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चिंताजनक है राज्यपालों का रवैया

निर्वाचित राज्य सरकारों और केंद्र द्वारा नियुक्त राज्यपालों के बीच टकराव राज्यपालों के आचरण पर ही नहीं, उनकी नियुक्ति प्रक्रिया पर भी सवाल खड़े करता है. उन ज्यादातर राज्यों में मुख्यमंत्री और राज्यपाल के रिश्ते अच्छे नहीं हैं, जहां केंद्र में सत्तारूढ़ दल से अलग दल की सरकार है.

गैर भाजपा शासित राज्यों में राज्यपाल और सरकारों के बीच टकराव थमता नहीं दिखता. नौबत सुप्रीम कोर्ट द्वारा ऐसे राज्यपालों के आचरण पर सख्त टिप्पणियों और उन्हें नोटिस जारी करने तक पहुंच गयी है. पिछले दिनों पंजाब के राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित द्वारा विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी में देरी पर सुप्रीम कोर्ट ने ‘आप आग से खेल रहे हैं’ जैसी कड़ी टिप्पणियां करते हुए उन्हें अपनी अंतरात्मा में झांकने की नसीहत भी दी थी. अदालत ने यह भी कहा था कि वह जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि नहीं हैं. सुप्रीम कोर्ट ने केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान को भी नोटिस जारी किया है और उन्हें पंजाब के फैसले को पढ़ने की सलाह दी है. राज्यपालों पर विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों की मंजूरी रोक कर सरकारों के कामकाज में अड़ंगा लगाने के आरोप पंजाब और केरल तक ही सीमित नहीं. तेलंगाना, तमिलनाडु और झारखंड की सरकारें भी ऐसी शिकायतों के साथ सर्वोच्च न्यायालय में दस्तक दे चुकी हैं. केरल सरकार ने आरोप लगाया है कि तीन विधेयक तो दो वर्ष से भी ज्यादा समय से लंबित हैं, जबकि संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार राज्यपाल को विधेयक को तुरंत मंजूरी देनी चाहिए या फिर उसे विधानसभा को लौटा देना चाहिए या विचार के लिए राष्ट्रपति को भेज देना चाहिए.

ऐसा लगता है कि केंद्र से इतर राजनीतिक दलों की राज्य सरकारों को तंग करने के लिए विधेयकों पर मंजूरी रोकने का नया तरीका निकाला गया है. अतीत में तो राज्यपाल निर्वाचित सरकारों को गिराने से लेकर बर्खास्तगी तक जाते रहे हैं. तब भी सुप्रीम कोर्ट ने सख्त टिप्पणियां की थीं, पर उनसे शायद ही किसी ने सबक सीखा हो. उदाहरण के लिए महाराष्ट्र प्रकरण को देखा जा सकता है. राज्यपाल के जिन कदमों को सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुरूप नहीं माना, उन्हीं के चलते तो उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने को मजबूर हुए थे! स्पीकर ने अभी तक दल-बदलू विधायकों के मामले में कोई फैसला नहीं किया है.

तमिलनाडु में मुख्यमंत्री एमके स्टालिन और राज्यपाल आरएन रवि के बीच टकराव बढ़ता जा रहा है. सरकार द्वारा स्वीकृत अभिभाषण राज्यपाल द्वारा पूरा न पढ़े जाने से शुरू हुआ टकराव पोंगल पर राजभवन में होने वाले कार्यक्रम के निमंत्रण पत्र में राज्य और राज्यपाल का पदनाम बदलने से बढ़ता हुआ अब मुख्यमंत्री की सिफारिश के बिना भ्रष्टाचार के आरोपी मंत्री सैंथिल की बर्खास्तगी से चरम पर पहुंचता दिख रहा है. निर्वाचित राज्य सरकारों और केंद्र द्वारा नियुक्त राज्यपालों के बीच टकराव राज्यपालों के आचरण पर ही नहीं, उनकी नियुक्ति प्रक्रिया पर भी सवाल खड़े करता है. उन ज्यादातर राज्यों में मुख्यमंत्री और राज्यपाल के रिश्ते अच्छे नहीं हैं, जहां केंद्र में सत्तारूढ़ दल से अलग दल की सरकार है. वर्तमान उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ जब पश्चिम बंगाल के राज्यपाल थे, तब उनके और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के संबंध बेहद खराब हो गये थे. झारखंड में भी मुख्यमंत्री और राज्यपाल के बीच विभिन्न मुद्दों पर टकराव की खबरें आती हैं. असम के राज्यपाल गुलाब चंद कटारिया पर राजस्थान में चुनाव प्रचार का आरोप लगा है.

यह धारणा लगातार मजबूत होती गयी है कि केंद्र में सत्तारूढ़ दल अक्सर चुनाव में हारे या बुजुर्ग नेताओं या चहेते पूर्व नौकरशाहों को राज्यपाल नियुक्त करते हैं. शायद ही केंद्र में सत्तारूढ़ कोई दल राजभवनों को अपने लोगों के लिए ‘पुनर्वास केंद्र’ के रूप में इस्तेमाल करने का लोभ संवरण कर पाया हो. जब नियुक्ति का एकमात्र आधार नियोक्ता के प्रति निष्ठा ही है, तो फिर कोई किसी लक्ष्मण रेखा की परवाह नहीं करता. संविधान के अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग कर निर्वाचित सरकारों के साथ जैसा खिलवाड़ होता रहा है, उसकी मिसाल शायद ही किसी और लोकतांत्रिक देश में मिले. साल 1977 और 1980 में तो यह काम थोक में किया गया. आपातकाल के बाद हुए चुनाव में जनता पार्टी केंद्र में आयी, तो कई कांग्रेसी राज्य सरकारों को बर्खास्त करने के साथ राज्यपाल भी हटाये गये. साल 1980 में सत्ता में वापसी पर इंदिरा गांधी ने भी वैसा ही किया.

साल 1982 के हरियाणा विधानसभा चुनाव में किसी दल को बहुमत नहीं मिला. कांग्रेस 36 सीटों के साथ सबसे बड़ा दल बनी, पर भारतीय लोकदल और भाजपा के चुनाव पूर्व गठबंधन को 37 सीटें मिलीं. राज्यपाल जीडी तपासे ने गठबंधन को सरकार बनाने के लिए आमंत्रण का आश्वासन दिया, लेकिन 52 विधायकों के समर्थन का दावा करने वाले भजनलाल को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलवा दी. साल 1984 में राज्यपाल रामलाल द्वारा आंध्र प्रदेश में एनटीआर की सरकार बर्खास्त कर भास्कर राव को मुख्यमंत्री बनाना हो या 1998 में लोकसभा चुनाव के बीच ही उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रोमेश भंडारी द्वारा कल्याण सिंह सरकार बर्खास्त कर जगदंबिका पाल को ‘24 घंटे के’ मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलवाना हो या फिर नवंबर, 2019 में महाराष्ट्र में राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी द्वारा ‘80 घंटे के लिए’ देवेंद्र फड़नवीस को मुख्यमंत्री और अजित पवार को उपमुख्यमंत्री बनाना हो- ऐसी घटनाओं से महामहिम के संवैधानिक पद की गरिमा बढ़ी नहीं है.

संविधान और लोकतंत्र के हित का तकाजा है कि राज्यपालों की नियुक्ति के लिए कोई पारदर्शी और विश्वसनीय प्रक्रिया बनायी जाए अथवा फिर इस पद को ही समाप्त कर देने के दिवंगत समाजवादी नेता मधु लिमये के सुझाव पर गंभीरता से विचार किया जाए.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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