15.4 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

Exclusive: मैं बिहारी ही हूं, इसलिए किरदार की भाषा और बॉडी लैंग्वेज पर काम करने की जरूरत नहीं थी – इमरान जाहिद

इमरान जाहिद जल्द ही फिल्म अब दिल्ली दूर नहीं से सिनेमाघरों में दस्तक देने वाले है. अब उनसे जब पूछा गया कि क्या ये गोविन्द जयसवाल की बायोपिक है, जिसपर उन्होंने कहा, बायोपिक नहीं, हां उनसे प्रेरित है, क्योंकि कहानी में सिनेमैटिक लिबर्टी लेनी पड़ी है.

फिल्म अब दिल्ली दूर नहीं जल्द ही सिनेमाघरों में दस्तक देने जा रही है. इस फिल्म की कहानी बिहार बेस्ड आईएएस ऑफिसर गोविन्द जयसवाल की कहानी से प्रेरित है. फिल्म में गोविन्द की भूमिका अभिनेता इमरान जाहिद नें निभा रहे हैं. थिएटर में सक्रिय इमरान जाहिद की यह बतौर लीड एक्टर पहली फिल्म है. इमरान झारखंड के बोकारो से हैं. उनकी इस फिल्म और अब तक की जर्नी पर उर्मिला कोरी की हुई बातचीत…

एक अरसे से आपका नाम चंदू, मार्कशीट जैसी फिल्मों से जुड़ता रहा है, लेकिन अब दिल्ली दूर नहीं आपकी पहली फिल्म लीड एक्टर पर सामने आ रही है, इस पूरी जर्नी को आप किस तरह से परिभाषित करेंगे?

मैं बोकारो से हूं, 12 वीं की पढ़ाई करने के बाद मैं बोकारो से दिल्ली कॉलेज के लिए आ गया. स्कूल से ही मेरा एक्टर बनने का सपना था. लोग चढ़ा देते हैं ना तू अच्छा दिखता है, तू कर सकता है.हमारे यहां पर सरस्वती पूजा और दुर्गा पूजा पर पर्दे पर फ़िल्में दिखाते थे, तो हमलोग खूब देखते थे. शुरू से रुझान था इसलिए दिल्ली पहुंचने के साथ थिएटर करना शुरू किया. दिल्ली यूनिवर्सिटी में अरविन्द गौर के साथ. उसी दौरान हमने एक मीडिया का संस्थान भी शुरू किया. ये तय था कि दिल्ली में ही काम करूंगा. मुंबई में फोटो लेकर घूमने के लिए तैयार नहीं था. दिल्ली में ही रहकर थिएटर करने लगा.महेश भट्ट से इसी बीच मिला. हम साथ में जे एन यू के लीडर चंद्रशेखर प्रसाद पर फिल्म चंदू बनाने वाले थे. इस सिलसिले में सीवान भी गया, लेकिन उनकी ही पार्टी के लोग फिल्म का विरोध करने लगे, फिल्म नहीं बन पायी. मार्कशीट फिल्म बनने वाली थी, लेकिन उसी विषय पर इमरान हाशमी की फिल्म चीट इंडिया की घोषणा हो गया. बड़े प्रोडक्शन हाउस से कब तक लड़ पाते थे. महेश भट्ट की फिल्म जनम का रिमेक करने वाला था, उसके निर्माता का देहांत हो गया, तो वो फिल्म भी नहीं बन पायी. आखिरकार दिल्ली दूर नहीं से बतौर लीड एक्टर हिंदी सिनेमा में मेरी शुरुआत हो रही है. यह एक प्रेरणादायी कहानी है.मैं ऐसी ही किसी कहानी से अपनी शुरुआत चाहता था.

क्या ये गोविन्द जयसवाल की बायोपिक है?

