Exclusive Interview धनबाद : बोकारो व धनबाद जिला में राज्य सरकार द्वारा क्षेत्रीय भाषा की सूची में अंगिका, भोजपुरी व मगही को शामिल किया गया है. इसके खिलाफ दोनों ही जिले में झारखंडी भाषा संघर्ष समिति के बैनर तले आंदोलन चल रहा है. पिछले दिनों नगेन मोड़ से महुदा मोड़ तक आयोजित मानव शृंखला में लगभग दो लाख लोग जुटे.
इसके बाद हर रोज जगह-जगह सभा हो रही है. तोपचांची के मानटांड़ निवासी जयराम महतो इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हैं. प्रभात खबर के िलए नारायण चंद्र मंडल ने जयराम महतो से कई बिंदुओं पर बातचीत की. प्रस्तुत है मुख्य अंश.
झारखंडी भाषा संघर्ष समिति का आंदोलन 1932 के खतियान के आधार पर स्थानीय व नियोजन नीति बनाने तक जारी रहेगा. आंदोलन के पीछे न सत्ता पक्ष का उकसावा है, न ही विपक्ष का हाथ. यह आंदोलन अपने अधिकार से वंचित युवा वर्ग का है. युवाओं में जज्बा है. इस जज्बे को संघर्ष के रूप में मैदान में उतार रहे हैं. मंजिल पाने तक हम न रुकेंगे, न झुकेंगे.
बोकारो व धनबाद जिला में राज्य सरकार की नियुक्तियों में भोजपुरी, मगही व अंगिका को शामिल किया गया है, इसके तात्कालिक कारण हैं. हमारी किसी दूसरी भाषा या भाषा बोलनेवालों से लड़ाई नहीं है, बल्कि लड़ाई सीधे सरकार से है. सरकार ने गलती की है. हम अपने संवैधानिक अधिकार की मांग सरकार से नहीं करेंगे, तो किससे करेंगे. इसीलिए झारखंडी भाषा संघर्ष समिति का गठन कर आंदोलन किया जा रहा है.
बेशक, रघुवर सरकार के समय से ही अधिकारों का हनन किया जा रहा है. लेकिन रघुवर दास से हमें उम्मीद नहीं थी. उसे उखाड़ फेंकना था. उखाड़ दिये. अब आंदोलनकारी शिबू सोरेन के बेटे से भी यदि हम उम्मीद नहीं रखें, तो किससे रखें. झामुमो ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में जिन बिंदुओं को उल्लेख किया है, वह तो दे दे. रही बात आजसू की, तो चर्चित किसान आंदोलन में राजद, वाम दल समेत कई दलों के लोग भाग ले रहे थे.
वह राजनीतिक दलों का तो आंदोलन नहीं था, किसानों का था. आजसू आज कमजोर हो गयी है. मात्र दो सीट है. आजसू का समिति से कोई मतलब नहीं है, वह हमारी मांग का समर्थन कर रही है, तो अच्छी बात है. एक दिन ऐसा आयेगा जब सबको हमारे सुर में सुर मिलाना होगा, क्योंकि हम अस्मिता की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहे हैं.
विवाद सरकार ने पैदा किया है. जब राज्य अलग हुआ, तो यहां की संस्कृति, परंपरा व भाषा का भी विकास होना चाहिए, सम्मान मिलना चाहिए. दूसरी भाषा बोलनेवालों से नहीं, लड़ाई उक्त भाषाएं हमारी खोरठा, कुड़माली व जनजातीय भाषाओं से समृद्ध है.
वे भाषाएं हमारी भाषा को निगल जायेंगी. जिस तरह हमारे जंगल, हमारी जमीन का अतिक्रमण हुआ है, उसी तरह हमारी भाषा-संस्कृति का भी अतिक्रमण किया जायेगा. एक दिन ऐसा आयेगा कि गांवों में खोरठा-कुड़माली-संताली ही खत्म हो जायेंगी. इस भयंकर दुष्परिणाम को रोकने के लिए आंदोलन जरूरी है. हम कहां अनुचित मांग कर रहे हैं.
चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया जस्टिस एम हिदायतुल्ला ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि संविधान के अनुच्छेद 16 (3) का अनुपालन राज्य करे. इस अनुच्छेद में उल्लेख है कि विकसित राज्यों का अतिक्रमण रोकने के लिए स्थानीय लोगों को प्राथमिकता मिले. प्राथमिकता में भाषा व नियोजन भी शामिल है.
यह एकदम अनुचित होगा. झारखंड औद्योगिक क्षेत्र है. यहां विभिन्न प्रांतों के लोग रोजगार के लिए आते हैं. फिर सेवानिवृत्त होने के बाद कुछ चले जाते हैं या कुछ रह जाते हैं. इसका अर्थ यह नहीं है कि जो लोग रोजगार के लिए आये, वे झारखंडी हो गये. ऐसा होगा, तो नष्ट हो जायेगी हमारी परंपरा, हमारी संस्कृति व भाषा.
