Election Results 2023: परिणामों का राजनीति पर दूरगामी असर, पढ़ें खास रिपोर्ट
भाजपा ने एक बड़ा घेरा खींचा हुआ है, जिसमें जाति भी है, धर्म भी है, विकास भी है, मोदी की छवि भी है, मीडिया भी है. अगर इनमें से किसी एक तत्व पर आश्रित होकर कोई राजनीति करेगा, तो सफल नहीं हो सकता है. संघर्ष की राजनीति के कमजोर होने से आकांक्षा की, आशा की राजनीति का उभार होगा.
चार राज्यों के चुनाव नतीजे भारतीय राजनीति पर दूरगामी असर डालेंगे. कांग्रेस के पुनरुभार की संभावनाएं इन परिणामों से क्षीण हुई हैं क्योंकि अगर कोई दल उत्तर भारत में प्रभावी नहीं है, तो फिर वह राष्ट्रीय राजनीति में प्रभावी नहीं हो सकता. कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश में पराजय के बाद भाजपा पर जो बादल छाये हुए थे, अब वे छंट जायेंगे तथा लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा का आधार और मजबूत होगा. तीन उत्तर भारतीय राज्यों में भाजपा की जीत आश्चर्यजनक है. कोई यह नहीं मान रहा था कि छत्तीसगढ़ में भाजपा जीतेगी. मध्य प्रदेश के लिए भी लगभग यही आकलन था. राजस्थान में भी कांटे की टक्कर का अनुमान था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव अभियान में स्थानीय नेताओं को परे रखते हुए स्वयं को पूरी तरह झोंक दिया था. उन्होंने एक राज्य की राजनीति की जगह कई राज्यों की राजनीति को स्थापित कर दिया है. इससे कई नेताओं में यह आशा और आकांक्षा पैदा हुई कि वे भी मुख्यमंत्री बन सकते हैं. ऐसे में उन्होंने मेहनत में कोई कसर बाकी नहीं रखी. अगर इन चुनाव में भाजपा हार जाती, तो मोदी की छवि पर नकारात्मक असर होता. लेकिन उन्होंने जोखिम उठाया और जीत हासिल की. एक सक्षम राजनेता हमेशा जोखिम लेता है. ये परिणाम मोदी ब्रांड और उनकी छवि को और मजबूत करते हैं.
इन चुनाव में लाभार्थी की राजनीति यानी सामाजिक कल्याण की राजनीति दोनों पार्टियों ने की. इस राजनीति में भाजपा इसलिए आगे निकल गयी क्योंकि मध्य प्रदेश में डबल इंजिन की सरकार थी. राजस्थान और छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकारों ने अपनी सामाजिक योजनाओं को अच्छे से लागू करने की पूरी कोशिश की. लेकिन भाजपा केवल योजना भर लागू नहीं करती, बल्कि लाभार्थी के साथ व्यक्तिगत संबंध भी जोड़ती है. मामा, भांजा, बहन आदि जैसे भावनात्मक संबोधन भारतीय मानस को आकर्षित करते हैं. भाजपा नेता पर्व-त्योहारों में लाभार्थियों के यहां जाते हैं. कांग्रेस ऐसा नहीं करती. उसे लगता है कि हमने योजनाओं को जनता तक पहुंचा दिया है और लोग उससे संतुष्ट होकर उसे वोट देंगे ही.
