बिहार की कवयित्री अनामिका अनु को 2020 का भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार

Anamika Anu, poetess of Bihar, Bharat Bhushan Aggarwal Award 2020 बिहार की कवयित्री अनामिका अनु को वर्ष 2020 का प्रतिष्ठित भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार के लिए चुना गया है. एक जनवरी 1982 को बिहार के मुजफ्फरपुर में जन्मीं अनामिका अनु को यह पुरस्कार उनकी कविता ‘मां अकेली रह गयी’ के लिए दिया जा रहा है.

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 19, 2020 10:17 PM
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बिहार की कवयित्री अनामिका अनु (Anamika Anu) को वर्ष 2020 का प्रतिष्ठित भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार (Bharat Bhushan Aggarwal Award 2020) के लिए चुना गया है. एक जनवरी 1982 को बिहार के मुजफ्फरपुर में जन्मीं अनामिका अनु को यह पुरस्कार उनकी कविता ‘मां अकेली रह गयी’ के लिए दिया जा रहा है.

उनकी यह कविता 2019 में कथादेश पत्रिका में प्रकाशित की गयी थी. इस वर्ष पुरस्कार के निर्णायक प्रख्यात कवि और संस्कृति कर्मी अशोक वाजपेयी थे. पुरस्कार के तौर पर अनामिका अनु को 21 हजार रुपये की राशि और प्रशस्ति पत्र दिया जाएगा. मालूम हो अनामिका अनु बिहार विश्वविद्यालय से वनस्पति विज्ञान में एमए और पीएचडी की डिग्री ली है. फिलहाल वो पिछले 12 सालों से केरल में रह रही हैं.

अपनी अनुशंसा में अशोक वाजपेयी ने कहा है, ‘मां अकेली रह गयी’ कविता संभवतः विधवा हो जाने पर एक स्त्री की मनोव्यथा और अकेलेपन का मर्मचित्र है. उसमें अनुपस्थिति क्षति और अभाव व्यंजित हैं और काव्य कौशल इससे प्रगट होता है कि बटन जैसी साधारण चीज इन सबका और स्मृति का धीरे-धीरे, बिना किसी नाटकीयता के रूपक बनती जाती है. रोजमर्रापन में ट्रैजिक आभा आ जाती है. तरह-तरह की क्रियाएं और याद आती चीजें मर्मचित्र को गहरा करती है.

यह पुरस्कार 35 वर्ष की आयु तक के युवा कवि को दिया जाता रहा है पर अब इस साल से इस पुरस्कार के लिए अधिकतम आयु-सीमा चालीस वर्ष की गई है. अगले वर्ष से यह पुरस्कार किसी एक कविता के लिए न दिया जाकर किसी युवा कवि के पहले कविता संग्रह पर दिया जायेगा.

पहले की ही तरह पांच वर्षों के लिए जूरी नियुक्त की जा रही है जिसके सदस्य बारी-बारी से हर वर्ष पुरस्कार के लिए कविता संग्रह चुनेंगे. अगले पांच वर्षों के लिए जूरी में होंगे अरुण देव, मदन सोनी, अष्टभुजा शुक्ल, आनन्द हर्षुल और उदयन वाजपेयी.

मां अकेली रह गयी

मां अकेली रह गयी

खाली समय में बटन से खेलती है

वे बटन जो वह पुराने कपड़ों से

निकाल लेती थी

कि शायद काम आ जाए बाद में

हर बटन को छूती

उसकी बनावट को महसूस करती

उससे जुड़े कपड़े और कपड़े से जुड़े लोग

उनसे लगाव और बिछड़ने को याद करती

हर रंग, हर आकार और बनावट के वे बटन

ये पुतली के छट्ठे जन्मदिन के गाउन वाला

लाल फ्राक के ऊपर कितना फबता था न

मोतियों वाला ये सजावटी बटन

ये उनके रेशमी कुर्ते का बटन

ये बिट्टू के फुल पैंट का बटन

कभी अखबार पर सजाती

कभी हथेली पर रख खेलती

कौड़ी, झुटका खेलना याद आ जाता

नीम पेड़ के नीचे काली मां के मंदिर के पास

फिर याद आ गया उसे अपनी मां के ब्लाउज का बटन

वो हुक नहीं लगाती थी

कहती थी बूढ़ी आंखें बटन को टोह के लगा भी ले

पर हुक को फंदे में टोह कर फंसाना नहीं होता

बाबूजी के खादी के कुर्ते का बटन

होगी यहीं कहीं

ढूंढ़ती रही दिन भर

अपनों को याद करना भूल कर

दिन कटवा रहा है बटन

अकेलापन बांट रहा है बटन.

posted by – arbind kumar mishra

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