सरायकेला, शचिंद्र कुमार दाश : इसे चाहे अंध विश्वास की पराकाष्ठा कहें, या अपने आराध्य देव के प्रति अटूट अस्था. इन दोनों ही तथ्यों में सरायकेला-खरसावां जिला में एक ऐसा परिपाटी है, जिसमें मन व आत्मा की शांति के लिये शरीर को बेहद कष्ट देने में हठी भक्तों को सुकून मिलता है. सरायकेला-खरसावां के विभिन्न क्षेत्रों में वर्षो से चली आ रही चड़क पूजा को आज भी क्षेत्र के लोग पूरी निष्ठा के साथ निभाते है. 14 अप्रैल को पाट संक्रांति पर वार्षिक चड़क पूजा का समापन होगा. इस दौरान भक्त अपने आराध्य के प्रति हठ भक्ति को प्रदर्शित करते है.
सरायकेला-खरसावां जिला के लगभग हर क्षेत्र में चड़क पूजा का आयोजन होता है. वर्षो से इस गांव में चली आ रही यह परंपरा अब भी पूरे उत्साह के साथ हर वर्ष पूरा किया जाता है. भक्ति की इस परंपरा का वर्षो से पालन करने वाले इस हठी भक्तों का मानना है कि पूरी प्रक्रिया ही भगवान को समर्पित है. जिस मन्नत को पूरा करने के लिये भक्त भगवान से वादा करते है, वहां वादा खिलाफी की दूर-दूर तक गुंजाइश नहीं रहती है.
चड़क पूजा के दौरान अजिबो नजारा देखने को मिलती है. इस दौरान कई भोक्ता हैरतंगेज करतब दिखाते है. चड़क पूजा के दौरान भगवान शिव से मांगी गयी मन्नत पूरी होने की खुशी में भोक्ता भगवान शिव की आराधना कर हठ भक्ति को प्रदर्शित करते है. सरायकेला के भुरकुली, खरसावां के चिलकु, कुचाई के अरुवां समेत कई गांवों में हर वर्ष हठ भक्ति की इस परंपरा को निभाते हुए देखा जाता है. कोई अपने अपनी पीठ की चमड़ी में छेद करा कर बैल गाडी खींच लेता है, तो अपनी मन्नत पूरी होने की खुशी में 25 फीट ऊंची एक बांस के सहारे झूल जाता है. ढ़ोल-नगाडों की थाप पर जलते आग के शोलों पर चलते दर्जनों भोक्ताओं को भी देखा जा सकता है. कई भोक्ता तो बबूल, बेर, बेल के कांटेदार टहनियों को फूलों की सेज समझ कर लेट जाते है. कई भोक्ता लकड़ी के पटरा पर गाड़े गये नूकीला कांटी पर सोकर अपने आराध्य देव से किया हुआ वायदा पूरा करते है.
खरसावां में राजा-राजवाड़े के समय से चड़क पूजा का आयोजन होते आ रहा है. बताया जाता है कि रियासती काल में सरकार के राजकोष से चड़क पूजा के लिये राशि खर्च की जाती थी. देश के आजादी के बाद सरकार व तत्कालिन राजा के बीच हुए मर्जर एग्रिमेंट के बाद से ही चड़क पूजा का आयोजन सरकारी स्तर से होता है. चड़क पूजा पर खर्च होने वाली राशि का वहन सरकार करती है. अंचल कार्यालय के जरीये उक्त आयोजन कराया जाता है. पांच दिवसीय चड़क पूजा को नौ भोक्ता संपादिक करते है.
सरायकेला के भुरकुली में वर्ष 1908 से चड़क पूजा का आयोजन होते आ रहा है. गांव के बुजुर्ग बताते है कि भुरकुली गांव में 1908 में शिवलिंग का आविर्भाव हुआ है. इसके पश्चात गांव के लोग इस शिव लिंग को विश्वनाथ महादेव का नाम देते हुए पूजा करने लगे. तभी से गांव में चैत्र पर्व सह चड़क पूजा का आयोजन किया जाता है. यहां चड़क पूजा के दौरान भोक्ता रजनी फूड़ा, जिव्हावाण, आगी पाट, गांजा डांग समेत कई हैरतंगेज कारनामे दिखाते है. यहां भोक्ताओं द्वारा प्रदर्शित की जाने वाली हठ भक्ति को देख हर कोई हैरान हो जाता है.
Also Read: साहिबगंज जिला खनन कार्यालय में ED की रेड, मंडरो सीओ को भी बुलायाबताया जाता है कि खरसावां के चिलकु व कुचाई के अरुवां में आयोजित होने वाली चड़क पूजा 150 साल पुरानी है. यहां भी भोक्ता नूकिले कांटी लगे पटरा में सोने के साथ साथ आग में चलते है. कई भक्त ने अपनी मांह में सुई-धागा पिरो कर रजनी फूड़ा के रश्म को निभाते है. बताया जाता है कि वर्षो से गांव के लोग हर वर्ष इस अनुष्ठान को निभाते है.
हर वर्ष अप्रैल माह को संक्रांति के तिथि पर चड़क पूजा का समापन होता है. महाविशुव संक्रांति पर चड़क पूजा के अंतिम दिन मंदिरों में पूजा अर्चना की जाती है. अमुमन हर वर्ष नौ से 14 अप्रैल को चड़क पूजा का आयोजन होता है. क्षेत्र में लोग इसे मासंत पर्व के रुप में भी मनाते है. चड़क पूजा को चैत्र पर्व का धार्मिक पहलू भी माना जाता है. मान्यता है कि पांच दिवसीय चकड़ पूजा में यात्रा घट निकलने के बाद ही छऊ नृत्य करने का प्रचलन है. कहा जाता है कि राजा-राजवाड़े के समय से चड़क पूजा का आयोजन होते आ रहा है. हर वर्ष लोग बड़े ही उत्साह के साथ इस पर्व को मनाते है.
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