Azadi Ka Amrit Mahotsav: अरबिंदो घोष के विचारों से प्रभावित होकर स्वतंत्रता आंदोलन में कूदे थे खुदीराम

खुदीराम बोस के मन में देश को आजाद कराने की ऐसी लगन लगी थी कि 9वीं कक्षा के बाद ही पढ़ाई छोड़ और स्वदेशी आंदोलन में कूद पड़े थे. हिन्दुस्तान पर अत्याचारी सत्ता चलाने वाले ब्रिटिश साम्राज्य को ध्वस्त करने के संकल्प में पहला बम फेंका था और मात्र 19वें साल में खुदीराम बोस फांसी पर चढ़ गए थे.

By Prabhat Khabar News Desk | August 3, 2022 6:00 PM

आजादी का अमृत महोत्सव: देश के महान क्रांतिकारी खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसंबर, 1889 को पश्चिम बंगाल में मिदानपुर जिले के छोटे से गांव हबूबपुर में हुआ था. उनके पिता तहसीलदार थे. खुदीराम की तीन बहनें थीं. खुदीराम का जीवन शुरू से ही संघर्षपूर्ण रहा. जब वह छह साल के थे, तभी उनके माता-पिता चल बसे. बड़ी बहन ने उनकी देखभाल की. उन्होंने मैट्रिक की पढाई हैमिल्टन हाइस्कूल से पूरी की. इसी बीच मिदनापुर में सार्वजनिक व्याख्यानों की एक सीरीज का आयोजन किया गया, जिसे अरबिंदो घोष और सिस्टर निवेदिता संबोधित कर रहे थे. उनके भाषण का खुदीराम पर इतना गहरा असर पड़ा कि उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा लेने का मन बना लिया. 15 साल की उम्र में वह क्रांतिकारी संगठन रिवोल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बन गये. जिसे अनुशीलन समिति के नाम से भी जाना जाता था. इसका नेतृत्व अरबिंदो घोष और उनके भाई बरिंद्र घोष कर रहे थे. ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ पचें बांटने के लिए उन्हें पहली बार गिरफ्तार किया गया. इसके बाद वह सक्रिय रूप से क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे. उस दौरान कलकत्ता के मुख्य प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट डगलस एच किंग्सफोर्ड क्रांतिकारियों के निशाने पर था. लोगों में उसके प्रति बढ़ रहे आक्रोश को देखते हुए सुरक्षा के लिहाज से ब्रिटिश सरकार ने किंग्सफोर्ड का ट्रांसफर मुजफ्फरपुर कर दिया. तब क्रांतिकारियों ने मुजफ्फरपुर किंग्सफोर्ड को मारने की पूरी तैयार कर ली.

अंग्रेज अफसर किंग्सफोर्ड को मारने की मिली थी जिम्मेवारी

किंग्सफोर्ड को मारने की जिम्मेवारी युवा खुदीराम बोस और प्रफुल्ल कुमार चाकी को सौंपी गयी. दोनों मुजफ्फरपुर पहुंचे. वहां कुछ दिन रुक कर किंग्सफोर्ड की गतिविधियों पर नजर रखने लगे. उनके बंगले के पास ही क्लब था. अंग्रेज अफसर और उनके परिवार के लोग शाम को वहां जाते थे. 30 अप्रैल,1908 की शाम किंग्सफोर्ड और उसकी पत्नी क्लब में पहुंचे. मोका देखकर उन्होंने किंग्सफोर्ड की बग्घी में बम फेंक दिया लेकिन दुर्भाग्यवश उस बग्घी में किग्सफोर्ड मौजूद नहीं था, बल्कि एक दूसरे अंग्रेज अफसर की पत्नी और बेटी, जिनकी मौत हो गयी.

भय इतना कि सिर्फ पांच दिन में ही सुना दी गयी फांसी की सजा

खुदीराम बोस और उनके साथी प्रफुल्ल कुमार चाकी यह सोचकर भाग निकले कि किंग्सफोर्ड मारा गया और पुलिस से बचने के लिए दोनों ने अलग-अलग राह पकड़ ली. एक स्टेशन पर पुलिस दरोगा को प्रफुल्ल चाकी पर शक हो गया और उन्हें घेर लिया गया. खुद को घिरा देख चाकी ने खुद को गोली मार ली. वहीं, खुदीराम बोस पूरी रात दौड़ते-भागते ‘वैनी’ नामक स्टेशन पर पहुंचे. वहां एक चाय की दुकान पर उन्होंने पानी मांगा. उस वक्त वहां कुछ सिपाही भी थे. शक होने पर पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और जिला मजिस्ट्रेट वुडमैन के समक्ष पेश किया गया. उन्होंने अपने बयान में स्वीकार किया कि उन्होंने तो किंग्सफोर्ड को मारने का प्रयास किया था, लेकिन इस बात पर बहुत अफसोस है कि निर्दोष मिसेज कैनेडी और उनकी बेटी गलती से मारे गये. यह मुकदमा सिर्फ पांच दिन ही चली. 8 जून, 1908 को उन्हें अदालत में पेश किया गया और 13 जून को उन्हें मौत की सजा सुनायी गया. 11 अगस्त, 1908 को उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया गया.

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