Azadi Ka Amrit Mahotsav: वानर सेना में शामिल होकर बाजी राउत ने जलायी थी क्रांति की मशाल

हम आजादी का अमृत उत्सव मना रहे हैं. भारत की आजादी के लिए अपने प्राण और जीवन की आहूति देने वाले वीर योद्धाओं को याद कर रहे हैं. आजादी के ऐसे भी दीवाने थे, जिन्हें देश-दुनिया बहुत नहीं जानती वह गुमनाम रहे और आजादी के जुनून के लिए सारा जीवन खपा दिया. पेश है बाजी राउत की शहादत की पूरी कहानी...

By Prabhat Khabar News Desk | August 3, 2022 12:00 PM
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आजादी का अमृत महोत्सव: बाजी राउत का जन्म 5 अक्टूबर, 1926 को ओडिशा के ढेंकनाल में हुआ था. बाजी की शहादत ने पूरे ओडिशा में आजादी के दीवानों में जोश और गुस्सा पैदा किया, जो एक चिंगारी बनकर स्वतंत्रता संग्राम की ज्वाला बन गयी. बाजी के पिता हरि राउत पेशे से नाविक थे. कम उम्र में ही उनके पिता का निधन हो गया. इसके बाद उनके पालन-पोषण की जिम्मेवारी उनकी मां पर आ गया. मां आस-पड़ोस में खेती से जुड़े काम किया करती थी. उस समय शंकर प्रताप सिंहदेव ढेंकनाल के राजा था और गरीब जनता का शोषण कर कमाई करने के लिए मशहूर थे. इसके चलते ओडिशा में राजाओं और अंग्रेजों के खिलाफ जनता का आक्रोश बढ़ रहा था. ढेंकनाल के रहने वाले वैष्णव चरण पटनायक ने बगावत का बिगुल फूंका. वीर वैष्णव के नाम से पहचाने जाने वाले इस नायक ने ‘प्रज्ञामंडल’ नाम से एक दल की शुरुआत की. इस दल की एक वानर सेना भी थी. जिसमें छोटी उम्र के बच्चे शामिल थे. 12 साल के बाजी इसी वानर सेना का हिस्सा बन गये. पटनायक रेलवे विभाग में पेंटर की नौकरी करते थे. असल में उनका मकसद रेलवे पास पर मुफ्त में घूमते हुए बगावत की आग को दूर-दूर तक फैलाना था. राजा और अंग्रेजों की बढ़ती तानाशाही के कारण जनता एक हो चुकी थी. इसका अहसास होने पर आसपास के राजाओं और अंग्रेजों ने राजा शंकर प्रताप सिंहदेव के लिए मदद भेजी.

फायरिंग में दो ग्रामीणों की मौत के बाद भड़का आक्रोश

10 अक्टूबर, 1938 को अंग्रेज पुलिस गांव के कुछ लोगों को गिरफ्तार कर भुवनेश्वर थाना ले गयी. उनकी रिहाई के लिए गांव के लोग प्रदर्शन करने लगे. इसके बाद पुलिस ने फायरिंग कर दी. जिसमें दो लोगों की मौत हो गयी. इस घटना के बाद लोगों का गुस्सा इस कदर बढ़ गया कि खिलाफत देख अंग्रेजो की टुकड़ी ने गांव छोड़ने की योजना बना ली. पुलिस ने ब्राह्मणी नदी के नीलकंठ घाट से होते हुए ढेकनाल की ओर भागने की कोशिश की. उस वक्त बाजी राउत वहां वानर सेना की तरफ से रात का पहरा दे रहे थे.

बाजी ने गोली लगने के बाद भी नहीं पार करने दी अंग्रेज पुलिस को नदी

नदी किनारे ही बाजी की नाव थी. अंग्रेज पुलिस ने बाजी से कहा कि वह नाव से उन्हें उस पार पहुंचा दे पर वे चुपचाप डटे रहे. जब पुलिस ने दोबारा पूछा तो 12 वर्ष के साहसी बाजी ने इनकार कर दिया. मौके पर जब बाजी ने शोर मचाना शुरू किया तो गुस्सा में एक अंग्रेज पुलिस ने उनके सिर पर बंदूक के बट से वार किया. खून से लथपथ बाजी वहीं गिर गये, लेकिन डटे रहे. इतने में दूसरे पुलिस वाले ने उन पर बंदूक से एक और वार किया. तीसरे ने बाजी राउत को गोली मार दी. अब तक बाजी के चिल्लाने की आवाज दूसरे कार्यकर्ता के कानों तक पहुंच चुकी थी, पर जब तक वह वहां पहुंचते बाजी को गोली लग चुकी थी. बाजी की आवाज सुनकर मौके पर गांव के लोग पहुंचे, तो अंग्रेज पुलिस ने भागने की कोशिश की. इस दौरान अंग्रेज पुलिस ने गांव वालों पर अंधाधुंध गोलियां चलानी शुरू कर दी. कई लोग मारे गये लेकिन 10 अक्टूबर 1938 को बाजी का दिया गया बलिदान इतिहास में अमर हो गया. इस आंदोलन में लोगों में अंग्रेजों के खिलाफ गुस्सा भरा और हक की लड़ाई को तेज किया.

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