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जागरूकता है सिकल सेल का कारगर इलाज

भारत में यह बहुत ही आम बीमारी है और खास तौर पर आदिवासी लोगों में यह ज्यादा होती है. इसकी मुख्य वजह यह है कि इन समुदायों में एंडोगैमी यानी आपस में ही विवाह करने का चलन रहा है.

केंद्र सरकार ने हाल ही में सिकल सेल एनीमिया को जड़ से मिटाने के लिए अभियान शुरू किया है. यह एक आनुवंशिक बीमारी है, जो माता-पिता के जीन से मिलती है. यह बीमारी दो तरह की होती है. पहली, जिसमें लक्षण प्रकट नहीं होते, मगर जीन में यह मौजूद रहता है, जिसे ट्रेट कहते हैं. ऐसे व्यक्ति सामान्य जीवन व्यतीत कर सकते हैं. दूसरी बीमारी में, लक्षण स्पष्ट होते हैं. दरअसल, यदि माता-पिता में से किसी एक की जीन में यह ट्रेट हो, तो उनके बच्चे के भीतर इसके ट्रेट की तरह मौजूद होने की आशंका रहती है, लेकिन यदि माता और पिता दोनों ही के भीतर ट्रेट हों, तो बीमारी होने की आशंका ज्यादा हो जाती है. सिकल सेल ट्रेट वाले दो लोग यदि शादी करते हैं, तो 25 प्रतिशत आशंका होती है कि बच्चे को स्किल सेल बीमारी होगी, 50 प्रतिशत आशंका होगी कि उसके भीतर ट्रेट होगा मगर बीमारी प्रकट नहीं होगी, और 25 प्रतिशत संभावना होगी कि बच्चा सामान्य होगा.

दरअसल, शरीर में लाल रक्त कोशिकाएं या आरबीसी शरीर के विभिन्न अंगों या हिस्सों को ऑक्सीजन पहुंचाती हैं. उन कोशिकाओं के भीतर हीमोग्लोबिन होता है, जो दो चीजों से बनता है. हीम आयरन वाले हिस्से से बनता है और ग्लोबिन प्रोटीन से. ग्लोबिन वाले हिस्से में अल्फा, बीटा, डेल्टा और गामा नामक चेन यानी शृंखलाएं होती हैं, मगर वयस्क लोगों में बस दो अल्फा और दो बीटा चेन होती हैं. सिकल सेल एनीमिया में हीमोग्लोबिन का ये आकार, जेनेटिक बदलाव के कारण बिगड़ जाता है. इसमें ग्लोबिन के चेन की छठी कड़ी पर ग्लूटामिन नाम का एक अमीनो एसिड बदलकर वैलीन हो जाता है. इस एक बहुत ही मामूली बदलाव की वजह से शरीर की लाल रक्त कोशिकाओं का आकार बदल जाता है.

सामान्यतः ये कोशिकाएं डोनट जैसी वलयाकार दिखती हैं और बहुत लचीली होती हैं, जिससे ये शरीर की बहुत ही छोटी कैपिलरीज या शिराओं से गुजरकर शरीर के आखिरी अंग की आखिरी कोशिका तक ऑक्सीजन पहुंचाती हैं, लेकिन सिकल सेल बीमारी में इनका आकार बदल कर सिकल यानी हंसिया या आधे चांद जैसा हो जाता है. इसकी वजह से शिराओं में उनका प्रवाह मुश्किल हो जाता है. इससे गंभीर समस्याएं आने लगती हैं. शरीर के अलग-अलग हिस्से में खून जमने लगता है. फेफड़ों में रक्त के अटकने से हाइपर टेंशन हो जाता है, सांस लेने में दिक्कत होती है और अंततः एनीमिया की वजह से हार्ट फेल हो जाता है. लकवा भी मार सकता है. ऐसे मरीज 40 साल से ज्यादा जीवित नहीं रह पाते.

भारत में यह बहुत ही आम बीमारी है. खास तौर पर आदिवासी समुदाय के लोगों में यह ज्यादा होती है. इसकी मुख्य वजह यह है कि इन समुदायों में एंडोगैमी यानी आपस में ही विवाह करने का चलन रहा है. इस वजह से यदि ट्रेट वाले दो लोग शादी करते हैं, तो बच्चे को बीमारी होने का खतरा रहता है. भारत में आदिवासियों की संख्या कुल आबादी का 8.6 फीसदी है. मोटे तौर पर आदिवासियों में लगभग 10 प्रतिशत लोगों में सिकल सेल एनीमिया बीमारी है यानी इस बीमारी से प्रभावित लोगों की संख्या बहुत बड़ी है.

भारत सरकार ने वर्ष 2047 तक सिकल सेल एनीमिया के उन्मूलन की योजना लागू की है. इसमें छह राज्यों पर ध्यान केंद्रित किया गया है, जहां आदिवासियों की तादाद ज्यादा है. ये हैं- गुजरात, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, ओडिशा और झारखंड शामिल हैं. अभी तक अध्ययन से पाया गया है, कि इन समुदायों में जन्म लेने वाले हर 84वें बच्चे को सिकल सेल एनीमिया होने का खतरा होता है. आदिवासियों में सिकल सेल होने की एक वजह यह है कि यह बीमारी मूलतः अफ्रीका और भूमध्यसागरीय देशों से आयी है. ऐसे में, यदि किसी समुदाय या व्यक्ति के पूर्वजों का इन इलाकों से ताल्लुक रहा हो, तो खतरा बना रहता है. अपने ही समुदाय में विवाह करने की प्रथा से यह खतरा और बढ़ जाता है.

इस बीमारी का अभी तक कोई इलाज नहीं है. इससे बचने का सबसे कारगर तरीका बचाव है. इसी को ध्यान में रख सिकल सेल एनीमिया के बारे में जागरूकता पर बहुत ज्यादा जोर दिया जा रहा है. योजना के तहत आदिवासी बहुल इलाकों में स्क्रीनिंग की व्यवस्था की जा रही है. सबसे ज्यादा समस्या ऐसे लोगों की है, जिनमें यह ट्रेट की तरह मौजूद है यानी जिनमें लक्षण प्रकट नहीं होते. ऐेसे लोगों को लगता है कि वे बिल्कुल सामान्य हैं, लेकिन ट्रेट वाले लोगों से ही यह बीमारी आगे बढ़ती जा रही है.

इस बीमारी पर लगाम लगाने के लिए ऐसे लोगों की पहचान सबसे जरुरी है. इस ट्रेट की मौजूदगी की जांच बहुत ही आसानी से ब्लड टेस्ट से हो जाती है, जो किसी भी सरकारी स्वास्थ्य केंद्र में हो सकती है, मगर यह आसान काम नहीं है, क्योंकि आदिवासी समुदाय में अशिक्षा और उनके परंपरावादी रहन-सहन जैसे कारणों से जागरूकता फैलाना और उन्हें जांच के लिए राजी करना सबसे बड़ी चुनौती है. इन्हीं चुनौतियों को ध्यान में रख कर इस योजना को वर्ष 2047 तक चलाने का निर्णय लिया गया है. ऐसी उम्मीद है कि इस लंबी अवधि में प्रभावित इलाकों में जागरूकता बढ़ेगी और स्क्रीनिंग जैसे उपायों से सिकल सेल एनीमिया को जड़ से मिटाया जा सकेगा

(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)

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