प्रो शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित
कुलपति (जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय)
हम भारतीय गणतंत्र एवं संविधान के 75 वर्ष पूरा होने, विशेष रूप से आधुनिक भारत के सबसे बड़े आदर्श बाबासाहेब डॉ बीआर अंबेडकर, उनके जीवन एवं कार्यों, का उत्सव मना रहे हैं. नेहरूवादी राज्य ने उनके साथ जो व्यवहार किया, उसके बारे में सोचना आंखें खोल देने वाला है. ऐसे में कोई भी छात्र यह पूछ सकता है- क्या नेहरूवादी राज्य के आचरण में कैंसिल कल्चर शामिल था? बाबासाहेब और कई अन्य लोगों के साथ तो ऐसा आचरण अवश्य रहा. उनके बारे में लिखी किताबों से इसके कई कारणों का पता चलता है. ऐसी ही एक उल्लेखनीय किताब सविता अंबेडकर की आत्मकथा ‘बाबासाहेब: माइ लाइफ विद डॉ बीआर अंबेडकर’ है. यह पढ़ना मार्मिक है कि किस तरह कांग्रेस और कम्युनिस्टों ने मिलकर 1952 में उत्तरी बंबई की लोकसभा सीट से बाबासाहेब अंबेडकर को हराने का उपक्रम किया था. बहुत देर से सातवें प्रधानमंत्री विश्वनाथ सिंह के कार्यकाल में ही 1990 में बाबासाहेब को भारत रत्न से सम्मानित किया जा सका था. भारतीय राज्य ने स्वतंत्रता के बाद 43 वर्ष और गणराज्य बनने के चार दशक बाद उस व्यक्ति का सम्मान किया, जिसके कारण यह संभव हुआ था. यह नेहरूवादी राज्य के कैंसिल कल्चर का सबसे बड़ा उदाहरण है.
बाबासाहेब सेकुलरिज्म की कांग्रेस-लेफ्ट परिभाषा के खांचे के अनुरूप नहीं थे. उनके और द्रविड़ विचारधारा की पार्टियों के लिए केवल वे ही लोग सेकुलर हैं, जो हिंदुओं की आलोचना करते हैं. ऐसी वर्चस्ववादी परिभाषा में बाबासाहेब नहीं समाते थे. बाबासाहेब अपने लेखन में केवल हिंदुओं के बड़े आलोचक नहीं थे, बल्कि उन्होंने सभी धर्मों, खासकर मुस्लिमों, की उतनी ही आलोचना की. उन्होंने लिखा है, ‘एक मुस्लिम की संबद्धता उसके अपने देश में निवास पर नहीं, बल्कि उसकी अपनी आस्था पर आधारित होती है. इस्लाम कभी भी एक सच्चे मुस्लिम को भारत को मातृभूमि के रूप में अपनाने तथा एक हिंदू को अपना परिजन मानने की अनुमति नहीं देगा.’ यह बात नेहरूवादी राज्य को स्वीकार्य नहीं थी, इसलिए सही मायनों में सेकुलर और बड़े बौद्धिक होने के कारण उन्हें दरकिनार किया गया. दूसरी बात यह थी कि बाबासाहेब कांग्रेस और दलितों के उत्थान में उसकी भूमिका को लेकर आलोचनात्मक थे. अछूतों के लिए कांग्रेस और गांधी द्वारा किये गये कार्यों पर 1945 में पहली बार प्रकाशित हुआ उनका अध्ययन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की राजनीति का विश्लेषण है. संक्षेप में कहें, तो यह किताब गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 के तहत फरवरी 1936 में हुए प्रांतीय विधायिकाओं के चुनाव परिणामों का विस्तृत परीक्षण है. डॉ अंबेडकर उस चुनाव के दौरान ताकतवर और बुर्जुआ वर्चस्व वाली कांग्रेस पार्टी की तुलना में अनुसूचित जातियों के उम्मीदवारों के राजनीतिक विशेषाधिकारों के अभाव का गहन विवरण उपलब्ध कराते हैं. इस किताब का लक्ष्य दलित आबादी के ‘उद्धारक’ के रूप में महात्मा गांधी की अनुचित लोकप्रियता का खंडन करना है.