कांग्रेस जाति जनगणना और पुरानी पेंशन योजना के अपने वादों पर काफी भरोसा कर रही थी. जाति जनगणना का मुद्दा कारगर नहीं हुआ. कांग्रेस यह नहीं समझ सकी कि यह नव-उदारवाद का दौर है, जिसका दूसरा चरण चल रहा है. पहले चरण में पहचान (आइडेंटिटी) का असर था, पर यह चरण पहचान के अवसान और आंकाक्षाओं के उदय का समय है. इसमें व्यक्ति के अंदर अनेक आकांक्षाएं होती हैं. व्यक्ति नौकरी भी चाहता है, सामाजिक परिवेश में सम्मान की अपेक्षा भी करता है तथा अच्छी जीवन शैली की चाहत भी रखता है. यह उपभोक्ता मन व्यक्ति को किसी ‘अन्य’ के विरुद्ध आक्रामक रूप से लामबंद नहीं होने देता. इस तरह के सूक्ष्म मुद्दों ने भी चुनाव में एक भूमिका निभायी है. लोगों ने यह भी समझा कि यह लड़ाई अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की अन्य पिछड़ा वर्ग से ही है, सवर्ण से नहीं. भाजपा अब पहले की तरह ‘ब्राह्मण-बनिया पार्टी’ नहीं है, बल्कि वह ओबीसी के नेतृत्व वाली पार्टी है. भाजपा ने विभिन्न जातिगत पहचान को अपने यहां स्थान दिया है.
यदि इन परिणामों से जातिगत आरक्षण की राजनीति रुकती है या कमजोर होती है, तो सामाजिक संघर्ष से लामबंदी की राजनीति भी कमजोर होगी. वंचित समुदायों में आज आकांक्षा, आवश्यकता और भागीदारी की क्षमता आ चुकी है. इनका विकास केवल आरक्षण देकर नहीं हो सकता है, उसके लिए अनेक प्रयासों की जरूरत है. भाजपा ने एक बड़ा घेरा खींचा हुआ है, जिसमें जाति भी है, धर्म भी है, विकास भी है, मोदी की छवि भी है, मीडिया भी है. अगर इनमें से किसी एक तत्व पर आश्रित होकर कोई राजनीति करेगा, तो सफल नहीं हो सकता है. संघर्ष की राजनीति के कमजोर होने से आकांक्षा की, आशा की राजनीति का उभार होगा. उसमें कोई शत्रु नहीं होगा. यह बहिष्करण से नहीं, समायोजन और समावेश की निरंतरता से बनता है. मुझे लगता है कि यह दौर उसी दिशा में अग्रसर है.
जहां तक इन राज्यों में आदिवासी समुदायों की स्थिति का प्रश्न है, तो इन समुदायों के सम्मान की आकांक्षा को तो भाजपा ने बढ़ाया ही है. आदिवासी नायकों के सम्मान से लेकर संग्रहालय बनाने और अवकाश घोषित करने आदि जैसी कई तरह की पहलें हुई हैं. इससे समुदायों में आकांक्षा भी बढ़ी. इसका निश्चित प्रभाव परिणामों में दिखाई देता है. दूसरी बात यह है कि भाजपा सरकारों के आने से बहुत पहले से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आदिवासी क्षेत्रों में सक्रिय है. उनके विद्यालय हैं, अस्पताल हैं, अन्य गतिविधियां हैं. आदिवासी क्षेत्रों में पहले या तो नक्सलाइट थे या फिर गांधीवादी कार्यकर्ता. विभिन्न कारणों और कारकों से इनकी उपस्थिति लगातार घटती गयी है, जबकि संघ से संबंधित संगठनों और कार्यक्रमों का दायरा बढ़ता गया है. इसका लाभ भी भाजपा को मिलना स्वाभाविक है. प्रधानमंत्री मोदी ने जनजातीय गौरव कार्यक्रम के माध्यम से गौरव बोध की राजनीति को आगे बढ़ाया है. एक समय में आदिवासी क्षेत्र कांग्रेस का मजबूत गढ़ हुआ करता था. लेकिन समय के साथ वह प्रभाव घटता चला गया. ऐसा कोई संकेत भी नहीं है कि कांग्रेस जनजातीय समुदायों के बीच काम कर रही है या इस बारे में उसके पास कोई रणनीति या कार्यक्रम है. वह गांधीवादियों को भी नहीं जोड़ पा रही है, जो उसके साथ काम कर सकते हैं. इस ओर कांग्रेस को ध्यान देना चाहिए.