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Azadi Ka Amrit Mahotsav : सविनय अवज्ञा आंदोलन में जुब्बा सहनी ने बढ़ कर लिया था हिस्सा

मीनापुर के चैनपुर गांव के देशभक्त जुब्बा सहनी ने अंग्रेज थानेदार लुइस वालर की चिता मीनापुर थाना परिसर में ही सजा दी थी. लुइस वालर को मीनापुर थाने में जिंदा जला दिया गया. इसके बाद यूनियन जैक को उतार कर तिरंगा लहरा दिया गया.

आजादी का अमृत महोत्सव : जुब्बा सहनी का जन्म 1906 में मुजफ्फरपुर के मीनापुर थाने के चैनपुर गांव में हुआ था. उनके पिता का नाम पाचू सहनी था. जुब्बा ने जब होश संभाला, तो घर में गरीबी इतनी थी कि वह स्कूल जाने की बजाय पिता और बड़े भाई के साथ मछली पकड़ना सीखने लगे. जब वह 20 वर्ष के हुए, तो 1927 में भिखनपुरा चीनी मील के एक एग्रीकल्चर फार्म में काम करने लगे. वहां वह कभी गन्ना काटने, तो कभी मिल में भेजने के लिए ट्रॉली पर गन्ना लादते. जुब्बा बचपन से ही स्वाभिमानी और स्वतंत्र विचार के व्यक्ति थे.

जब जुब्बा सहनी ने अपने सुपरवाइजर को मारा

चीनी मिल में काम करने वाले अधिकांश अधिकारी अंग्रेज और इक्के-दुक्के बंगाली थे. एक दिन जब खाना खाने का समय हुआ, तो जुब्बा समय से थोड़ा पहले ही काम रोक कर खाना खाने जाने लगे. इस बीच नशे में धुत एक सुपरवाइजर ने उन्हें देख लिया और उनके पास आकर बूट से मारना शुरू कर दिया. गुस्से में आकर जुब्बा सहनी ने भी सुपरवाइजर को पटक कर उसकी पिटाई कर दी. सुपरवाइजर के पीटने का मामला मीनापुर थाने में दर्ज हुआ. उनकी गिरफ्तारी का वारंट जारी हुआ, पर वह गिरफ्तार नहीं किये जा सके. उन्हीं दिनों गांधी जी की अगुआई में शुरू सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू हुआ. जुब्बा सहनी रिश्ते के भाई बांगुर सहनी के साथ इस आंदोलन में कूद पड़े.

मीनापुर थाने पर तिरंगा फहराने का किया था प्रयास

वर्ष 1932 के दिसंबर में मुजफ्फरपुर के सरैयागंज मारवाड़ी धर्मशाला के पास शराब की दुकान पर नशाखोरी के खिलाफ पिकेटिंग करते समय ब्रिटिश हुकूमत के सिपाहियों ने जुब्बा को गिरफ्तार कर बर्बर तरीके से पिटाई कर दी, जिससे उनकी पसलियों की हड्डियां टूट गयीं. वर्ष 1932 से 1942 तक वे भूमिगत स्वतंत्रता सेनानियों के बीच पत्रों का आदान-प्रदान करने और उनकी जरूरत के सामान को पहुंचाने का काम करते थे. 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ, मीनापुर भी इससे अछूता न था. लोगों ने 12 अगस्त, 1942 को मीनापुर थाने पर तिरंगा फहराने की कोशिश की, लेकिन असफल रहे.

अपने साथियों का बदला लेने के लिए दारोगा वालर को जिंदा फूंक दिया

अंग्रेजी हुकूमत ने आंदोलनकारियों को सबक सिखाने के लिए मीनापुर में बड़ी संख्या में पुलिस बल भेज दिया. अंग्रेज दारोगा वालर अपनी पिस्टल से गोलियां दागने लगा. पहली गोली बांगुर सहनी की छाती में लगी. थोड़ी देर बाद ही उनकी मौत हो गयी. अपने भाई और साथियों की हालत देख जुब्बा सहनी का गुस्सा भड़क उठा और वह उसी वक्त वालर को पकड़ का पीटने लगे. यह सब देख अपराधियों ने भी आंदोलनकारियों के साथ मिल कर थाने के फर्नीचर और सामान को आग के हवाले कर दिया. जुब्बा सहनी ने वालर को उठा कर जिंदा आग में झोंक दिया. इस घटना के बाद मुजफ्फरपुर के कलक्टर ने बौखला कर आंदोलनकारियों की धर-पकड़ शुरू कर दी. फिर भी आंदोलनकारियों का उत्साह कम नहीं हुआ. जुब्बा और उनके साथियों ने मीनापुर थाने पर कब्जा कर लिया. अंग्रेजी पुलिस ने आनन-फानन में हजारों लोगों को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया. सिर्फ वालर हत्याकांड में 188 लोगों को गुनहगार साबित करने के लिए कोर्ट में मुकदमा चला, पर सिर्फ 56 लोगों को दोषी होने का सबूत मिला. उन्होंने अपने 56 साथियों को बचाने के लिए कोर्ट में आत्मसमर्पण कर दिया. मामले की सुनवाई कर रही एएन बनर्जी की अदालत में जुब्बा ने सारा इल्जाम अपने ऊपर ले लिया. 38 वर्ष की उम्र में 11 मार्च, 1944 को भागलपुर सेंट्रल जेल में उन्हें फांसी दे दी गयी

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