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दुर्गापूजा में भी बाजार है मंदा,राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित बुनकर खेत में काम कर गुजर बसर करने को मजबूर

बानेश्वर सरकार ने कहा कि सूरत की इन साड़ियों को बंगाल आने से रोकने के लिए सरकार को कई बार सूचित करने के बावजूद कोई फायदा नहीं हुआ. इसलिए सही कीमत नहीं मिलने के कारण राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त इस कलाकार को फील्ड वर्क चुनना पड़ रहा है

बर्दवान, मुकेश तिवारी : पूर्व बर्दवान जिले के ताम्रघाट गांव के बुनकरों के समक्ष अब रोजी रोटी के लाले पड़ने लगे है. गुजरात के सूरत से सस्ते दामों में जामदानी साड़ियों के बंगाल में आने से यहां के हस्त करघा बुनकरों की मुश्किलें बढ़ गई है. दुर्गापूजा में भी इन बुनकरों का बाजार मंदा है. यही कारण है की इस गांव के जामदानी साड़ी के बेहतर बुनकरों के समक्ष रोजी रोटी के तक लाले पड़ने लगे है. इसी गांव के रहने वाले राष्ट्रपति पुरुस्कार से सम्मानित बानेश्वर सरकार आज बुनाई का काम छोड़ कर मजबूरन खेत मजदूर का काम करने को बाध्य है. कभी बंगाल के इस ताम्रघाट (तमा घाट) गांव की बुनी गई साड़ियों के लिए देश विदेश और ऊपर हाई प्रोफाइल वाले लोग यहां से तैयार साड़ियों को खरीदकर पहनते थे. लेकिन आज हालत बिल्कुल विपरीत है.

सूरत से बंगाल में साड़ियों के आने से यहां के कारीगरों के समक्ष रोजी रोटी के लाले

अब जामदानी साड़ियों की बुनाई लगभग बंद हो गया है. बुनकरों का कहना है की साड़ी की बुनाई कर मजदूरी तक नहीं निकल पा रही है. हम जो साड़ी बनाते है मार्केट में उससे सस्ता साड़ी गुजरात के फैक्टरियों से तैयार होकर यहां के बाजारों में सस्ते दर पर बिक रहे है. हमारी महंगी साड़ियों के खरीदार नहीं है. बताया जाता है की ताम्रघाट इसी पूर्वस्थली ब्लॉक का एक गांव है. और इस गांव में बड़े-बड़े बुनकर रहते हैं. बानेश्वर ने कुछ साल से ही बुनाई का काम बंद कर दिया है. लेकिन इसके पीछे एक बड़ी वजह है कि उन्होंने ये काम क्यों बंद कर दिया ? वह बाज़ार के साथ तालमेल बिठाने में असमर्थ है. बानेश्वर सरकार का कहना है कि अन्य प्रांतों से साड़ियों के बंगाल के बाजार में आने के बाद से जामदानी साड़ियां अब लोकप्रिय नहीं रही हैं.

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साड़ियों की खरीद-बिक्री में हो रही है परेशानी

उनका दावा है कि खरीद-बिक्री में परेशानी हो रही है. जिससे उनकी खुद की आर्थिक स्थिति खराब हो रही थी. जो लोग साड़ियां बनाते हैं वे जामदानी साड़ियां बुनने के लिए पैसे और बिक्री की कमी के कारण एक ही स्थान पर बेचते थे. बानेश्वर सरकार का कहना है कि गुजरात के सूरत की साड़ी के उत्थान के बाद उक्त साड़ी से मुकाबला करना संभव नहीं है. हमे यदि एक साड़ी बुनने में पांच दिन लगते हैं.यदि श्रमिक का वेतन 300 रुपए है, तो पांच दिनों में यह 1500 रुपए केवल उनकी मजदूरी हो जाती है. इस तरह साड़ी बाजार में आने पर खरीदारों को महंगी लगने लगती है.

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सूरत की इन साड़ियों को बंगाल आने से रोकने का सरकार से आवेदन

हालांकि, बानेश्वर सरकार ने कहा कि सूरत की इन साड़ियों को बंगाल आने से रोकने के लिए सरकार को कई बार सूचित करने के बावजूद कोई फायदा नहीं हुआ. इसलिए सही कीमत नहीं मिलने के कारण राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त इस कलाकार को फील्ड वर्क चुनना पड़ रहा है. आज दुर्गापूजा के दौरान गांव के कुछ बुनकर अब भी साड़ी बुनकर बाजार में बेचने उतरे है लेकिन उन्हें उपयुक्त खरीदार नहीं मिल पा रहे है.

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