डॉ अंबेडकर ने कांग्रेस पार्टी के इस दिखावे को चुनौती दी कि वह बुनियादी तौर पर एकीकृत भारत की प्रतिनिधि है, जो 1937 के चुनाव परिणामों को उद्धृत करते हुए यह दावा करती थी कि वह सभी जाति समूहों को बराबर आदर देती है. बाबासाहेब अंबेडकर के अनुसार, महात्मा गांधी का सामाजिक आदर्श या तो जाति व्यवस्था के मॉडल पर आधारित था या फिर वर्ण व्यवस्था के मॉडल पर. वंचित समूहों के मुद्दों को उठाने वाले एक राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में अपने पूरे जीवन में बाबासाहेब अंबेडकर ने विशुद्ध तर्क के ऊपर रहस्यवाद की जीत का जोरदार विरोध किया. उन्होंने स्पष्ट रूप से आधुनिक मशीनरी के उद्भव का समर्थन ऐसे औजार के रूप में किया, जो बर्बर स्थिति से मनुष्यता को स्वतंत्र करेगा और उनके लिए संभावनाओं की एक दुनिया के द्वार खोलेगा, जो लंबे समय से अंधकार और वंचना के साये में रहते आ रहे हैं. बाबासाहेब के द्वारा प्रधानमंत्री नेहरू के मंत्रिमंडल से 27 सितंबर, 1951 को त्यागपत्र देने के पांच कारण थे. एक कारण यह था कि कानून मंत्री की जिम्मेदारी देते हुए प्रधानमंत्री नेहरू ने उनको योजना विभाग देने का वादा किया था. यह वादा पूरा नहीं किया गया और उन्हें मंत्रिपरिषद की किसी कमिटी में भी शामिल नहीं किया गया. दूसरी वजह थी दलितों और उनकी स्थिति को लेकर सरकार का लापरवाह रवैया. तीसरी वजह कश्मीर मुद्दे पर नेहरू के तौर-तरीके से उनका विरोध थी. चौथा कारण नेहरू की दोषपूर्ण विदेश नीति थी. अंबेडकर ने यह भविष्यवाणी की थी कि इस नीति से दोस्तों की जगह हमारे दुश्मन अधिक बनेंगे. पांचवी वजह यह रही कि हिंदू कोड बिल पर नेहरू अपने वादे पर खरे नहीं उतरे. विधेयक पारित करने को लेकर नेहरू द्वारा समुचित उत्साह और दृढ़ता नहीं दिखाने से बाबासाहेब निराश थे.
एक बौद्धिक और मजबूत नेता को दरकिनार करने का सबसे खराब तरीका उत्तरी बंबई की आरक्षित सीट से 1952 के चुनाव में उन्हें हराने का तिकड़म करना था. कांग्रेस ने उस चुनाव को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया और एसके पाटिल और कम्युनिस्ट नेता श्रीपद अमृत डांगे के माध्यम से प्रधानमंत्री नेहरू व्यक्तिगत तौर पर निगरानी कर रहे थे कि एक अनजान नारायणराव काजरोलकर के हाथों बाबासाहेब की पराजय हो. कांग्रेस ने अपनी प्रतिष्ठा को दांव पर लगा दिया था और कांग्रेस तथा कम्युनिस्टों के हर पैंतरे का इस्तेमाल किया गया कि संविधान निर्माता को हरा दिया जाए एवं उनकी विरासत को दरकिनार कर दिया जाए. नेहरूवादी वर्चस्ववादी राज्य ने स्पष्ट संकेत दे दिया कि आलोचनात्मक, विशद विद्वता, क्षमता या योग्यता के लिए उसके यहां कोई जगह नहीं है. नेहरूवादी राज्य और उसके कैंसिल कल्चर ने उन सभी को दरकिनार करने का प्रयास किया, जिनसे उनके वर्चस्व को खतरा था. बाबासाहेब अंबेडकर ऐसे ही एक नेता था, जिनकी अंतिम किताब ‘बुद्ध एंड हिज धम्म’ थी. उनका देहांत छह दिसंबर, 1956 को हो गया. उन्हें कोई दरकिनार न कर सका और वे नेहरूवादी राज्य की राख से उभर आये. भारतीय गणराज्य के 75 वर्ष के उत्सव का अवसर वह समय है कि हर भारतीय उनके जातिविहीन और समानता आधारित समाज की स्थापना के सपने को साकार करने का प्रयास करे, जो संविधान में उल्लिखित है, ताकि 2047 में हम सचमुच समावेशी और नवोन्मेषी विकसित भारत बना सकें.
(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)