बिहारशरीफ. दीपावली, छठपूजा, शादी-ब्याह व अन्य अवसरों पर मिट्टी के कुछ बर्तनों का उपयोग करने की परंपरा बहुत पुरानी है. इन अवसरों पर मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हारों के सामने आज अपनी इस कला का जीवित रखना भी दुष्कर हो गया है. दीये, मिट्टी से बने खिलौने व दूसरे बर्तन बनाने के लिए गांव के जिन तालाबों से ये कुम्हार मिट्टी निकालते थे, उस पर अब लोगों को आपत्ति है.
इसी वजह अब कुम्हार मिट्टी की इन चीजों को बनाने के लिए मिट्टी खरीदनी पड़ रही है. वे आज तीन हजार रुपये में एक ट्रैक्टर मिट्टी मंगाने को मजबूर हैं. यही कारण है कि मिट्टी के दीये, खिलौने व बर्तनों की कीमत बढ़ गयी है. इसकी वजह से इनके खरीदार कम होते जा रहे हैं. गोल-गोल घूमते पत्थर के चाक पर मिट्टी के दीये, खिलौने व अन्य सामग्री बनाने वाले इन कुम्हारों की अंगुलियों में जो कला है, वह अन्य को नसीब नहीं है.
लोगों को इन कुम्हारों की याद दीपावली, छठ जैसे त्योहार आने पर हर शख्स को आती है. तालाबों से मिट्टी लाकर सुखाना, सूखी मिट्टी को बारीक कर उसे छानना और उसके बाद गीली कर चाक पर रख तरह-तरह की वस्तुओं का आकार देना इन कुम्हारों की जिंदगी का अहम काम है. इसी हुनर की बदौलत कुम्हारों के परिवार का भरण-पोषण होता है. कुम्हार समाज की महिलाएं भी पुरुषों के साथ काम करती है. चाक चलाने का काम पुरुष करते हैं तो मिट्टी भिंगाने और उसे तैयार करने का काम महिलाएं करती हैं. तैयार बर्तनों व खिलौने को रंगने का काम महिलाएं करती हैं.
स्थानीय गगन दीवान मोहल्लों के राजू पंडित, सरयुग पंडित, विजय पंडित, रंजीत पंडित व पप्पू पंडित बताते हैं कि दो वक्त की रोटी के लिए कड़ी धूप में मेहनत करने और इस काम में महीनों लगे रहने के बाद भी न तो मिट्टी के बर्तनों, दीये व खिलौने के वाजिब दाम मिलते हैं और न ही खरीदार मिलते हैं. समय की मार और आधुनिक परिवार के चलते लोग अब दीपावली में मिट्टी के दीये उतने पसंद नहीं करते हैं.
दीपावली पर दीये शगुन के रूप में टिमटिमाते नजर आते थे, जो अब लुप्त होने के कगार पर है. कच्चा माल भी महंगा हो गया है. दिन-रात मेहनत करने के बाद मजदूरी के रूप में 80 से 100 रुपये की ही कमाई हो पाती है. आर्थिक स्थिति डंवाडोल होने की वजह से अब लोग अपने पुस्तैनी कार्य व कारोबार छोड़ परिवार के भरण-पोषण के लिए अन्य कार्यों की ओर रूख कर चुके हैं