Board Exam 2024: 10वीं और 12वीं की परीक्षाओं के डेट शीट जारी होने लगे हैं. इसके अतिरिक्त जूनियर क्लासेज की परीक्षाएं भी फरवरी के महीने से शुरू होंगी. माहौल ऐसा है कि लगता है छात्रों के साथ उनके अभिभावकों की भी परीक्षा चल रही है. किसी भी मध्यमवर्गीय या उच्च मध्यमवर्गीय घरों में चले जाए तो निःशब्द शांति नजर आती है या कहें की घुटन सा माहौल रहता है. ऐसा लगता है जैसे बच्चों और पेरेंट्स दोनों के लिए जीत या हार के लिए जंग शुरू हो गया है. पढ़ाई और करियर के बोझ तले छात्र और उनके पैरेंट्स दोनों दबाव में हैं. कुछ मामलों में ऐसा लगता है की अवसाद में नजर आते हैं. छात्रों के बीच बढ़ रहे आत्महत्या और हिंसा के मामले कहीं न कहीं इस बढ़ते दबाव को साबित भी कर रहा है. ऐसा लगता है हम बच्चों और युवाओं की भावना को नहीं समझ पा रहे हैं या बच्चे और युवा बड़ों को नहीं समझ पा रहे हैं.
वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन की रिपोर्ट हेल्थ फॉर एडोल्सेन्ट्स (2014) में अवसाद को 10 से 19 वर्ष के किशोरों की बीमारी और अक्षमता का मुख्य कारण बताया गया है. सड़क दुर्घटना और एचआइवी (एड्स ) के बाद सबसे ज्यादा किशोरों की मृत्यु अवसाद के कारण होती है. रिसर्च से ये भी साबित हुआ है कि जिन परिवारों में पैरेंटस और परिवार के सदस्य अवसाद से ग्रसित हैं, उन परिवारों के बच्चों में अवसाद होने का प्रतिशत बढ़ जाता है. खुले माहौल में जब भी चर्चा छात्रों, पेरेंट्स और उनके पैरेंट्स के साथ संवाद करेंगें तो अधिकतर मामलों में कुछ बातें साफ नजर आती है.
अभिभावक बच्चों के माध्यम से अपने सपनों को साकार करने की कोशिश करते हैं. बच्चों से जब संवाद होता है, तो वे खुल कर बोलते हैं कि वे अपने माता-पिता के सपनों के तले दबा हुआ महसूस करते हैं. हर अभिभावक यह चाहता है कि उसका बेटा सबसे अव्वल रहे. डॉक्टर बने, अभियंता बने, आइएएस बने. कोई ये नहीं पूछता है कि तुम्हारे सपने क्या हैं ?
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टेक्नोलॉजी ने जीवन को आसान बनाने का काम किया है, लेकिन मोबाइल, इंटरनेट, सोशल मीडिया और एकल परिवार ने माता-पिता, परिवार और बच्चों के बीच संवादहीनता बढ़ा दी है. आज बच्चे फेस टू फेस कम फेसबुक पर ज्यादा संवाद करते हैं.
हालिया रिसर्च से कुछ आंकड़े सामने आये हैं. किशोरों में आत्महत्या की दर बीते पांच-सात सालों में तेजी से बढ़ी है. रिसर्च में पाया गया है कि यही वह दौर है, जब सोशल मीडिया का उपयोग भी तेजी से बढ़ा है और इन दोनों में बड़ा संबंध है. ये आंकड़े फेडरल सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (एफसीडीसी) के हैं. मेंटल हेल्थ रिसर्चर्स ने दावा किया है कि किशोरों में सोशल मीडिया पर दूसरे की लाइफ स्टाइल से प्रभावित होने की प्रवृत्ति एवं सोशल मीडिया पर परेशान किये जाने जैसी बातें उनकी आत्महत्या का कारण हो सकती हैं.
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कंक्रीट के जंगलों के बढ़ने के कारण खेल के मैदानों की कमी हो रही है, जिससे किशोरों का सर्वांगीण विकास नहीं हो पा रहा है. आज बच्चे मैदान में खेलने की बजाय मोबाइल में गेम ज्यादा खेल रहे हैं. बाकी कसर तो पढ़ाई के दबाव ने पूरी कर दी है. विराट कोहली ने हालिया इंटरव्यू में कहा है कि मैंने अपना काफी कीमती समय सोशल मीडिया में बर्बाद कर दिया और मैं बच्चों और युवाओं से कहना चाहूंगा कि वो आउटडोर खेल पर ज्यादा समय दें. इससे शारीरिक और मानसिक विकास होगा.
