Azadi Ka Amrit Mahotsav : संताल परगना की माटी में रचे-बसे थे ‘स्वराज्य’ के प्रणेता सखाराम गणेश देउस्कर
18वीं शताब्दी में मराठा शक्ति के प्रसार के काल में उनके पूर्वज देवघर के करौं गांव चले आये और स्थायी रूप से निवासित हो गये. इसी गांव में 17 दिसंबर, 1869 में जन्में देउस्कर की प्रारंभिक शिक्षा देवघर में हुई. यहीं वे राजनारायण बोस (अरविंद घोष और वारिंद्र घोष के नाना) से मिले.
डॉ दिनेश नारायण वर्मा, इतिहासकार
आजादी का अमृत महोत्सव : क्रांतिकारी लेखक, विचारक, पत्रकार और इतिहासकार के रूप में अपने विचारों से भारतीय युवा वर्ग को गंभीर रूप से प्रभावित करने वाले देश में स्वराज्य और स्वदेशी आंदोलन के प्रणेता सखाराम गणेश देउस्कर (1869-1912) का रिश्ता झारखंड के देवघर जिले के करौं से था. यहीं पैदा हुए और यहीं की मिट्टी-पानी ने उनमें राष्ट्रीय चेतना का बीज बोया. उनके विचारों और लेखन ने स्थानीयता और अखिल भारतीयता का बेजोड़ संगम पैदा किया. उन्होंने क्रांतिकारी आंदोलन में तो अहम योगदान किया ही, बतौर लेखक-पत्रकार उन्होंने इतिहास, साहित्य और देश की राजनीति पर अपने योगदान से अमिट छाप छोड़ी. मूल रूप से मराठी होने के बावजूद उन्होंने हिंदी और बंगला भाषा एवं साहित्य का प्रचार-प्रसार कर देश की बड़ी सेवा की. यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि महाराष्ट्र और बंगाल में हुए पुनर्जागरण के देउस्कर एक मजबूत संयोजक थे. उन्होंने इतिहास, अर्थशास्त्र, समाज और साहित्य पर अविस्मरणीय और ऐतिहासिक रचनाएं कीं, जिनसे पूरा देश प्रभावित हुआ और भारतीय युवा वर्ग विदेशी सत्ता के खिलाफ आंदोलित हुआ.
मराठी पृष्ठभूमि
देउस्कर के पूर्वज महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के देवास गांव के निवासी थे. इस जिले में आलबान नामक मराठा सरदार छत्रपति शिवाजी का एक प्रख्यात किला था. इसी ऐतिहासिक किले के निकट उनके पूर्वज रहते थे. 18वीं शताब्दी में मराठा शक्ति के प्रसार के काल में उनके पूर्वज देवघर के करौं गांव चले आये और स्थायी रूप से निवासित हो गये. इसी गांव में 17 दिसंबर, 1869 में जन्में देउस्कर की प्रारंभिक शिक्षा देवघर में हुई. 1891 में उन्होंने देवघर के आर मित्र हाई स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा पास की. 1893 में वे इस स्कूल में शिक्षक बने. यहीं वे राजनारायण बोस (अरविंद घोष और वारींद्र घोष के नाना) से मिले. इसी पृष्ठभूमि में उनकी सामाजिक दृष्टि और राजनीतिक चेतना विकसित हुई. इसकी अभिव्यक्ति बंगला के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित उनके आलेखों में हुई. उन्होंने राजनीतिक-सामाजिक विषयो पर ही नहीं, साहित्यिक आलेख भी लिखे. उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि शैक्षणिक थी. माता के निधन के बाद बुआ अन्नपूर्णा बाई ने उनका पालन-पोषण किया और उन्हें मराठी साहित्य से परिचित कराया. उन्होंने सखाराम को महाराष्ट्र के महापुरुषों के अलावा गीता और महाभारत के बारे में बताया. इससे उनमें राष्ट्रवादी दृष्टिकोण पनपा और देउस्कर का रुझान क्रांतिकारी हो गया.