बायोपिक नहीं, हां उनसे प्रेरित है, क्योंकि कहानी में सिनेमैटिक लिबर्टी लेनी पड़ी है. यहीं वजह है कि किरदार का नाम बदल गया है, लेकिन वह बिहार से ही है. पूरी फिल्म में कई बार बिहार का नाम लिया जाएगा.

किरदार को समझने के लिए क्या तैयारियां थी?

दिल्ली में ए के मिश्रा सर हैं, जो आईएएस की कोचिंग चलाते हैं, उनसे मैंने बहुत जानकारी ली. चाणक्य एकेडमी में जाकर बहुत दिन तक क्लास अटेंड किया.लोगों के सवालों और उम्मीदों को जाना. उनमे ऐसे लोग भी थे, जो पहली बार एग्जाम दे रहे थे और कईयों की आखिरी कोशिश भी थी, तो हर किसी को समझने की कोशिश की ताकि किरदार की जर्नी में जोड़ पाऊं?

गोविंद जायसवाल से भी मिले?

जी हां, मैं उस मुलाकात को अपनी जिंदगी का एक अहम टर्निंग पॉइंट भी कहूंगा. मेरे एक रूममेट्स थे, जिन्होंने सिविल सर्विस का एग्जाम क्लियर किया था, लेकिन वे बहुत ही अच्छे परिवार से थे. उनके पिता एक डॉक्टर थे. उनके साथ हमेशा एक नौकर रहता था, जो उनका ख्याल रखता था, तो ऐसा लगा नहीं मुझे कि आईएएस की तैयारी बहुत मुश्किल होती है, लेकिन जब गोविन्द जयसवाल की ज़िन्दगी को जाना, तो हम बहुत हिल गए कि पांचवी क्लास की घटना है कि उसके क्लासमेट्स उसके साथ खेलना नहीं चाहते हैं. बच्चे उसे अपने ग्रुप से धक्के मारकर निकाल देते हैं, उन्होंने टीचर से कहा कि हम हर क्लास में टॉप आते हैं, तो फिर क्यों कोई बच्चा हमारे साथ नहीं खेलना चाहते हैं. टीचर नें जवाब में कहा कि तुम्हारा बैकग्राउंड, क्योंकि तुम्हारे पिता रिक्शा चलाते हैं. बच्चे तभी खेलेंगे, जब बैकग्राउंड बदलेगा. गोविन्द ने पूछा बैकग्राउंड कैसे बदलेगा, हंसते जवाब आया कि आईएएस बन जाओ. क्लास 5 से ही गोविन्द नें तय कर लिया था कि उन्हें आईएएस ही बनना है. उन्होने जूते की दुकान में भी काम किया, लेकिन हमेशा अपने सपने को पूरा करने के लिए प्रयासरत थे.

गोविन्द की कहानी में आपको क्या खास लगा?

सबकुछ खास था. उन्होंने पहली ही कोशिश में आईएएस क्लियर कर लिया था. इंटरव्यू के 15 दिन पहले उनके पिता की तबीयत खराब हो गयी. कोई एक पैर में ज़ख्म नासूर हो गया था. घर के हालात और खराब हो गए थे, तो वो लोग रोटी पानी में मिला कर खा रहे थे. गांव से उनके दोस्त ने उन्हें कॉल किया और कहा कि गांव के सभी लोगों का कहना है कि पिता की इतनी हालत खराब है और बेटा दिल्ली में मजे कर रहा है. उन्होने दोस्त को कहा कि मैं आ भी गया, तो अपने पिता की कुछ मदद नहीं कर पाऊंगा. आईएएस बनने के बाद ही मैं उनकी मदद कर पाउंगा. इसके साथ ही उन्होने आगे अपने दोस्त को कहा कि तुझे मैं मतलबी लगूंगा लेकिन इस दौरान अगर उनको कुछ हो जाएगा, तो मुझे बताना मत वरना फिर हम कभी आईएएस नहीं बन पाएंगे.ऐसे लोगों की कहानियां मोटिवेशन के साथ-साथ आंसू भी दे जाती है.

