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सिमटते जंगल के बीच प्रसिद्ध जंगली मेले की तैयारी पूरी, दुकानें सजकर तैयार

सिलीगुड़ी : सिलीगुड़ी शहर को पूर्वोत्तर भारत का प्रवेश द्वार माना जाता है. साथ ही इस शहर को व्यापारिक हब भी कहा जाता है. इस शहर के साथ कई पौराणिक कथाएं जुड़ी है, जो इसके महत्व को और ज्यादा बढ़ा देती है. यहां हम सिलीगुड़ी शहर से सटे इस्टर्न बाईपास रोड में बैकुंठपुर जंगल संलग्न […]

सिलीगुड़ी : सिलीगुड़ी शहर को पूर्वोत्तर भारत का प्रवेश द्वार माना जाता है. साथ ही इस शहर को व्यापारिक हब भी कहा जाता है. इस शहर के साथ कई पौराणिक कथाएं जुड़ी है, जो इसके महत्व को और ज्यादा बढ़ा देती है. यहां हम सिलीगुड़ी शहर से सटे इस्टर्न बाईपास रोड में बैकुंठपुर जंगल संलग्न मालडांगी मेले की बात कर रहे हैं.
यह मेला हर मायने में बदलते सिलीगुड़ी शहर का साक्षी है. लक्खी पूजा के दूसरे दिन इस मेले का आयोजन होता है.यह मेला सिलीगुड़ी शहर के लोगों के आकर्षण का केंद्र है. इस मेले में लाखों लोगों की भीड़ है. जहां लोग देवी दुर्गा की पूजा करते हैं. इस मौके पर ही मेले का आयोजन होता है. जिसे उपलक्ष मालडांगी या जंगली मेला कहते हैं.पहले मुख्य रूप से जंगल में ही इस मेले का आयोजल होता था. वर्तमान में जंगल सिमटने लगे हैं,जबकि मेले का आकर्षण जस की तस है.
लक्खी पूजा के बाद वाले दिन यानि कल गुरुवार से मेले की शुरूआत हो रही है. इस मेले की अपनी एक खास महत्व है. मेले में सिर्फ सिलीगुड़ी ही नहीं बल्कि साहुडांगी, आमबाड़ी, राजगंज, जलपाईगुड़ी, मालबाजार, बागडोगरा इलाके से भी लोग आते हैं. स्थानीय लोगों की माने तो कई दशकों से मेले का आयोजन हो रहा है. लेकिन समय के साथ-साथ मेला भी छोटा हो रहा है. इस संबंध में स्थानीय निवासी धीरेन बर्मन ने बताया कि अभी वे 65 वर्ष के हैं.
जब से उन्होंने अपना होश संभाला है तब से लेकर अभी तक इस मेले में कोई खास बदलाव नहीं हुआ है. अभी भी मेले में गन्ना तथा जलेबी लोग ज्यादा पसंद करते हैं. उन्होंने बताया कि बैकुंठपुर जंगल से सटे होने के कारण पहले मेला चलने के दौरान जंगली जारवरों का भी खतरा रहता था. मगर अब जंगल का स्थान बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियों तथा गोदामों ने ले ली है.उन्होंने चिंता जताते हुए कहा कि जगह के अभाव में मालडांगी मेला सिकुड़ता जा रहा है. इन सब के बाद भी मेले की रौनक अब भी बरकरार है.
क्या है मेले का इतिहास
मालडांगी यानी जंगली मेला कमेटी की ओर से गणेश राय ने बताया कि लगभग 100 वर्षों से वहां लक्खी पूजा के दूसरे दिन देवी दुर्गा की पूजा के बाद मेले का आयोजन किया जा रहा है. उन्होंने बताया कि बैकुंठपुर जंगल संलग्न इलाका होने के चलते यहां पहले बड़े- बड़े साल के पेड़ हुआ करते थे. साल को स्थानीय भाषा में माल कहा जाता था. जिससे यह इलाका मालडांगी के नाम से प्रसिद्ध हो गया. श्री राय ने आगे कहा कि उनके पूर्वजों ने किसी मन्नत के पूरे होने पर मां दुर्गा की मंदिर स्थापित की थी. तब से लेकर अबतक तक प्रत्येक वर्ष लक्खी पूजा के दूसरे दिन मां दुर्गा की पूजा का खास महत्व है.
क्या है मान्यता
लोगों की मान्यता है कि सच्चे दिल से पूजा करने वाले भक्तों की माता सभी दुख एवं कष्टों को हर लेती है. जिससे यहां भारी संख्या में लोग आते हैं. वे अपनी मन्नतें मांगते हैं. जिनकी मन्नतें पूरी हो जाती है वह विशेष पूजा के लिए आते हैं. उन्होंने बताया कि सुबह से लेकर दोपहर तक देवी की आराधना के बाद शाम को मेले का आयोजन होता है. यहां के खास आकर्षण का केंद्र गन्ना तथा जलेबी है. उस मेले में दूर दराज से भी व्यापारी आते हैं.

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