अन्य भाषाओं और विषयों का गहरा अध्ययन
बचपन से ही देउस्कर बड़े होनहार प्रकृति के थे और बहुत ही कम उम्र में उन्होने वेदों का अध्ययन किया और बंगला भाषा का भी ज्ञान प्राप्त कर लिया. उन्होंने संस्कृत का भी अच्छा ज्ञान प्राप्त किया और बहुभाषाविद के रूप में प्रख्यात हुए. अपने प्रिय विषय इतिहास के गहन अध्ययन का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा और वे क्रांतिकारी विचारों और आंदोलन के कट्टर समर्थक हो गये। वे देश में गर्म दल के नेता बाल गंगाधर तिलक को अपना राजनीतिक गुरु मानने लगे. इस प्रकार मराठी और बंगाली पृष्ठभूमि में पले, बढ़े और शिक्षित देउस्कर देश सेवा की ओर उन्मुख हो गये. वे इतने निर्भीक थे कि उन्होंने कलकत्ता से बंगला भाषा में प्रकाशित होने वाले सर्वाधिक प्रभावशाली दैनिक अखबार हितवादी में अंग्रेज मजिस्ट्रेट हार्ड के अन्याय और अत्याचारों का जबरदस्त प्रतिवाद किया और इसकी बेखौफ आलोचना की. अंग्रेज मजिस्ट्रेट हार्ड ने उन्हें शिक्षक के पद से बर्खास्त करने की धमकी दी, तो उन्होंने शिक्षक के पद से त्याग पत्र दे दिया और हितवादी में प्रूफ संशोधक के रूप में कार्य करने लगे, पर बाद में अपनी मिहनत और असाधारण प्रतिभा के बल पर वे हितवादी के संपादक बन गये. इस प्रकार मराठी भाषा-भाषी देउस्कर का बंगला भाषा में प्रकाशित होने वाले लोकप्रिय अखबार हितवादी का संपादक बनना उनके जीवन की एक बड़ी घटना है. इस प्रकार महाराष्ट्र से उन्हें प्रेरणा और प्रोत्साहन मिला. इसकी अभिव्यक्ति उनके राजनीतिक जीवन में हुई.
देउस्कर का राजनीतिक सफर और बंग भंग आंदोलन
देउस्कर के राजनीतिक जीवन की शुरुआत कलकत्ता में सार्वजनिक सेवा से हुई. देश के युवकों को राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत करने के लिए वे कलकत्ता में शिवाजी महोत्सव का आयोजन करने लगे. इन आयोजनों का बड़ा सकारात्मक प्रभाव पड़ा और देउस्कर काफी लोकप्रिय हो गये. उन्होंने बंग भंग आंदोलन से पहले विशेषकर युवकों में स्वदेशी का प्रचार किया और दूसरी तरफ क्रांतिकारी आंदोलन का समर्थन भी किया. देश में जनजागृति के लिए उन्होंने बंगला और हिन्दी साहित्य में उत्कृष्ट रचनाएं कीं और जनजागृति में अहम योगदान किया. उनकी अध्यक्षता में कोलकाता में बुद्धिवर्धनी सभा का गठन किया गया. नवयुवकों में ज्ञान की वृद्धि, उन्हें राजनीतिक शिक्षा देने और आम लोगों में विदेशी को छोड़ कर स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग करने का प्रचार-प्रसार आदि इस सभा के उद्देश्यों में शामिल था. देउस्कर की अगुआई में इस सभा ने स्वदेशी और राजनीतिक जागरण में महत्वपूर्ण योगदान किया. इसके सभी अधिवेशनों में शामिल होकर उन्होंने विभिन्न विषयों पर व्याख्यान दिये और नवयुवको में ज्ञानवृद्धि और देशभक्ति का प्रचार किया. उन्होंने इन सभाओं में प्रत्येक सदस्य को पूर्व से चयनित विषय पर अनिवार्य रूप से बोलने का नियम बनाया. इससे नवयुवकों को राजनीतिक शिक्षा मिली. वे राष्ट्रीय भावनाओं से प्रेरित हुए और उन्होंने बंग भंग आन्दोलन में सक्रिय योगदान किया. इसलिए देउस्कर को ‘बंगाल का तिलक’ कहा गया. इसी सभा के द्वारा स्वदेशी वस्तुओं का प्रचार भी किया गया. इतना ही नहीं, उन्होंने विदेशी वस्त्रों के व्यापारी मारवाड़ियों द्वारा संचालित कलकत्ता स्थित विशुद्धानंद सरस्वती मारवाड़ी विद्यालय के भवन में स्वदेशी प्रचार पर व्याख्यान आयोजित करवाया और स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग पर बल दिया. इस प्रकार बंग भंग आंदोलन 1905 में देउस्कर ने अहम भूमिका निभायी और सबसे पहले स्वदेशी पर जोर दिया. अरविंद घोष के अनुसार सबसे पहले स्वराज्य शब्द का उल्लेख (देशेर कथा में) करने का श्रेय सखारम गणेश देउस्कर को है.
