इलाहाबाद हाईकोर्ट ने चारागाह की भूमि का आवंटन रद्द करने का दिया निर्देश, जानें पूरा मामला
Allahabad High Court News: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि चकबंदी के दौरान चारागाह भूमि की मालियत लगाकर चक आवंटित नहीं किया जा सकता. वहीं कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा कि अगर बच्चे किसी पार्टनर के साथ लिव-इन रिलेशनशिप में रह रहें हैं तो माता-पिता हस्तक्षेप नहीं कर सकते.
Allahabad High Court News: उत्तर प्रदेश की इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि चकबंदी के दौरान चारागाह भूमि की मालियत लगाकर चक आवंटित नहीं किया जा सकता. ऐसा आवंटन अवैध व क्षेत्राधिकार से बाहर होगा. कोर्ट ने आगे कहा कि धारा 19A की प्रक्रिया के तहत सार्वजनिक उपयोग की भूमि का विशेष स्थिति में आवंटन किया जा सकता है. कोर्ट ने राज्य सरकार को छूट दी है कि यदि वह चाहे तो कानूनी प्रक्रिया अपनाकर इस मामले में तीन माह में निर्णय ले सकती है. तब तक यथास्थिति कायम रखी जाय.
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि उसने आवंटित करने के लिए नहीं कहा है. सरकार सुप्रीम कोर्ट के हींच लाल तिवारी व जगपाल सिंह केस के निर्देशानुसार निर्णय ले. यदि सरकार कोई निर्णय नहीं लेती तो भूमि चारागाह के रूप में राजस्व अभिलेख में दर्ज की जाय. यह आदेश न्यायमूर्ति सौरभ श्याम शमशेरी ने आजमगढ़ के बासुदेव सहित दर्जनों याचिकाओं को निस्तारित करते हुए दिया है.
बता दें कि 4 दिसम्बर, 1993 को आजमगढ़ में चकबंदी घोषित हुई. सड़क किनारे चारागाह जमीन थी. उसके अधिकांश हिस्से की मालियत लगाकर याचियों को चक आवंटित कर दिया गया. इसके 24 साल बाद राज नारायण ने 17 जुलाई 17 को जिलाधिकारी से शिकायत की और अवैध आवंटन निरस्त करने की मांग की. मामला उप निदेशक चकबंदी को रेफर हुआ.
उन्होंने याचियों को नोटिस जारी की और चकबंदी अधिकारी से रिपोर्ट मांगी. 7 जनवरी 23 को एसओसी ने रिपोर्ट दी, जिस पर 28 फरवरी 23 को डीडीसी ने आवंटन निरस्त करने का आदेश दिया गया, जिसे चुनौती दी गई थी. कोर्ट ने कहा कि चारागाह भूमि का आवंटन नहीं किया जा सकता. यह उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश अधिनियम की धारा 132 का उल्लंघन है. कोर्ट ने आवंटन निरस्त कर चारागाह के रूप में दर्ज करने का आदेश दिया है.
हाईकोर्ट- लिव-इन में रह रहे बच्चों को माता-पिता भी नहीं कर सकते मना
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा है कि अगर बच्चे किसी पार्टनर के साथ भी लिव-इन रिलेशनशिप में रह रहें हैं तो उसमें माता-पिता हस्तक्षेप नहीं कर सकते भले ही पार्टनर का मजहब अलग ही क्यों न हो. इसका साथ ही हाई कोर्ट ने लिव-इन रिलेशनशिप में साथ रह रहे अंतरधार्मिक जोड़े को धमकी मिलने पर पुलिस को सुरक्षा मुहैया कराने का आदेश दिया है.
मामले की सुनवाई कर रहे जस्टिस सुरेंद्र सिंह-1 की पीठ ने कहा कि मामले के तथ्यों और परिस्थितियों और शीर्ष न्यायालय द्वारा अपने निर्णयों में निर्धारित कानून को ध्यान में रखते हुए, इस अदलात की राय है कि याचिकाकर्ता एक साथ रहने के लिए स्वतंत्र हैं और उनके माता-पिता या किसी अन्य सहित किसी भी व्यक्ति को उनके शांतिपूर्ण लिव-इन-रिलेशनशिप में हस्तक्षेप करने की अनुमति दी जाएगी. यदि याचिकाकर्ताओं के शांतिपूर्ण जीवन में कोई व्यवधान उत्पन्न होता है, तो याचिकाकर्ता इस आदेश की एक प्रति के साथ संबंधित पुलिस अधीक्षक से संपर्क कर सकते हैं, जो याचिकाकर्ताओं को तत्काल सुरक्षा प्रदान करेगा.
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, मामले में एक याचिकाकर्ता, जो बालिग है, ने इस आधार पर सुरक्षा के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया था कि उसकी की मां और अन्य रिश्तेदार उसके पार्टनर संग उसके रिश्ते के खिलाफ हैं और याचिकाकर्ताओं के शांतिपूर्ण जिंदगी जीने में व्यवधान डाल रहे हैं. और परेशान कर रहे हैं. चूंकि याचिकाकर्ताओं को मां ने धमकी दी थी, इसलिए वे अपने परिवार के सदस्यों द्वारा ऑनर किलिंग को लेकर आशंकित हैं.
अदालत का दरवाजा खटखटाने से पहले याचिकाकर्ताओं ने गौतमबुद्ध नगर के पुलिस आयुक्त से सुरक्षा की मांग करते हुए एक आवेदन दिया था, लेकिन उस पर कोई कार्रवाई नहीं की गई. याचिकाकर्ताओं ने अपनी अर्जी में कहा है कि वे दोनों निकट भविष्य में शादी करने का इरादा रखते हैं. चूंकि वे शांति से रह रहे थे, इसलिए उन्होंने रिश्तेदारों के खिलाफ कोई एफआईआर दर्ज नहीं कराई थी.
सरकारी वकील ने इस आधार पर लिव-इन रिलेशनशिप का विरोध किया कि दोनों याचिकाकर्ता अलग-अलग धार्मिक समूहों से हैं और ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ में लिव-इन-रिलेशनशिप में रहना जिना (व्यभिचार) के रूप में दंडनीय है. किरण रावत और अन्य बनाम यूपी सरकार के फैसले के आधार पर उन्होंने तर्क दिया कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने पहले लिव-इन-रिलेशनशिप में एक साथ रहने वाले जोड़ों को सुरक्षा देने से इनकार कर दिया था.