अखंड बिहार में भी दक्षिण बिहार के पठारी क्षेत्र (जो अब झारखंड है) का रहन-सहन, खान-पान, भाषा संस्कृति अलग रही. उत्तर बिहार के कल्चर से हमारा मेल-जोल नहीं रहा. जनजातीय क्षेत्र की अपनी अलग पहचान रही. अलग राज्य का गठन इसलिए ही किया गया था. हम बिहार या यूपी के रहने वाले उन लोगों को झारखंडी मानने को तैयार हैं, जो हमारी भाषा-संस्कृति व परंपरा को अपना चुके हैं.
लेकिन दोहरी नागरिकता बर्दाश्त नहीं की जायेगी. आधार कार्ड बिहार-यूपी का, वोटर कार्ड झारखंड का भी और बिहार-यूपी का भी. एक पहचानवाले से हमारी दिक्कत नहीं है. विरोध हमारा दोहरी पहचान वालों से है. उदाहरण के लिए बाघमारा प्रखंड की प्रमुख 2010 में रविता देवी थीं. वह बिहार की थीं. चुनाव जीत कर आयी और प्रमुख जैसे महत्वपूर्ण पद पर पांच साल बनी रही.
जब बिहार में वैकेंसी आयी, तो फॉर्म भर कर बिहार में कांस्टेबल बन गयी. इसी तरह फागु महतो उच्च विद्यालय महुदा के दो छात्र थे. एक भाई ने वर्ष 2017-18 में झारखंड में दारोगा की परीक्षा निकाली, जबकि दूसरे भाई ने बिहार में कांस्टेबल की परीक्षा निकाली. दोनों ही भाई नौकरी कर रहे हैं. विरोध इसी बात का है. आप दो नाव पर पैर मत रखें. एक ही आइडेंटिफिकेशन होनी चाहिए. इसलिए यह लड़ाई खुद को अतिक्रमण से बचाने की है.
जवाब : हम अपना संवैधानिक अधिकार मांगते हैं, तो कुछ नेता या दल इसे बाहरी-भीतरी की बात करने लगते हैं. अपना हक मांगना यदि बाहरी-भीतरी है, तो यह सुनने के लिए हम तैयार हैं. हमारा उद्देश्य यह नहीं है. हमारा साफ उद्देश्य है संस्कृति व परंपरा की रक्षा करना व 1932 का खतियान लागू करवाना.
यदि दोहरी नागरिकता वाले हैं, तो हमारी कोई सहानुभूति नहीं है, लेकिन यदि यहां रह गये हैं या फिर हमारी संस्कृति-भाषा को अपना लिये हैं, तो कमेटी बना कर वैसे लोगों के बारे में सरकार को सोचने के लिए मजबूर करेंगे. बाकी अधिकारियों के पद के बारे में हम कहां कुछ कहते हैं. क्या अपने राज्य में चपरासी-किरानी बनने का भी अधिकार झारखंडी युवाओं को नहीं है?
पहले भोजपुरी-मगही व अंगिका भाषावाले जो हमारा विरोध कर रहे हैं उनसे पूछिये कि अपनी जन्मस्थली बिहार या यूपी में वे भाषाएं क्षेत्रीय भाषा की सूची में शामिल हैं क्या? यदि वहां नहीं, तो यहां मांग करना हास्यापद नहीं तो क्या है, जिसे पहले सीएम रघुवर दास ने और अब हेमंत सोरेन ने नहीं समझा. वोट के लिए सरकार लोगों को लड़वा रही है.
उन जिलों के लिए सरकार मान्यता दे, हमें कोई विरोध नहीं.
एकदम नहीं. मैं विद्यार्थी हूं. पीएचडी कर रहा हूं. हमें राजनीति से कोई मतलब नहीं, लेकिन युवाओं की फौज यदि मजबूर करेगी, तो गुरेज भी नहीं.
पूरी कमेटी की बैठक कर फैसला किया जायेगा कि आगे क्या किया जाए. महात्मा गांधी ने कहा था आजादी के बाद कांग्रेस को खत्म कर देना चाहिए, हमलोग भी समिति को खत्म कर नया संगठन बनाने के बारे में सोचेंगे. 2024 में यह देखा जायेगा.
1985 में असम में कुंवारों की सरकार थी. ऑल असम स्टूडेंट यूनियन के बैनर तले युवा वर्ग ने सरकार को पलट दिया था. चुनाव में वहां की संस्कृति की रक्षा के लिए जो युवा संघर्षशील थे, वे ही जीत कर आये थे. उस सरकार को कुंवारों की सरकार नाम दिया गया था. उसी तरह 2024 में यहां भी होगा. सारे दल देखते रहेंगे.
कोई धमकी नहीं मिली. बांग्लादेश के एक समाजसेवी, बिहार के एक जज व दिल्ली से किसान आंदोलन के कई नेता ने फोन कर हमारी हौसला अफजाई की. सभी ने हक के लिए आगे बढ़ने का मनोबल बढ़ाया. हम रुकने वाले नहीं हैं, झुकने वाले नहीं है. हर गांव में खुद ब खुद कमेटी बन रही है. कुछ नेताओं की नींद उड़ गयी है, हमारी नहीं. कोई एक जयराम को डरा सकता है, गांव-गांव में जयराम पैदा हो गये हैं.