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भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां के शहर में नई पीढ़ी नहीं सीख रही शहनाई, कभी हुआ करती थी बनारस की शोभा

भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां के शहर वाराणसी में एक समय था जब शहनाई की शिक्षा देने वाले उस्तादों की द्वार पर बच्चों की भरमार होती थी. मगर अब शहनाई कार्यशाला खाली है, गिनती के बच्चे शहनाई सीखने के लिए आ रहे हैं.

भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां के शहर में शहनाई का जगह तबला और कथक ने ले लिया है. एक समय था जब शहर में शहनाई की तालिम देने वाले उस्तादों की चौखट पर बच्चों का हुजूम लगता था. मगर अब शहनाई कार्यशाला शार्गिदों से खाली है. साथ ही गिनती के बच्चे शहनाई सीखने आ रहे हैं. इस कारण उन कार्यशाला को साज बदलने पड़ रहे हैं. वहीं तबला और कथक सीखने के लिए भरपूर बच्चे मिल जा रहे हैं.

दरअसल, स्पिक मैके की तरफ से पीएन इंटर कॉलेज और संत अतुलानंद में शहनाई की कार्यशाला आयोजित की गई थी. सबसे पहले शहनाई के लिए बच्चे तलाशे गए, लेकिन कोई इच्छा से आगे नहीं आया. ऐसे में आयोजकों ने चार बच्चों को ढूंढा और शहनाई सिखाने लगे. शहनाई की कार्यशाला किसी तरह से पूरी की गई. इससे आयोजक भी निराश हुए.

स्पिक मैके की प्रदेश कोषाध्यक्ष डॉ शुभा सक्सेना का कहना है कि शहनाई के शहर में शहनाई की ये हालत चिंताजनक है. यही हाल रहा तो अगली कार्यशाला से शहनाई को हटाया भी जा सकता है. शहनाई के उस्ताद बिस्मिल्लाह खां के जाने के बाद काशी में शहनाई के सुर अब गुमनाम हो गए हैं. शहनाई बजाने वालों को तो अब तो शादी-विवाह में भी नहीं बुलाया जाता है. अब गिने चुने कलाकार ही बचे हैं. समय रहते अगर शहनाई को सहेजा नहीं गया तो यह वाद्ययंत्र आने वाले समय में लुप्त भी हो सकता है. शहनाई वादक दुर्गा प्रसन्ना का कहना है कि नई पीढ़ी में तो कोई शहनाई सीख ही नहीं रहा है.

कलाकारों का बुरा हाल

दीपिका कल्चरल सोसायटी आफ इंडिया के अध्यक्ष अजय गुप्ता पिछले 20 साल से शहनाई को सहेजने में लगे हुए हैं. उनका कहना है कि शहनाई की दुर्दशा के कारण कलाकार तो अब साड़ी बीन रहे हैं. कोई टोटो चला रहा तो कोई चांदी का वरक कूट रहा है. सरकार को भी इस दिशा में ध्यान देना होगा. पहले देश में जितने भी बड़े लोगों की शादियां होती थीं, उनमें बनारस की शहनाई एक शोभा हुआ करती थी.

तिलक और बरात में भी नहीं होगी मयस्सर शहनाई की धुन

वरिष्ठ पत्रकार राजेश गुप्ता का कहना है कि दुनिया कभी शहनाई से फूटे चैती और कजरी की तान से मदमस्त होती थी, आज उसी साज की धुनें गमजदा हैं. क्योंकि घरानेदार संगीत की दुनिया में गायन, वादन और नृत्य में सितार, तबला, सारंगी, हारमोनियम इन सबके तमाम गुरुकुल और प्रशिक्षण संस्थान संगीत की नई फौज तैयार करने में जुटे हुए हैं. जिस शहनाई को बिस्मिल्लाह खां ने बधावा, तिलक और बरात से उठाकर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर स्थापित किया, उसी शहनाई की धुन अब आने वाले दिनों में बधावा, बरात, तिलक और पुज्जैया में भी मयस्सर नहीं होगी.

बनारस से पैदा हुई और यहीं तोड़ रही दम

शहनाई वादक महेंद्र प्रसन्ना का कहना है कि अब तो आकाशवाणी और दूरदर्शन में भी शहनाई के कलाकार नहीं हैं. गिनती के कलाकार हैं. उनके जाने के बाद शहनाई का कोई नामलेवा भी नहीं रह जाएगा. शहनाई बनारस से ही पैदा हुई और आज बनारस में ही दम तोड़ रही है. डीजे, ढोल के कारण शहनाई की मंगल ध्वनि परंपरा लुप्त हो गई है.

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