क्या किरदार के बॉडी लैंग्वेज पर भी काम करना पड़ा?

हम खुद भी बिहार से ही हैं, क्योंकि झारखंड अभी बना है पहले तो वो बिहार का ही हिस्सा था, तो बॉडी लैंग्वेज को खास अपनाने की मेहनत नहीं करनी पड़ी क्योंकि वह हर बिहारी में ही होता हैं. मैं भी वैसे ही दिल्ली आया था. बक्सा उठाकर पुरषोत्तम एक्सप्रेस चलती थी, उससे दिल्ली. हर बिहारी की भाषा भी कमोबेश एक सी ही होती है. मैं भी आम परिवार से आता हूं. हाल ही में सोशल मीडिया पर देखा कि एक वीडियो बहुत वायरल हो रहा है कि बेचारा स्विग्गी वाला देखो साइकिल से आता है. मेरे पापा कि साइकिल खुद मैंनें 8 वीँ से 12 वीं तक चलायी है. वहीं 24 इंच वाली.हम लोग के लिए वह आम बात है. जो वहां से हैं, वो जानते हैं.

आपने जिंदगी में बहुत उतार चढ़ाव देखें हैं, आपका मोटिवेशन क्या था, क्या कभी हताश भी हुए

मैं पॉजिटिविटी के साथ चलता हूं, मैनें बहुत पहले एक चीज पढ़ी थी कि बंद घड़ी भी दिन में दो बार सही समय दिखाती है. मैं लगातार नाटक करता राहा हूं, जिसके बारे में वर्ल्ड वाइड बात भी हुई और एक्टिंग तो मैं कर ही रहा था. मेरा नाटक लास्ट सैल्यूट, अर्थ, डैडी, हमारी अधूरी कहानी जैसे नाटकों में काम किया है.अभिनय से लगाव था, जो नाटक मौका दे रहे थे. मीडिया इंस्टिट्यूशन भी है मेरा तो उससे आर्थिक तौर पर मदद मिल जाती थी. मुझे सुपरस्टार बनने की कभी थी ही नहीं क्योंकि मेरे गुरु महेश भट्ट थे. उन्होने मुझे समझा दिया था कि जो चीज रहेगी नहीं उसके पीछे भागना क्या. जमीन से जुड़े रहो. मैंने मनोज बाजपेयी का इंटरव्यू पढ़ा था कि बीच में जब उनकी फ़िल्में फ्लॉप हो रही थी और उनके पास काम नहीं था, तो मीडिया उनको देखकर अनदेखा कर देती थी.

क्या आप फिल्मों और वेब सीरीज में काम करने को ओपन है या अभी भी थिएटर ही करेंगे

नहीं, मैं फिल्मों और वेब सीरीज में अब काम करना चाहूंगा. मेरी सोच थी कि बॉम्बे जाऊं, तो पहला काम करके जाऊं. अब मेरी फिल्म आ रही है, लोग मेरे काम से परिचित और हो जाएंगे. जिससे अप्रोच करने में सही होगा.

बॉक्स में ईद और दुर्गापूजा पर बोकारो जाता हूं

मेरे पिता बोकारो स्टील प्लांट में काम करते थे. रिटायरमेन्ट के बाद भी वहीं क्वाटर लेकर रहते हैं. मां भी वही हैं और बड़ा बहन भी. बोकारो में एक अपनापन था वो मिसिंग है. आज सबकुछ मोबाइल हो गया है. आपसे लोग बात भी कर रहे हैं, तो मोबाइल में घुसे हैं. सबकुछ मशीनी सा हो गया है. मैं साल में दो तीन बार बोकारो जाता हूं. ईद पर जाता हूं, दुर्गापूजा पर. पंडाल घूमना बहुत पसंद हैं. सरस्वती पूजा को बहुत मिस करता हूं. चंदा इकट्ठा करके सरस्वती पूजा करते थे. बहुत खास यादें हैं.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें