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थिंक-टैंक संस्थाओं की फंडिंग पर रोक

सीपीआर अकेला थिंक टैंक नहीं है, जो सरकार की निगाह में आया है. भारत के लगभग 500 ऐसी संस्थाओं में ऐसे लोग भरे पड़े हैं, जो नयी स्थितियों को पचाने में असमर्थ हैं. नयी दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर जैसी संस्थाओं का नियंत्रण पुराने नेहरूवादियों के हाथ में है, जिनके लिए मार्क्स और लेनिन सिद्धांत हैं.

By प्रभु चावला | January 24, 2024 11:59 PM

बौद्धिक घुसपैठ अनिवार्यतः विचारधारात्मक रूप से प्रभावशाली होती है. दशकों तक विलासी वाम भारत में उचित बना रहा, जहां सत्ता और धन की साझी मार्केटिंग में दावत और हड़ताल साथ-साथ चलते रहे. पिछले सप्ताह मोदी सरकार ने दिल्ली स्थित सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) की फंडिंग को रोक दिया. सतही सोच और बड़ी जेब वाले वामपंथी उदारवादी थिंक टैंक ओपिनियन मार्केट गिरोह के हिस्से हैं, जो शैक्षणिक संस्थानों और मीडिया के एक हिस्से पर काबिज था. समाजवादी सोच और कारोबारी वर्ग की चेतना वाला यह गिरोह तब से सक्रिय था, जब इंदिरा गांधी ने अपने सोवियत नियंत्रकों को खुश करने के लिए भारत की वैचारिक धारा को अपहृत किया था. स्वैच्छिक संस्थाएं केवल मोटे बछड़े ही नहीं, पवित्र गायें भी हैं. समझौते, भ्रम और विभाजन के छाते के नीचे ये परदे के पीछे के खिलाड़ियों का एक विशेषाधिकार प्राप्त क्लब बनाते हैं. शासक कानून बना या तोड़ सकते हैं, पर थिंक टैंक अकादमिक शब्द जाल से भरे शोध पत्रों के जरिये शासन को निर्देशित करते हैं. राजनीतिक टीमों की वैचारिक दौड़ में वे पिछली सीट पर बैठे चालक होते हैं. पिछले सप्ताह भाजपा सरकार ने 50 साल पुराने सीपीआर पर आरोप लगाया कि संस्था देश-विदेश से पैसे हासिल करने के लिए मिले वैधानिक अनुमति का दुरुपयोग कर रही है. आधिकारिक अनुमति को स्थायी रूप से रद्द कर दिया गया है. पिछले साल आयकर अधिकारी इस संस्था के कार्यालय गये थे और कई दस्तावेज लाये थे. सीपीआर का 30 करोड़ रुपये का मौजूदा बजट भारतीय और वैश्विक संस्थानों और सरकारों से आता है. संस्था की प्रमुख यामिनी अय्यर ने विरोध जताते हुए कहा है, ‘इस निर्णय का आधार समझ से परे है और यह अतिशय है. कुछ कारण तो एक शोध संस्थान के संचालन के आधार को ही चुनौती देते हैं.’ सीपीआर ने सरकारी आदेश के खिलाफ अदालत में याचिका दी है. इस संस्था की स्थापना 1973 में हुई थी और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इसे दिल्ली के बेहद खास इलाके चाणक्यपुरी में जमीन का आवंटन किया था. अर्द्ध-सेवानिवृत्त, पर अच्छे जुगाड़ वाले नौकरशाहों, अकादमिकों, पूर्व रक्षा अधिकारियों और कूटनीतिकों का यह एक स्थायी डेरा था. सीपीआर का उद्देश्य सरकार को नीतिगत मामलों में विचार और उपचार उपलब्ध कराना था. क्रमश: संस्था का विस्तार होता गया. इसकी वेबसाइट पर सूचीबद्ध विषयों में कृषि, स्वच्छता, भूमि अधिकार, अंतरराष्ट्रीय एवं रणनीतिक संबंध, संघवाद, शिक्षा, पर्यावरण कानून, शासन, उत्तरदायित्व एवं लोक वित्त, राजनीति आदि शामिल हैं. पांच दशकों में इसने अधिकतर वाम झुकाव के बड़े लोगों से जुड़े लोगों को अपने यहां रखा है. संस्था के आलोचकों के अनुसार, जवाहरलाल नेहरू इसके विचारधारात्मक एवं समाजशास्त्रीय आदर्श हैं.

