टिकट से वंचित कर दिया गया, और उनके सबसे छोटे बेटे शांतनु ने खुद को ठाकुरबाड़ी की राजनीति में हाशिए पर पाया. अखिल भारतीय मतुआ महासंघ के महासचिव और शांतनु ठाकुर के गुट के सदस्य महितोष बैद्य के अनुसार, यह हाशिये पर डाला जाना था जिसने पारिवारिक झगड़े को बढ़ा दिया, अंततः शांतनु को भाजपा में शामिल होने के लिए प्रेरित किया. बैद्य ने आरोप लगाया कि ममता बाला ने तब अपने राजनीतिक रसूख का इस्तेमाल करके पूरी ठाकुरबाड़ी और उसकी सैकड़ों करोड़ रुपये की विशाल संपत्ति पर नियंत्रण कर लिया था. उन्होंने कहा, “तब शांतनु को एहसास हुआ कि अगर उन्हें प्रासंगिक बने रहना है, तो उन्हें एक राजनीतिक पार्टी के साथ रहना होगा और इस तरह वह भाजपा के संपर्क में आए. बाकी इतिहास है.” शांतनु ने रिकॉर्ड मतों के अंतर से अपनी ताई ममता बाला को हराया. उनकी जीत ने उनके राजनीतिक प्रभाव को मजबूत करते हुए मतुआ महासंघ का नेतृत्व भी सुरक्षित कर दिया. शांतनु के राजनीतिक प्रभुत्व को महासंघ के केवल बीनापाणि देवी के “सच्चे वंशज” को इसके प्रमुख के रूप में नियुक्त करने के निर्णय से बल मिला, जिससे प्रभावी रूप से ममता बाला को दरकिनार कर दिया गया, जिनका बोड़ोमा से कोई सीधा रक्त संबंध नहीं था. ममता बाला ने कहा, “भाजपा ने अपनी विभाजनकारी राजनीति के माध्यम से ठाकुरबाड़ी का माहौल खराब कर दिया है.”

शांतनु ने पारिवारिक झगड़े के बारे में बोलने से इनकार कर दिया. उन्होंने कहा, “सीएए पिछले कई दशकों से मतुआओं द्वारा किए जा रहे नागरिकता आंदोलन का परिणाम है.” उन्होंने कहा, “जो लोग सीएए का विरोध कर रहे हैं वे कभी भी मतुआओं के सच्चे दोस्त नहीं हो सकते.” बनगांव के लगभग 19 लाख मतदाताओं में से लगभग 40 प्रतिशत मतुआ निर्णायक कारक हैं. बनगांव निर्वाचन क्षेत्र में सोमवार मई को मतदान होगा.

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