अपने ही घर में पहचान खोजती सानिया..

सिलीगुड़ी: थारी छोरी कुन सी जगह से एमबीए करे है!..सीए बन गयी थारी छोरी? अब और किता बाकी है??..मारवाड़ी समाज के बीच होने वाले मिलन समारोह व तीज-त्यौहारों के बीच सुनील अग्रवाल को ऐसे सवालों से अक्सर दो -चार होना पड़ता है. बिटिया सानिया को भी. इन सवाल से मां अनुराधा के भी कान पक […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 16, 2013 1:45 PM

सिलीगुड़ी: थारी छोरी कुन सी जगह से एमबीए करे है!..सीए बन गयी थारी छोरी? अब और किता बाकी है??..मारवाड़ी समाज के बीच होने वाले मिलन समारोह व तीज-त्यौहारों के बीच सुनील अग्रवाल को ऐसे सवालों से अक्सर दो -चार होना पड़ता है. बिटिया सानिया को भी. इन सवाल से मां अनुराधा के भी कान पक गये. जब सानिया कहती है कि मैं फाइन आर्टस में बैचलर हूं. चित्रकारी करती हूं.

अक्सर उसे समझा जाता है कि वह कुछ नहीं कर रही है. सामने वालों से ऐसी ही प्रतिक्रिया मिलती है. सानिया इस वर्ष मार्च में जयपुर आर्ट फेस्टिवल में हिस्सा ले चुकी है. इस फेस्टिवल में दुनिया भर से 150 से चित्रकार आये थे. मुम्बई की गीता दास, अर्चना कर, लंदन के डेविड जैसे प्रसिद्ध चित्रकार के बीच इस छोटी सी सानिया के चित्रों को भी जगह मिली थी. लेकिन दुख की बात है, सानिया को अपनी पहचान के लिए अपने ही घर (सिलीगुड़ी), अपने ही लोगों के बीच पहचान बनानी पड़ रही है.

अजब विडंबना! कभी वह सोचती है, शायद मैं भी सीए या एमबीए बनती, एक बिजनेश मैन बनती, ढ़ेर सारा पैसा कमाती तब मुझे पहचान मिलती . पैसों से ही पहचान मिलती है क्या? कला का कोई मूल्य नहीं? जयपुर में तो मुझे लोगों ने आंखों पर बिठाया. मैं वहां सबसे छोटी थी. पर,यहां पर अपने घर में क्या हो गया?

सानिया का 24 साल का जीवन पूरे ऐशो-आराम में बीता. दुख ने उसे छुआ नहीं. लेकिन उसके चित्र संवेदना के सागर है.सानिया के चित्र समाज में बंटे ऊंच-नीच की खाई की दास्तां सुनाते है. मस्तमौला कलाकार है, तो कहीं बुद्ध का मध्यम मार्ग है. जटिलतम जीवन में फंसे व्यक्ति की घुटन, छटपटाहट को उसने रंगों से अपने कैनवस पर उकेर दिया. जिसे किसी शब्द की जरूरत है. बस उस मौन चित्र को सुनने की जरूरत है. उसके बनाये गये चित्र, सच में बोलते है. ठहरी हुई जिंदगी, वह जो भीतर चल रहा है, वह जो बाहर है. चेहरे के भीतर का चेहरा. उसका दर्द, प्रेम, अकुलाहट, व्याकुलता, ममत्व सभी भाव-रसों को उसके जीकर उसे कल्पना के रंग से सजाया है.

सानिया कहती है-‘मैं जब दिल्ली, जयपुर जैसे शहरों में प्रदर्शनी के लिए जाती हूं. तो वहां पूर्वोत्तर के लोग अधिक रहते है. 40 फीसदी लोग यही के है. लेकिन यहीं पर कलाकारों की अवहेलना होती है. पेंटिंग करना, लोगों के लिए छोटा सा स्कूल का वह होमवर्क है, जिसे वह नर्सरी-केजी में करते है. उससे आगे पेंटिंग का कोई अर्थ नहीं.’

सानिया के पिता सुनील अग्रवाल कहते हैं -‘ लोग फाइन आर्टस का मतलब नहीं सकझते है. जब मैं कहते हूं कि इसके लिए मैंने 20-25 लाख खर्च किये. वो मुझे ऐसे देखते हैं कि मैंने फिजूलखर्च कर दिया. लेकिन मैं उनकी ऐसी प्रतिक्रिया का आदी हो गया हूं. मैं अपनी बेटी की सृजन-शक्ति को समझता हूं. वह बहुत आगे जायेगी, और जा रही है. भले मेरे शहर और समाज से उसे पहचान न मिले.’

सानिया पर्यावरण दिवस को लेकर आज प्रकृति के बीच कुछ पेंटिंग तैयार कर रही है. प्रकृति उसकी प्रेरणा है. शक्ति है. इसलिए उसने प्रदर्शनी लगायी है. सिटी गार्डन में पांच से 10 जून तक उसकी प्रदर्शनी लगेगी. आज यहां वह इंतजार कर रही है, कला के कद्रदान का! किसी कवि ने कहा है-‘जिसने सजाया है आसमां को अपने रंगों से / अपने घर में ही वह आसमां ढूंढता है..’

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