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A Thursday Movie Review: सिर्फ झकझोरती नहीं बल्कि सोचने को भी मजबूर करती है ए थर्सडे

ए वेडनेसडे की तरह ए थर्सडे भी गंभीर प्रासंगिक मुद्दे को छूती है हालांकि यह फ़िल्म ए वेडनसडे की तरह भले ही प्रभावी नहीं बन पायी है लेकिन यह संवेदनशील फ़िल्म आपको अंत तक बांधे ज़रूर रखती है.

फ़िल्म- ए थर्सडे

निर्देशक- बेहज़ादा खंबाटा

कलाकार- यामी गौतम, नेहा धूपिया,डिंपल कपाड़िया, अतुल कुलकर्णी,

प्लेटफार्म-डिज्नी प्लस हॉटस्टार

रेटिंग- तीन

ए थर्सडे की घोषणा के साथ ही इस फ़िल्म को नसीरुद्दीन शाह की 2008 में आयी सुपरहिट फ़िल्म ए वेडनेसडे से जोड़ा जाने लगा है. गौर करें तो दोनों में कुछ कनेक्शन ना होते हुए भी गहरी समानताएं हैं. दोनों ही फिल्मों में सिस्टम से परेशान होकर एक आम इंसान सिस्टम को अपने हाथों में लेने का फैसला करता है ताकि उसमें सुधार लाया जा सके. उसे जिम्मेदार बनाया जा सके. ए वेडनेसडे की तरह ए थर्सडे भी गंभीर प्रासंगिक मुद्दे को छूती है हालांकि यह फ़िल्म ए वेडनसडे की तरह भले ही प्रभावी नहीं बन पायी है लेकिन यह संवेदनशील फ़िल्म आपको अंत तक बांधे ज़रूर रखती है.

फ़िल्म की कहानी की बात करें तो नैना (यामी गौतम) जो पेशे से एक प्ले स्कूल की टीचर है. वह तीन हफ्ते की छुट्टी से अचानक वापस आ गयी है और अपना प्लेस्कूल जॉइन कर लिया है. 16 बच्चे इस स्कूल में पढ़ते हैं. उनके माता पिता उन्हें स्कूल में छोड़ने आए हैं. नैना सभी से बहुत प्यार से मिलती है. वह एक बच्ची निहारिका के प्री बर्थडे सेलिब्रेशन की प्लानिंग प्ले स्कूल में करती है. अचानक नैना के हाव भाव बदलने लगते हैं समझ आने लगता है कि यह थर्सडे आम थर्सडे नहीं होने वाला है. वह एक गन निकालती है और पुलिस स्टेशन फ़ोन करती है कि उसने 16 बच्चों ,1 हेल्पर और एक ड्राइवर को बंधक बना लिया है. उसकी कुछ मांगे हैं.

अगर उसकी मांगे पूरी नहीं होंगी तो हर गुजरते वक़्त के साथ एक बच्चे को अपनी जान गवानी पड़ेगी. नैना और पुलिस के बीच चूहे बिल्ली का खेल शुरू हो जाता है. जिसमें बाद में भारत की प्रधानमंत्री( डिंपल कपाड़िया) को भी शामिल होना पड़ता है. क्यों और कैसे के साथ साथ नेहा 16 मासूम बच्चों की ज़िंदगी से क्यों खेल रही है. इन सभी सवालों के जवाब भी आगे की फ़िल्म देती है. जो आपको देखनी पड़ेगी.

शुरुआत में थ्रिलर होस्टेज ड्रामा की तरह यह फ़िल्म लगती है जिसमें एक मानसिक रूप से बीमार महिला यह कदम उठा रही है लेकिन जैसे जैसे कहानी की परत दर परत खुलती है यह फ़िल्म समाज के सबसे बड़े कोढ़ को सामने लेकर आती है. फ़िल्म आखिर में आंकड़े रखती है कि जब तक आपने ये फ़िल्म देखी है उतने समय में आठ महिलाओं का बलात्कार हो चुका है. कुलमिलाकर फ़िल्म सिर्फ झकझोरती ही नहीं बल्कि रेपिस्ट के लिए मृत्युदंड के कानून को अपनाने की बात करती है.

फ़िल्म की स्क्रिप्ट की खामियों की बात करें तो फ़िल्म में सिनेमैटिक लिबर्टी जमकर ली गयी है. जिस तरह से प्रधानमंत्री जैसे बड़े पद को कहानी में आसानी से जोड़ दिया गया है. वह बात अविश्वसनीय लगती है. नैना ने अकेले ये सब कैसे कर लिया. बैक स्टोरी में अगर उसको तैयारियों के बारे में भी दिखाया जाता तो फ़िल्म प्रभावी बन सकती थी. इसके साथ ही इस फ़िल्म में भी एक बार फिर मीडिया पर सवाल उठाए गए हैं. जो अखरता है. क्या मीडिया का मतलब टीआरपी का सर्कस भर रह गया है.

अभिनय की बात करें तो यामी ने अपने कैरियर का सबसे बेहतरीन परफॉरमेंस दिया है. जिस तरह से वह एक पल मासूम तो दूसरे ही पल खतरनाक बनती है. उनके एक्सप्रेशन्स कमाल के है. अतुल कुलकर्णी हमेशा की तरह अपनी मौजूदगी से प्रभावित करते हैं. नेहा धूपिया और डिंपल कपाड़िया परदे पर अपने हिस्से की भूमिकाएं सशक्त ढंग से निभा गयी हैं. माया सरायो को फ़िल्म में करने को कुछ खास नहीं था.

फ़िल्म के दूसरे पहलुओं की बात करें तो बैकग्राउंड म्यूजिक किसी थ्रिलर फिल्म का एक अहम किरदार होता है लेकिन इस फ़िल्म में कमतर रह गया है. टेक्निकल पक्ष में स्लोमोशन के क्लोजअप शॉट्स बचकाने से लगते हैं. फ़िल्म का संवाद अच्छे बन पड़े हैं. फ़िल्म की एडिटिंग पर थोड़ा काम करने की ज़रूरत थी. कुलमिलाकर कुछ खामियों के बावजूद यह महिला प्रधान फ़िल्म आपको अंत तक बांधे रखती है. आपको सोचने पर मजबूर करती है.

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