देउस्कर की बेजोड़ पत्रकारिता
बंगाल में बंग भंग विरोधी आंदोलन की गूंज चतुर्दिक सुनाई पड़ने लगी और शीघ्र ही पूरा देश इस आंदोलन के समर्थन में एकीकृत हो गया. हालांकि सरकार को 1911 में बंगाल का विभाजन रद्द करना पड़ा पर इससे पहले ही वर्ष 1906 में सूरत में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशनं में फूट पड़ गयी और कांग्रेस गरम दल और नरम दल में विभाजित हो गयी. अखबार हितवादी के मालिक ने इसके संपादक देउस्कर पर बाल गंगाधर तिलक के विरूद्ध लेख लिखने का दबाव बनाया, पर देउस्कर तिलक के राजनीतिक विचारों के बड़े समर्थक थे और उनके विचारों को देश की एकता के लिए आवश्यक मानते थे. देउस्कर ने तिलक के विरुद्ध लेख लिखने से साफ इन्कार कर दिया जिसके फलस्वरूप उन्हें हितवादी के संपादक पद से इस्तिफा देना पड़ा. इस प्रकार उन्होंने एक निर्भीक पत्रकार होने का परिचय दिया और इसके उसूलों से समझौता नहीं किया. यह उल्लेखनीय है कि वे तत्कालीन समाचार पत्रों की राजनीति से दूर रहे और तटस्थ होकर अपना कार्य सम्पन्न किया. एक पत्रकार के रूप में भी उन्होंने अपनी अमिट छाप छोड़ी.
देउस्कर की बेजोड़ पत्रकारिता
बंगाल में बंग भंग विरोधी आंदोलन की गूंज चतुर्दिक सुनाई पड़ने लगी और शीघ्र ही पूरा देश इस आंदोलन के समर्थन में एकीकृत हो गया. हालांकि सरकार को 1911 में बंगाल का विभाजन रद्द करना पड़ा पर इससे पहले ही वर्ष 1906 में सूरत में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशनं में फूट पड़ गयी और कांग्रेस गरम दल और नरम दल में विभाजित हो गयी. अखबार हितवादी के मालिक ने इसके संपादक देउस्कर पर बाल गंगाधर तिलक के विरूद्ध लेख लिखने का दबाव बनाया, पर देउस्कर तिलक के राजनीतिक विचारों के बड़े समर्थक थे और उनके विचारों को देश की एकता के लिए आवश्यक मानते थे. देउस्कर ने तिलक के विरुद्ध लेख लिखने से साफ इन्कार कर दिया जिसके फलस्वरूप उन्हें हितवादी के संपादक पद से इस्तिफा देना पड़ा. इस प्रकार उन्होंने एक निर्भीक पत्रकार होने का परिचय दिया और इसके उसूलों से समझौता नहीं किया. यह उल्लेखनीय है कि वे तत्कालीन समाचार पत्रों की राजनीति से दूर रहे और तटस्थ होकर अपना कार्य सम्पन्न किया. एक पत्रकार के रूप में भी उन्होंने अपनी अमिट छाप छोड़ी.