यह अभी भी वाशिंगटन का सबसे भरोसेमंद भूरी नाक है. बीते एक दशक में संस्था में बुलाये गये विद्वानों और शोध के विषयों की सूची पर सरकारी निगाह डालने से ही साफ हो जाता है कि दोष खोजने का सीपीआर के अभियान का उद्देश्य मौजूदा सरकार की साख गिराना और युवा शोधार्थियों को प्रभावित करना है. अचरज की बात नहीं कि इसकी वर्तमान अध्यक्ष मीनाक्षी गोपीनाथ ने संस्था की 47वीं वर्षगांठ पर कहा कि यह ‘विचारों के मार्केटप्लेस में गहरे रूप से एक उदारवादी संस्था है, सीपीआर एक मंच है, केवल संगठन नहीं.’ सरकारी कार्रवाई के बाद इसकी प्रमुख यामिनी अय्यर ने बताया कि 50 साल पुराने इस संस्था की गौरवपूर्ण विरासत है कि इसने भारत के नीति-निर्धारण में बड़ा योगदान किया है. भारत का अनुदार ढांचा धीरे-धीरे ढह रहा है. शायद नीति-निर्धारण को प्रभावित करने की संस्था की लत से सरकार चिढ़ गयी होगी. इसके अधिकतर बोर्ड सदस्य संघ परिवार विरोधी हैं. वाजपेयी सरकार के आने के बाद सीपीआर ने अपनी वैचारिक राह बदलने की कोशिश की थी. इसने ऐसे सेवानिवृत्त अधिकारियों को बोर्ड में शामिल किया, जो उदारवादी भी थे और प्रधानमंत्री कार्यालय के करीबी भी थे. वाजपेयी सरकार के जाने के बाद संस्था अपने पुराने ढंग में लौट आयी. तब से इससे जुड़े लोग बड़ी संख्या में मोदी सरकार के विरुद्ध लेख लिख रहे हैं. अब सरकार ने अपने नीतिगत पहल के खिलाफ राजनीतिक विरोध के वित्तपोषण के लिए सीपीआर को अंगुली कर दी है.

उल्लेखनीय है कि सीपीआर के वेबसाइट पर पहले के प्रबंधन के बारे में विवरण नहीं है. यदि वह सामने आ जाये, तो इसका राष्ट्रवाद विरोधी स्वभाव का खुलासा हो सकता है. बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन, फोर्ड फाउंडेशन, ब्रिटिश विदेश विभाग, आंध्र प्रदेश सरकार, हेवलेट फाउंडेशन, मैकआर्थर फाउंडेशन, नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा, पिरामल स्वास्थ्य मैनेजमेंट एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट, रोहिणी नीलेकनी और अमेरिकी विदेश विभाग इसके बड़े धनदाता हैं. इनमें से ज्यादातर मोदी से घृणा करते हैं. विलुप्त होने से बचाने के लिए थिंक टैंक प्रजाति को भारत के लिए सोचना और भारतीयों की तरह व्यवहार करना चाहिए. हालांकि भाजपा सरकार की नजर इस पर है, पर वरिष्ठ नौकरशाह और कुछ केंद्रीय मंत्री इसकी गतिविधियों में हिस्सा लेते रहे हैं. मसलन, नीति आयोग में आने से पहले सुमन बेरी सीपीआर डॉयलॉग्स में सक्रिय हिस्सा लेते रहे थे. जल शक्ति मंत्रालय ने सीपीआर को दिल खोल कर पैसा दिया है. लेकिन केसरिया नेतृत्व को लगता है कि सीपीआर को राष्ट्रवादी विद्वानों को जगह देना तथा मोदी सरकार के ताकतवर लोगों के करीबियों को उपकृत करना पसंद नहीं है. प्रधानमंत्री कार्यालय और गृह मंत्रालय को झांसा नहीं दिया जा सकता है. उनकी नजर सीपीआर के शोध पत्रों, विद्वानों की विदेश यात्राओं और आमंत्रित विदेशी विद्वानों पर है.

सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च अकेला थिंक टैंक नहीं है, जो सरकार की निगाह में आया है. भारत के लगभग 500 ऐसी संस्थाओं में ऐसे लोग भरे पड़े हैं, जो नयी स्थितियों को पचाने में असमर्थ हैं. नयी दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर जैसी संस्थाओं का नियंत्रण पुराने नेहरूवादियों के हाथ में है, जिनके लिए मार्क्स और लेनिन सिद्धांत हैं. इन संस्थानों पर विदेशों में पढ़े और ताकतवर परिवारों से जुड़े वामपंथी अभिजात्य हावी हैं. वहां शामिल होने के लिए प्रवेश और आमंत्रण चयनात्मक और रहस्यात्मक है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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