रांची, अमन तिवारी. पिछले कुछ महीनों के दौरान झारखंड पुलिस ने अभियान चला कर राज्य के कई इलाकों को नक्सलियों और उग्रवादियों के आतंक से मुक्त कराया है. कई नक्सलियों को और उग्रवादियों गिरफ्तार भी किया गया है. ऐसा करके झारखंड पुलिस ने राज्य सरकार से लेकर केंद्र सरकार तक की सरहाना हासिल की. हालांकि, गिरफ्तार नक्सलियों और उग्रवादियों को सजा दिलाने में पुलिस फेल हो रही है. पिछले एक साल में केस के ट्रायल के दौरान 441 नक्सली और उग्रवादी रिहा हो चुके हैं. गिरफ्तार नक्सलियों और उग्रवादियों में सिर्फ 13.95 प्रतिशत को हत्या के केस में सजा हुई. अन्य मामलों में 8.25 प्रतिशत नक्सलियों और उग्रवादियों को सजा दिलायी जा सकी. अधिकतर मामलों में नक्सलियों और उग्रवादियों को साक्ष्य के अभाव में बरी कर दिया गया.
गवाहों के मुकर जाने से भी कुछ उग्रवादी और नक्सली रिहा
गवाहों के मुकर जाने से भी कुछ उग्रवादी और नक्सली रिहा कर दिये गये. इससे स्पष्ट है कि पुलिस के अनुसंधान में कहीं न कहीं कमी रही होगी, जिसकी वजह से नक्सली और उग्रवादी बताकर जेल भेजे गये आरोपी केस से रिहा हो गये.पुलिस विभाग के आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2021 में झारखंड पुलिस ने विभिन्न जिलों में अभियान चलाकर कुल 463 उग्रवादियों और नक्सलियों को गिरफ्तार किया था. इस दौरान कुल 19 नक्सलियों ने सरेंडर किया था. छह उग्रवादी मारे गये थे. जबकि, पुलिस ने वर्ष 2022 में 481 उग्रवादियों और नक्सलियों को गिरफ्तार कर रिकॉर्ड बनाया. इसमें पोलित ब्यूर मेंबर से लेकर अन्य बड़े नक्सली भी शामिल रहे. दूसरी ओर 14 नक्सलियों ने सरेंडर किया और 11 नक्सली-उग्रवादी एनकाउंटर के दौरान मारे गये. इतनी कवायद के बावजदू पुलिस गरिफ्तार किये गये नक्सलियों और उग्रवादियों को सजा दिलाने में दिलचस्पी नहीं ले रही है.
पुलिस की लापरवाही से नक्सली केस फेल होने का उदाहरण
बुंडू थाना की पुलिस ने 30 अगस्त 2012 को केस नंबर 97/12 के तहत गणेश मुंडा और त्रिभुवन सिंह को नक्सली बताकर जेल भेज दिया था. इस केस में पुलिस ने 28 अक्तूबर 2012 को आरोपियों के खिलाफ चार्जशीट समर्पित कर दिया. लेकिन दोनों नौ फरवरी 2023 को न्यायालय से रिहा हो गये. पुलिस ने गिरफ्तारी के दौरान नक्सलियों की निशानदेही पर बम और उनके पास से नक्सली साहित्य बरामद होने का दावा किया था. केस में पुलिस ने जिन तीन लोगों को गवाह बनाया था, वे मुकर गये. केस के ट्रायल के दौरान नक्सलियों के पास से बरामद नक्सली साहित्य भी पुलिस न्यायालय में प्रस्तुत नहीं कर सकी. इस तरह पुलिस की लापरवाही से दोनों आरोपियों पर नक्सली होने का आरोप साबित नहीं हुआ और वे रिहा हो गये.