‘देशेर कथा’ : जागृति का सूत्र बनी
इसी बीच अपने बड़े पुत्र और अपनी पत्नी की असामयिक मृत्यु से वे गंभीर रूप से प्रभावित हुए, जिससे लगभग 43 वर्ष की अल्पायु में ही उनका निधन (23 नवंबर, 1912) हो गया, पर अपनी अल्पायु में भी उन्होंने साहित्य की बेजोड़ सेवा की और अपनी रचनाओं और आलेखों से इसे समृद्ध बनाने में गौरवशाली और प्रशंसनीय योगदान किया. महामति रानाडे (1901), झासिर राजकुमार (1901), बाजीराव (1902), आनंदी बाई (1903), शिवाजीर महत्व (1903), शिवाजीर शिक्षा (1904), शिवाजी (1904), देशेर कथा (1904), कृषकेर सर्वनाश (1904), देशेर कथा (परिशिष्ट)1907, तिलकेर मोकदमा ओ संक्षिप्त जीवन चरित (1908) आदि उनकी प्रसिद्ध रचनाएं हैं. देशेर कथा में उन्होंने निर्भीक होकर देश की आर्थिक और वाणिज्यिक दुर्दशा की विवेचना की और देश में पराधीनता का अभिशाप तथा विदेशी शासन और शोषण की ओर आमलोगों का ध्यान आकृष्ट किया. इसी पुस्तक से प्रभावित होकर विलियम डिग्वी, दादाभाई नौरोजी और रोमेश चंद्र दत्त आदि प्रख्यात लेखकों ने अपनी रचनाओं में भारतीय अर्थव्यवस्था का विदेशी शोषण और लूट-खसोट पर प्रमुखता से लिखा और इसकी आलोचना की. इस पुस्तक का लेखन और प्रकाशन उस समय हुआ, जब बंगाल का विभाजन नहीं हुआ था. जब देश की बड़ी शोचनीय हालत पर ध्यान देने वाले कतिपय लोग ही थे, उस समय देउस्कर की इस क्रांतिकारी पुस्तक ने देश भर में नवजागरण और नवचेतना की लहर उत्पन्न कर दी. इस पुस्तक का बंग भंग आंदोलन और स्वदेशी आंदोलन पर व्यापक प्रभाव पड़ा. फलस्वरूप स्वदेशी आंदोलन को इस पुस्तक से न केवल बल मिला, बल्कि इसकी मूल प्रेरणा भी इसी पुस्तक से प्राप्त हुई. इसका हिंदी अनुवाद पंडित बाबूराव विष्णु पराडकर ने ‘देश की बात’ शीर्षक से 1910 में किया, पर प्रकाशित होने से पहले ही ब्रिटिश सरकार ने इसे जब्त कर लिया. इसके बावजूद पूरे देश में इसका प्रचार हुआ. ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित उनकी पुस्तकें देशेर कथा और तिलकेर मोकदमा ओ संक्षिप्त जीवन चरित भी कई बार प्रकाशित हुईं. इन पुस्तकों के अलावा इतिहास, धर्म, संस्कृति और मराठी साहित्य पर उन्होंने अनेक आलेख लिखे.उनका घर अरविंद घोष और वारींद्र घोष जैसे प्रख्यात क्रांतिकारियों के मिलने का स्थान था. उन्हीं के घर पर क्रांतिकारी विचार-विमर्श करते, योजनाएं बनाते और इसे कार्यान्वित करने के लिए कार्यक्रम निश्चित करते थे. उन्होंने ही काशी में विष्णु पराडकर को क्रांतिदल की दीक्षा दी थी. लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के कट्टर अनुयायी देउस्कर देश के प्रति इतने प्रतिवद्ध थे कि वे दिन में पत्रकारिता करते और रात में अपने दल के कार्यों का निबटारा करते थे. मराठी होने के बावजूद उनका हिंदी से गहरा लगाव था और हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने प्रशंसनीय प्रयास किये.