Chehre Review
फ़िल्म- चेहरे
निर्देशक- रूमी जाफरी
निर्माता -आनंद पंडित
कलाकार- अमिताभ बच्चन,इमरान हाशमी, अनु कपूर,धृतिमान चटर्जी, रघुबीर यादव, रिया चक्रवर्ती, क्रिस्टल डिसूजा,सिद्धांत कपूर और अन्य
रेटिंग डेढ़
अक्षय कुमार की फ़िल्म बेलबॉटम के बाद अमिताभ बच्चन की फ़िल्म चेहरे सिनेमाघरों में रिलीज हुई है. फ़िल्म चेहरे की सबसे बड़ी खासियत इससे जुड़े चेहरे हैं. अमिताभ बच्चन, इमरान हाशमी, अन्नू कपूर, धृतिमान चटर्जी, रघुबीर यादव जैसी स्टारकास्ट है. जब ये नाम किसी फिल्म से साथ जुड़ते हैं तो उम्मीदें बढ़ ही जाती हैं. लेकिन कमज़ोर कहानी उससे जुड़ा अति नाटकीय थ्रिलर और भारी भरकम संवाद इन उम्मीदों पर पानी फेर गया है.
फ़िल्म की कहानी दिल्ली के रहने वाले समीर मेहरा (इमरान हाशमी) की है जिसे दिल्ली जाने को है लेकिन शिमला के बर्फीले तूफान में वह फंस गया है या कहे फंसा दिया गया है. समीर बर्फीले तूफान में बचने के लिए एक हवेलीनुमा घर में आश्रय लेता है। उस घर में चार रिटायर्ड कोर्ट के अधिकारी हैं जो आपस में दोस्त है.
दो वकील, एक जज और एक जल्लाद का काम कर चुके हैं. ये चारों मिलकर अक्सर रुकने वाले राहीगिरों के साथ क्रिमिनल केस का मॉक ट्रायल करते हैं. जिसे ये असली खेल कहते हैं. समीर भी इस खेल में शामिल हो जाता है. उसपर उसके ही बॉस ओसवाल ( समीर सोनी) की हत्या का इल्जाम वकील जैदी (अमिताभ बच्चन) लगाते हैं. क्या ये इल्जाम सही है. किस तरह से जैदी समीर को उसके बॉस की हत्या का दोषी पाते हैं. क्या वे इसे साबित कर पाएंगे. ये सिंपल कोर्टरूम ड्रामा है जो नकली कोर्ट में घटता ज़रूर है लेकिन फैसला नहीं यहां इंसाफ होता है. कैसे ये होगा? यही फ़िल्म की आगे की कहानी है.
कहानी का मूल कांसेप्ट रोचक है लेकिन जो परदे पर कहानी नज़र आईं है वो मामला पूरी तरह से बोझिल कर गयी है. फ़िल्म का पहला हाफ सिर्फ किरदारों और कहानी को स्थापित करने में चला गया है. फ़िल्म का सेकेंड हाफ कुछ ट्विस्ट के साथ शूट तो किया गया है लेकिन वो ट्विस्ट 90 के दशक की इमरान हाशमी वाली कई फिल्मों से मेल खाते हैं.
वही विवाहेत्तर संबंध का ताना बाना फ़्लैशबैक स्टोरी में परोसा दिया गया है रही सही कसर फ़िल्म का कमज़ोर क्लाइमेक्स कर गया है विशेषकर अमिताभ बच्चन का मोनोलॉग. फ़िल्म की कहानी और उस मोनोलॉग का आपस में कोई सिर पैर नहीं है. दिल्ली के निर्भया केस, एसिड पीड़ितों की दुर्दशा का जिक्र संवाद में क्यों हुआ है. ये बात फ़िल्म देखते हुए समझ से परे लगती है. फ़िल्म में रिया चक्रवर्ती और सिद्धांत कपूर की ट्रैजिक बैक स्टोरी भी है लेकिन वह कहानी में कोई वैल्यू एड नहीं कर पाते हैं.
अभिनय की बात करें यह अमिताभ बच्चन और इमरान हाशमी की फ़िल्म है और इन दोनों कलाकारों ने अपने परफॉर्मेंस से बांधे रखने की पूरी कोशिश की है लेकिन ये कोशिश कमज़ोर स्क्रिप्ट की वजह से कामयाब नहीं हुई है. क्रिस्टल डिसूजा अपनी ग्रे शेडस वाली भूमिका में अभिनय के नाम पर कुछ खास नहीं कर पायी है. अनु कपूर और धृतिमान चटर्जी अपने किरदारों में ज़रूर छाप छोड़ने में कामयाब रहे हैं. फ़िल्म में रघुबीर यादव और सिद्धांत कपूर को करने को कुछ खास नहीं था. रिया चक्रवर्ती के बारे में भी ये बात कही जा सकती है.
गीत संगीत पर आए तो इस थ्रिलर ड्रामा कहानी में गानों की ज़रूरत नहीं थी लेकिन फ़िल्म में दो गाने हैं और दोनों ही प्रभावित करने में विफल भी रहे हैं. फ़िल्म के दूसरे पहलुओं की बात करें तोफ़िल्म का वीएफएक्स भी कहानी और स्क्रीनप्ले की तरह कमज़ोर रह गया है. भारी बर्फबारी परदे पर दिख रही है लेकिन इमरान हाशमी और अनु कपूर के कंधों और सिर पर बर्फ के कुछ फाहे ही पड़े हैं.
क्लाइमेक्स में इमरान हाशमी की मौत वाला दृश्य भी बहुत ही खराब वीएफएक्स का उदाहरण पेश करती है. इससे बेहतर होता कि फ़िल्म का अंत घर में ही हो जाता था।फ़िल्म का लोकेशन खूबसूरत है खासकर जस्टिस आचार्य का घर. फ़िल्म के दूसरे पहलुओ पर जाए तो एडिटिंग चुस्त हो सकती थी. एडिटिंग पर काम किया जाता तो यह फ़िल्म बोझिल बनने से बच सकती थी।सवा दो घंटे की इस फ़िल्म को 40 से 50 मिनट कम किया जा सकता था.
आखिर में अगर आप अमिताभ बच्चन के बहुत बड़े प्रसंशक हैं तो ही यह फ़िल्म आप देखने का रिस्क ले वरना फ़िल्म देखते हुए आप इमरान हाशमी के इस संवाद को ही दोहराएंगे मैं इस खेल से थक और पक गया हूं..खत्म करो इसे.