शिक्षकों और किशोरों की यह बहुत बड़ी शिकायत है कि अभिभावक बच्चों की सुविधाओं का तो ख्याल रख रहे हैं, लेकिन उनके पास अपने बच्चों के लिए समय नहीं है. हालांकि अभिभावकों की अपनी दलील है. अगर कोई अभिभावक जीवन-यापन की समस्या से जूझ रहा है या बमुश्किल अपना जीवन-यापन कर रहा है, तो वह नहीं चाहता है कि उसका बच्चा भी जीवकोपार्जन के लिए संघर्ष करे.
किशोरावस्था में बच्चे स्वभाव से थोड़ा उग्र होते हैं. कहते हैं कि जब हम खुद से कोई निर्णय लेते हैं तो माता पिता कहते हैं कि तुम तो अभी छोटे हो और अगर कोई काम नहीं कर पाते हैं, तो ये कहा जाता है कि इतने बड़े हो गये हो, लेकिन अभी भी समझ नहीं बढ़ी है. शिक्षकों के अपने विचार हैं. अभिभावक अपने बच्चे को सबसे बेहतर देखना चाहता है, लेकिन वह सब कुछ स्कूल के भरोसे ही छोड़ना चाहता है.
शिक्षकों पर भी सिलेबस पूरा करने का दबाव होता है. एक दौर था कि बच्चों पर सख्ती करने पर अभिभावक खुश होते थे. आज बच्चों को मामूली डांट पड़ने पर भी अभिभावक आपत्ति दर्ज करा देते हैं. एक वाकया स्कूल के एक प्रिंसिपल ने सुनाया. उनके स्कूल में बच्चों का मोटर साइकिल से स्कूल आना मना है. एक बार एक अभिभावक को बुलाकर शिकायत की गयी कि उनका बच्चा मोटर साइकिल से स्कूल आता है और मोटर साइकिल स्कूल के बाहर एक चाय की दुकान पर पार्क करता है, तो अभिभावक उन्हीं पर भड़क गये और कहा कि जब मुझे कोई आपत्ति नहीं है, तो आपको क्या तकलीफ है.
शिक्षकों और प्रधानाध्यापकों का कहना है कि ज्यादातर अभिभावकों को पैरेंटिंग आती ही नहीं है. बच्चे, अभिभावक और शिक्षक तीनों के तर्क को आसानी से खारिज नहीं किया जा सकता है. बाल मनोवैज्ञानिक और एक्सपर्ट्स का मानना है कि बच्चों के साथ सामंजस्य बहुत आसान नहीं है, लेकिन इसके अतिरिक्त कोई चारा भी नहीं है.
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बच्चों के साथ दोस्ताना संबंध बनाने की जरूरत है. उनके साथ ज्यादा संवाद करने की जरूरत है, ताकि वे अपने मन की बात अपने अभिभावक और शिक्षकों के साथ आसानी से साझा कर सकें.
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बच्चों के व्यवहार में कोई असामान्य बदलाव हो, तो उसे समझने और जानने की कोशिश करें. उसे इग्नोर करना धीरे-धीरे बड़े परेशानी का कारण बन सकता है.
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बच्चों की क्षमता को पहचाने और उसी के आधार पर उनके करियर की प्लानिंग करें. दूसरे बच्चे से उसकी तुलना करना बच्चे पर अनावश्यक दबाव बनाना है.
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बच्चों की जरूरतों का ख्याल रखें, लेकिन उसकी हर जिद को मानने की जरूरत नहीं है.
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बच्चों को टेक्नोलॉजी से रू-ब-रू करायें, लेकिन उसके इस्तेमाल की तय समय सीमा रखनी चाहिए.
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सामान्य पढ़ाई के साथ-साथ बच्चों को नैतिक शिक्षा भी दें, ताकि वो अच्छा इंसान बन सके.
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स्कूलों के करिकुलम में बदलाव कर क्रिएटिव लर्निंग पर फोकस करने की जरूरत है, ताकि शिक्षा का अनावश्यक दबाव कम हो.
बच्चों के मनोविज्ञान पर काम करने वाला एक अमेरिकी संस्थान वेल की हैदराबाद स्थित भारतीय शाखा ने तीन साल के शोध के बाद जो परिणाम हाल में जारी किया है, उसके मुताबिक भारतीय बच्चों की सुख-सुविधा में वृद्धि के साथ उनमें सहिष्णुता की कमी आयी है. देश भर के गांव व शहरों के छह हजार बच्चों से पूछे गये सवाल और उनके व्यवहार पर पाया गया कि जिन बच्चों के जीवन में थोड़ी कठिनाई है, थोड़ा अभाव है या उनकी मांगें जल्द पूरी नहीं होती हैं, उनमें सहिष्णुता का स्तर सुविधा संपन्न बच्चों से ज्यादा है.